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Union Carbide: Bhopal Gas

भोपाल तीन काल - शम्भु चौधरी


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-1-
चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को |
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो
उस नापाक इरादों को
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।


[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 28 दिसम्बर1987]


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-2-


वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी ।
कुछ जमीन पर सोये सांसे गिन रही थी।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहाँ बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आये तो,
एक गैसयंत्र ओर यहाँ बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जायेगें।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 02 दिसम्बर1987]



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-3-


भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं मानव।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 5 नवम्बर 1988]

-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

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[Scrip code: Union Carbide: Bhopal Gase]


देश भक्ति गीत - शम्भु चौधरी

1. मेरा वतन
मेरा वतन... मेरा वतन..2
ये प्यारा हिन्दुस्तान-2
हम वतन के हैं सिपाही...
वतन के पहरेदार....2
मेरा वतन... मेरा वतन..2 ये प्यारा - 2
डर नहीं तन-मन-धन का...हमें
हम रक्त बहा देगें...-2
वतन के खातिर सरहद पे हम...
प्राण गवां देगें।
ये प्यारा हिंदुस्तान -2
मेरा वतन... मेरा वतन..2 ये प्यारा - 2
सात सूरों का संगम देखो
जन-जन की आवाज
गा रहे मिलजुल सब
एक स्वर में आज।
मेरा वतन... मेरा वतन..2 ये प्यारा - 2


2. ध्वजः प्रणाम



हिन्द-हिमालय, हिम शिखर,
केशरिया मेरा देश।
उज्ज्वल शीतल गंगा बहती,
हरियाली मेरा खेत,
पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण...
लोकतंत्र मेरा देश
चक्रधरा धरती माँ तुझको
शीश नमन करते हम
माँ ! शीश नमन करते हम!
हम सब भारत की संतान
हमको दो आशीष महान।
'जय-हिन्द', 'जय-हिन्द'
'जय-हिन्द', 'जय-हिन्द', 'जय-हिन्द'!


3.श्रद्धांजलि


नमन तुम्हें, नमन तुम्हें, नमन तुम्हें,
वतन की राह पे खड़े तुम वीर हो,
वतन पे जो मिटे वो तन,
नमन तुम्हें।नमन तुम्हें,
नमन तुम्हें, नमन तुम्हें,
ये शहीदों की चित्ता नहीं,
भारत नूर है,
चरणों पे चढ़ते 'हिन्द' ! तिरंगे फूल हैं।
मिटे जो मन, मिटे जो धन,
मिटे जो तन वतन की राह पे खड़े तुम वीर हो,
वतन पे जो मिटे वो तन,
नमन तुम्हें नमन तुम्हें! नमन तुम्हें! नमन तुम्हें!


4.वतन की नाव


मारो मुझे एक ऐसी कलम से,
जिससे फड़कती हो मेरी नब्जें;
लड़ते रहें, हम लेकर नाम मज़हब का,
मुझको भी जरा ऐसा लहू तो पिलावो,
बरसों से भटकता रहा हुं,
कहीं एक दरिया मुझे भी दिखाओ;
बना के वतन की नाव यहाँ पे;
मेरे मन को भी थोड़ा तो बहलाओ।
मरने चला जब वतन कारवाँ बन,
कब तक बचेगा जरा ये भी बताएं?


-शम्भु चौधरी, एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106

फणीन्द्र कुमार पाण्डेय की दो कविताएँ

1. आशीर्वाद
आशीर्वाद करे तुम्हें चित्त-चोर।
तुमको आशीर्वादित करे चित्त-चोर।
राधा के नायक प्रेम साधक नन्द किशोर।।
समाज का करे समुचित विकास-समाज विकास।
दुर्भावनाओं का हो मानव मन से निकास।।
सुमनों की सर्वत्र फैले सर्वत्र सुवास।
सबके हृदयों से निकले देश प्रेम की श्वास।।
फणीन्द्र का हो जावे सफल-विश्वास।
मम कविता सुमन से बिखरे देश प्रेम की सुवास।।
यत्र-तत्र सर्वत्र फैले पत्रिका समाज विकास।
हटावे लेखनी से जन-जन का त्रास।।
हो जावे सबको पत्रिका की च्प्राश।
ऐसा जीते ये जनता का विश्वास।।
भावे तो इसे तुम प्रकाशित कर देना।


2. महाकाली का भैरवी गान

पाक अधिकृत कश्मीर हो आजाद
आध्यात्मिकता पूर्ण हो समाज-विकास।
हो सब में श्री राम का अब निवास।।
मातृभाव का हो मानव हृदय में प्रकाश।
राष्ट्रीयता को हो समर्पित हर श्वास।।
आतंकवाद का करने को शीघ्र हरास।
बच्चा-बच्चा बन जावे वीर-सुभाष।।
आतंकवाद का खत्म हो जावे राज।
झेले न त्रासदी फिर से होटल ताज।।
सर्वत्र हो फिर से भारत में राम-राज।
आतंकवाद न बिगाड़ने पावे कोई काज।।
सुख शान्ति की यत्र-तत्र-सर्वत्र चले रेल।
नेता जवाब दें-आतंकवाद का बन कर पटेल।।
आतंकवाद का न झेले-अब कोई क्लेश।
करो ऐसा कारगर उपाय कहता तुम से देश।।
शान्ति की बातें क्या सुने ये दुष्ट शैतान।
कहता यही हमसे महाकाली का भैरवी गान।।
कहते हमसे कर्मशील बन कर डटो फिर आज।
करो ऐसा काम जिससे पाक आ जावे बाज।।
यही कहते भगत-बोस-बाई, और आजाद।
पाक अधिकृत कश्मीर को अब कराओ आजाद।।


-फणीन्द्र कुमार पाण्डेय, सल्ला सिमल्टा
चम्पावत-262523, उत्तराखण्ड

मंथन -रामजीलाल घोड़ेला ‘भारती’

आदमी के मन में
हर वक्त चलता है
विचार मंथन।
यह मंथन
उसके अपने
संजोये कर्मों
भविष्य के सपनों
उगते सूर्य
चमकते सितारों
निहारती नजरों
उफनते समन्दर
कांपती धरा का
ही तो है।
यह मंथन
उसकी शंकाओं
मन के भ्रम
जीवन की आशा
हृदय का विश्वास
उपजे सद विचारों
चेतन भावनाओं
परिपक्व संवेगों
को उल्लेखित करता है।
यह मंथन
उसके पीढ़ियों के
संस्कारों
उसके परिश्रम
वर्षों के संघर्ष
जन्म जन्मांतरों के
संचित कर्मों
का ही तो है।
यह मंथन
अपने गुण
दूसरों के दोष
सुबह शायं
लम्बी होती छाया
काया में छिपी
कामनाओं का
ही तो है।
यह मंथन
बढ़ती हिंसा
पांव पसारता
क्रूर आतंक
आदमी का
घटता मूल्य
निर्दोषों की हत्या
हाफते लोगों
क्रंदन करते बच्चों
का ही तो है।


सी/ओ राज क्लॉथ स्टोर,
लूनकरनसर-334603, बीकानेर (राज.)

नववर्ष मंगलमय हो ! - डॉ. अनिल शर्मा ‘अनिल’

नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
तुम्हें नयी नयी खुशियाँ मिलें।
खुशियों के फूल खिलें।।
वो पथ बन जायें सुगम।
जो पथ कंटकमय हो।।
नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
तुम जाओ जहाँ भी कहीं।
खुशियाँ बरसाओ वहीं।।
निर्भय हो काम करो।
नहीं कोई भी भय हो।।
नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
तुम गाते रहो प्रेमगीत।
बन सब के हिय के मीत।।
कुछ नये-शब्द तुम दो।
और कोई नयी लय दो।।
नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
- डॉ. अनिल शर्मा ‘अनिल’

‘‘स्वप्न’’ - देवेन्द्र कुमार मिश्रा

सपना तब होता है सपना
जब खुलती है नींद
चलते स्वप्न बिल्कुल
सच्चाई होते हैं
जीवन की तरह।
दुःख है तो है
सुख है तो है
सपना चल रहा है
जो घट रहा है
वो सही है।
अब ये तो नींद खुलने
पर निर्भर है
कि सब अपना लगे।
नींद आ गई है
सपने सत्य हैं
स्वप्न में ही जीवन है मरण है
नींद जो लम्बी है
लगता है
कभी खुलती भी है
तो आँख बन्द कर लेता हूँ
इस आस से कि शायद
कोई अच्छा सुख मिल जाये।
नींद की आदत पड़ गई है
न टूटे तो बेहतर
और खुल गई जिस दिन आँख
उस दिन सब स्वप्न
चाहे जीवन ही क्यों न हो।


- जैन हार्ट क्लीनिक के सामने
एस. ए. एफ. क्वार्टर्स बाबू लाईन, परासिया रोड
छिन्दवाड़ा (म.प्र.) - 480001, मोबाइल: 9425405022

मांड - ताऊ शेखावाटी

ठंडी, ताराँ छाई रात, कराँ दोय बात
सजन घर आओ सा!
म्हारै हिवड़ै रा रूप हजारा, पिउ प्यारा
घर आओ सा!
दरखत हो’गी दूबड़ी सा! चढ़ र’यो जोबन ज्वार
ऊमर घूमर घाल री सा! गावै रूप मल्हार
बरसै बैरस रुत बरसात
हियो हुळसात
सजन घर आओ सा!
अळियाँ गळियाँ कँवळी कळियाँ, उर उनमाद भरै
नुगरा भँवरा ओपरा सा! नित कुचमाद करै
बैठ्या चोर लगायाँ घात
तकै दिन रात
सजन घर आओ सा!
मळ-मळ न्हाया, मलमल पै’री, पल-पल डीक्या सा!
माँड्या मैहँदी माँडणा सब थाँ बिन फीका सा!
सुपनै में ही घड़ी स्यात
करण दो बात
सजन घर आओ सा!

Tawoo Shekhawati
रचयिता का संपर्क पता:
- ताऊ शेखावाटी
32, जवाहर नगर, सवाई माधोपुर-322001
Mobile No. 09414270336/ 09414315094

खून बहाओगे -डॉ. मोहन ‘आनन्द’

बोलो आततायी बोलो, कितना खून बहाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम, भारत माता की छाती।
बांट रहे टुकड़ों-टुकड़ों में, ये क्यों ज़ालिम उत्पाती।
इनसे हाथ मिलाकर बोलो, क्या हासिल कर पाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
क्या-क्या सोच-सोचकर, माँ ने तुमको जन्म दिया होगा।
तेरे लालन-पालन में, कितना श्रम होम किया होगा।
उसका सीना छलनी करके, तुम कैसे जी पाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
जाति-पाँति, मजहब का माता, भेद नहीं स्वीकारती।
अपनी गोदी में लेकर वह, सबको सदा दुलारती।
ऐसी माँ को दुःख पहुँचाकर, तुम कैसे सुख पाओगे।
भारत माता के आंचल में गंदे दाग लगाओगे।
बोली-भाषा, क्षेत्रवाद पर लहू बहाने वालों।
समझो ना कमजोर किसी को, खुद को जरा सम्भालो।
तुम भी चंगुल में आ सकते, भाग कहाँ जाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
देश बचा तो जीने का हक, तुमको मिला रहेगा।
वरना गन्दी करतूतों का, तुमको गिला रहेगा।
ऐसा सबक सिखा देंगे, तुम सिर धुन-धुन पछताओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
बोलो आततायी बोलो, कितना खून बहाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।


रचयिता का संपर्क पता:
डॉ. मोहन आनन्द
सुन्दरम् बंगला, 50 महाबली नगर
कोलार रोड भोपाल (म.प्र.)

हेली! (आत्मा) - ताऊ शेखावाटी

हेली जलम्यो है बो मरसी, ईं में बोल राम के करसी।
मंदिर धोक’र चाए मसजिद, गुरुद्वाराँ अरदास कर्याँ नित।
काम न आणी कोई भी बिध, तूँ जितणी भी करसी।
हेली! जलम्यो है वो मरसी, जग में जीव जळम निज पाताँ।
लेखो लेती हाथूँ-हाथाँ, साँस जिता घालै बेमाता।
उतणा लेणा पड़सी, हेली! जळम्यो है बो मरसी।
क्यूँ हो’री है करड़ी-काठी, काळचक्र गति जाय न डाटी।
सब नैं हीं मिलणो है माटी, घींस्यो हो या घड़सी।
हेली! जळम्यो है बो मरसी, होणी कदै टळै नीं टाळी।
रीत सदाँ स्यूँ आई चाली, पल्लव नुवाँ उगंताँ डाळी।
पात पुराणाँ झड़सी, हेली! जळम्यो है बो मरसी।

Tawoo Shekhawati
रचयिता का संपर्क पता:
- ताऊ शेखावाटी
32, जवाहर नगर, सवाई माधोपुर-322001
Mobile No. 09414270336/ 09414315094

मांग सकेंगे क्षमा वतन से - मधुर गंजमुदाराबादी

केवल तन से मिलना क्या है, आज मिलें हम अन्तर्मन से।
प्रेम भाव का शुचि प्रवाह हो, दूर रहें हर द्वेष-जलन से।।
वर्ण भले ही अलग-अलग हो, अलग-अलग हो बोली-बानी।
किन्तु हृदय में स्नेह-भाव की, बहे सतत् धारा कल्याणी।।
अब कल्याण नहीं हो सकता, इस कोरे बाहरी मिलन से।
एक दूसरे के पर्वों को, मिलकर अपना पर्व बनाएँ।।
छँटे घना असान अँधेरा, हिलमिल होली-ईद मनाएँ।
साल-साल मुस्काना सीखें, उपवन के हर एक सुमन से।।
कोई भटके नहीं कहीं पर, सारे सूत परस्पर जोड़ें।
समरसता के व्यवहारों में, राजनीति का नाटक छोड़ें।।
विनय, दया, करुणा अपनाएँ, बहें सुवासित मलय पवन से।
राहें भले अलग हों सबकी, किन्तु लक्ष्य है एक सभी का।।
कम न सिवईयों की मिठास हो, रंग न हो होली का फीका।
चूक गए तो क्या कह कर हम, माँग सकेंगे क्षमा वतन से।।

- हितैषी स्मारक सेवा समिति
गंजमुरादाबाद-उन्नाव, उ0प्र0-41502

भूतपूर्व - रामनिरंजन गोयनका

हम भूतपूर्व होते, आराम से सोते
चाहे देश की चिन्ता से ना हो सम्बन्ध
भूतपूर्व की सुरक्षा के रहते कड़े प्रबन्ध
सुरक्षा भी करोड़ों की ब्लेककैट की आन-बान
भूतपूर्व के बंगले की महल जैसी शान
घर बैठे ऊपर से पेंशन पाते
जहां भी चाहते हवाई जहाज उड़ाते
वर्तमान के हौसले जहां होते थे पस्त
भूत के सहारे पूर्व रहते मस्त-मस्त
हम भी भूत होते सरकार हमारी भी चिन्ता करती
हमारी काली कुतिया तक भूखी नहीं मरती
एक बंगला मिल जाता सुन्दर सा न्यारा
शाक सब्जी फलों का बगीचा प्यारा-प्यारा
हमारी भी सुरक्षा के होते कड़े प्रबन्ध
चाहे फिर हमारा किसी भी खतरे से ना हो सम्बन्ध
वर्तमान से भूत प्राप्त करने के कई फायदे हैं
कहीं उपलब्धि तो कहीं झूठे वायदे हैं
भूत का वर्तमान को रखना पड़ता है ध्यान
कम्बख्त कहीं मुँह ना खोलदे ना करदे बदनाम
न जाने कब कौन सी फाईल खुलवादे
कौन से पुराने कागजों की फोटो कॉपी निकलवादे
इसलिये भूत को चुप रखना जरूरी है
वर्तमान को भी भूत होना उसकी शाश्वत कमजोरी है।

रामनिरंजन गोयनका,फैंसी बाजार, गुवाहाटी(असम)

ब्याह को पंडाल - राधेश्याम पोद्दार

(मारवाड़ी भाषा में)


गरीबाँ की छोर्याँ सिसक रही, थे लाखाँ को पंडाल बणायो।
घड़ी दो घड़ी शोभा करली, पण कोई क काम न आयो।
घणी छोरियाँ क्वाँरी बैठी, वह नहीं अगणित पीसो पायो।
मात पिता गुजरान कर है, घुट-घुट करके जनम गँवायो।
थे समाज स पीसो पायो, पर समाज-हित में न लगायो।
पेट भर कुत्तो भी निजको, इसमं कौन बड़ाई पायो।
देख्या देखी क सौद मं, थे तो धन न व्यर्थ गमायो।
ऊंडी बात बिचारी कोनी, बणिया होकर घाटो खायो।
मन में थे लक्ष्मीपति विष्णु, रत्ती भर भी नहीं सहिष्णु।
दो पीसा भी दिया किसी न, तो उसन दस बार गिणायो।
चंचल लक्ष्मी सदा न रहणी, चोखा चोखा काल समायो।
धन धरती नहीं संग में चाली, क्यूं बडपन को ढ़ोंग रचायो।
बहती गंगा हाथ पखालो, बारम्बार न मौको पायो।
धन की तीजी गति निश्चित है, झूठो थे मन न भरमायो।
गरीबाँ की छोर्याँ सिसक रही, थे लाखाँ को पंडाल बणायो।


2. दहेज-उन्मूलन का उपाय


दहेज उन्मूलन के लिये, सभा हुई बहु बार।
नेताओं ने भी दिया, भाषण धुआँधार।
फोटो खिंचवाये बहुत, नाम छपा अखबार।
माला से ग्रीवा भर गई, तालियों का अम्बार।
किन्तु मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों किया उपचार।
दहेज बढ़ता ही गया, सुरसा मुख सा हर बार।
त्याग औषधि रोग की, जिसका न किया व्यवहार।
भाषण से नहीं उतरता, दहेज का प्रबल बुखार।
नेता भी है अनेकजन, उनके पुत्रों का अम्बार।
किसी पुत्र के ब्याह में, दहेज न त्यागा यार।
भीतर ही भीतर लिया, नहीं लोग दिखावन हार।
खातिर में लगवा लिया, दस बीस लाख का सार।
बाकी कन्या के नाम से, लिया दहेज भरमार।
इसी भाँति घर भर लिया, ले बहुमूल्य उपहार।
मुखौटा समाज सुधार का, समाज बिगाड़नहार।
सिर्फ भाषण में ही त्याग है, दहेज मिटावनहार।
धनपतियों के ही यहाँ, किया ब्याह-व्यापार।
अन्तर्मन में कामना, मिले दहेज-भंडार।
बहु कन्याएँ समाज में, बैठी ब्याहनहार।
पर पैसा नहीं पास में, सद्गुण का भंडार।
उनके यहाँ पर जो करें, नेता ब्याह-व्यवहार।
तो दहेज मिट जाएगा, यही सत्य का सार।


- रचयिता का संपर्क पता:
P-180, C. I. T. Road, Scheme VI M
Kankurgachi, Kolkata - 700 054
Phone : (033) 2320 3082
Mobile : 9831475891

अंधेरों का सफर .....

अक्सर सफर में लंबे अंधेरे होते हैं और रौशनी दूर तक नहीं दिखती ......कई बार दर्द होता है और दवा भी ख़ुद ही को करनी होती है। कई बार अपने सवालों के लिए अपने आप से ही जवाब माँगना होता है......कई बार नाउम्मीद होने पर ख़ुद ही उम्मीद की सड़क खोजनी होती है। यह हम सबके साथ होता है और ऐसे में ही ऐसी कुछ नज्में और गज़लें निकलती हैं ....

अंधेरों का सफर .....

दीवारों से टकराता रस्ता ढूंढता हूँ
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं

दीवारों पर लिखी इबारतों का मतलब
साथ खड़े अंधेरों से पूछता हूं

अक्सर अंधेरों में घूमता हूं

टटोलता खुद के वजूद को
अपने ही ज़ेहन में मुसल्सल गूंजता हूं

अक्सर अंधेरों में घूमता हूं

बार बार लड़ अंधेरे में दीवारों से
बिखरता हूं, कई बार टूटता हूं

अक्सर अंधेरों में घूमता हूं

अकड़ता हूं, लड़ता हूं, गरजता हूं
अंधेरे में, अंधेरे को घूरता हूं

अक्सर अंधेरों में घूमता हूं

अहसास है रोशनी की कीमत का
दियों की लौ चूमता हूं

अक्सर अंधेरों में घूमता हूं

हर तीन दीवारों के साथ
खड़ा है दरवाज़ा एक
बस इसी उम्मीद के सहारे
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं

दो गीत -डॉ. मोहन ‘आनन्द’

एक
इस कुहासे को हटाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

छा गई बदली अंधेरे की यहाँ।
ढूंढते न मिल रहा है पथ कहाँ?
आँख पर पट्टी बंधी सी लग रही।
बात सुनकर भी लगे ज्यों अनकही।
आँख से पर्दा उठाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

खुद करें गलती मगर क्यों दोष दूजों पर मढ़ें।
बांधकर फंदा स्वयं फिर शूलियों पर जो चढ़ें।
वक्त की करवट कहें या आदमी की भूल।
हो रहा मजबूर है क्यों चाटने को धूल।
आदमी को आदमी का कद दिखाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

चूक जायेगा समय तब, क्या समझ में आयेगा।
सूखने के बाद क्या पानी दिया हरयाएगा।
लुट चुके को भागने से क्या मिलेगा बताओ?
होश मे आओ स्वयं मत आग खुद घर में लगाओ।
हो चुके बेहोश उनको होश लाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

तुम बनो सूरज मिटा डालो अंधेरा।
बीत जाए रात काली हो सवेरा।
प्रलय की पहली किरण झंकार करदो।
बुझ चुके हारे दिलों में प्यार भरदो।
शाख उजड़ी पर नई कोंपल उगाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।


दो
बची न कोई चाह जला दो होंठ न खोलूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


पीड़ाओं ने भीम बनाया अपमानों ने दुर्योधन।
जितने कष्ट मिले उतने ही थे अपनों के सम्बोधन।
काटा और जलाया तन छिद्रोंमय कर डाला।
मधुर बना संगीत पिलाई होंठों की हाला।

बची न कोई चाह जला दो होंठ न खोलूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


तपती लू में एक बूँद को, दौड़-दौड़ हारा।
जितना दर्द मिला अपनों से, हँसकर स्वीकारा।
वो देते उपकार मानकर, मैं लेता एहसान।
जिस बखरी में जिया आज तक वह दिखती शमशान।

सेज नहीं स्वीकार, चिता पर हँसकर सो लूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


मैं न कभी भीड़ में याचक बनकर खड़ा हुआ।
कभी समेटा नहीं स्वप्न न लाया पड़ा हुआ।
मुट्ठी में लेकर सूरज को बार-बार भींचा।
सारा जीवन सिर्फ चक्षुओं के जल से सींचा।


चाह नहीं अमृत की श्रमकण से मुँह धो लूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


सुन्दरम बंगला, 50 महाबली नगर,
कोलार रोड भोपाल (म.प्र.)

जिनगानी रा च्यार दिन -रामनिरंजन शर्मा ‘ठिमाऊ’

जद जाम्या तो मावड़ी हिवड़ै हरख मनायो।
घणैं चाव सूं बठा गोद में, म्हानै दूधो प्यायो।।
सुध बुध कोई थी नहीं, था कोरा अणजाण।
न कोई नै जाणता, नै थी जाण पिछाण।।
जद भी भूख सतावती, रोता मार चिंघाड़।
मायड़ चूंची देवती, चोली रोज उघाड़।।
आँगलड़ी पकड़ाकर, पायेपा चलवायो।
हळवा हळवा म्हारी जामण झालो देर बलायो।।
जद होग्या मोट्यारिया, दड़ाछंट ही भाग्या।
घणी लगाई हड़बड़ी, सूत्या गिंडक जाग्या।।
रूखां चढ़ता, भागता, करता भोत किलोल।
रोज छबाक्यां कूदता, करता रापट रोल।।
आभै नै छू लेण री, मनड़ै में भी आस।
मिनख मांछरा लागता, म्हें करता उपहास।।
नस-नस में थी ताजगी, थो म्हांनै घणो गुमान।
पोरी-पोरी नाचती, जद म्हे था छिक्क जुवान।।
दूध दही में चूरके, बाजरियै रा रोट।
कूद कूद के खांवता, बणता जबर घिलोट।।
थूक मूंठियां भागता जाता कोसां पार।
ठीडै जूती झड़कावता, कदी न आती हार।।
लोग कैवता गाबरू अर देता काम उढाय।
दूध मोकलो होवतो, रैती भैस्यां गाय।।
हचकड़ियाँ पाणी काडता, भरता घड़ला मांट।
वो किलकी रो तावड़ो, बळती म्हारी टाट।।
जाड़ो कदी न लागतो, कदी न ठिरतो डील।
फटकारै ही पूगता, कदी न करता ढील।।
ऊठक-बैठक काडता और पेलता डंड।
भर स्यालै री टेम में बकर्याँ चरती ठंड।।
भाभ्याँ सागै टिचकली अर करतां घणां चबोड़।
वै भी हंसती-मुळकती करती भोत मरोड़।।
च्यार दिनां री च्यांनणी गई जुवानी बीत।
म्हे तो अब अघखड़ हुया, या दुनियां री रीत।।
माथै पर सिलवट पड़ी, हुया किरडकाबरा बाल।
म्हानै दरपण देखता, खुद पर आवै झाल।।
चोबारै रो सोवणो, होग्यो म्हारो बंद।
बैठ तिबारी सोचर्यो, चाल हुई है मंद।।
अब टाबरिया कैवण लाग्या, म्हानै चाचो ताऊ।
टेम बड़ी बलवान है, रैवै नहीं टिकाऊ।।
बा फुड़ती कोसां गई, गया तावळा साल।
हुयो अड़गड़ै साठ कै, पिचक्या दोन्यूँ गाल।।
अब तो म्है दादो बण्यो, हाडां दियो जवाब।
फेरू कदी न आयसी, सोनै जेड़ी आब।।
संगी-साथी सै गया, गया डील रा स्वाद।
खाल सिमट गुदड़ो बणी, बणी जुवानी याद।।
सूकी निरबल देह रो, हुयो खाट सूं प्यार।
अब तो म्हारो भायलो बण्यो बुढापो यार।।
बाल युवा अर डोकरो, बण्या रूप है तीन।
पैला दो मस्ती करैं, तीजो बणज्या दीन।।
लाठी लेके चालतां, डगमग हालै नाड़।
जिनगानी जर जर हुई, ज्यूं खेत पुराणी बाड़।।

मुझे जीने दो-चीख -सौ.पूनम संजय सारडा

माँ मुझे भी जीना था,
छवि तेरी बनके रहना था
कोख में जब तेरे मैया, मैने पहली ली करवट
एहसास ने मेरे, होठों पे तेरे दी थी हल्की सी मुस्कुराहट
मालूम नहीं था जिंदगी का, पल वो बहुत ही छोटा था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
सच कहूँ माँ कोख पे तेरी जब हुआ
पहला वो वार
मुँह से निकल भी न पाया
एक हल्का सा भी चित्कार
कतरा कतरा बह रहा था
खून वो मैया तेरा ही था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
देती मुझे जनम तू मैया
बनती में लाठी तेरे बुढापे की
एक ही क्या, बनती में शोभा
मैया दोनों की घर की
मेंहदी रचाकर हाथों में मैया
ससुराल में जाना था
मुझको भी तो माता बनकर, ममता का
अनुभव लेना था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
‘‘वंश का दीपक ना सही,
बन सकती थी मैं दीये की ज्योति’’
ना बहाती/गँवाती मेरी याद में मैया
अपनी आँखो के तू मोती
करके बगावत जमाने से मैया, भविष्य मेरा चुनना था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
कोई नहीं है अब तो शिकायत
करू शिकायत तो किससे?
स्त्री जीवन का श्राप था पाया
मैंने अपनी तकदीर से
हे भगवान, गर यही था जीवन,
तो ये जीवन कभी न देना था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
चीख मेरी बच्ची की सुनाकर, गर बचाऊँ किसी मासूम की जान
यह बच्ची ही लौटाएगी जो, खोया था मैंने आत्मसम्मान
अभी तक गूँज रही कानों में उस बच्ची की वो तान।।
माँ मुझे भी जीना था-2


242, महावीर नगर, वखार भाग
गुजराती हाईस्कुल के आगे, सांगली
मो.-9325584010

दस कवितायें -रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’

(1)
कच्चा सन्यास
स्त्रियों को बुरा-भला
चित्त में काम

(2)
विकास-मूल
प्रयोग धर्मी व्यक्ति
दल न नेता

(3)
नशेड़ी पति
सुधार का प्रयास
पत्नी भी आधी

(4)
तनाव मुक्ति
समस्याओं का हल
मदिरा नहीं

(5)
कुछ भी करो
छल कपट हिंसा
चुनाव जीता

(6)
विश्व सुन्दरी
फिल्मों में प्रदर्शन
अर्थ ही साध्य

(7)
वृद्ध को हुये
प्रौढ़ता नहीं आयी
बच्चें के बच्चे

(8)
स्त्रियों को दोष
गुणों की चर्चा नहीं
कैसा वैराग्य?

(9)
अपना राज
अपनी सरकार
तब भी दास

(10)
मृदु स्वभाव
उस्वरा धार नहीं
सृष्टि की शोभा


डी/4, उदय हाउसिंग सोसाइटी
वैजलपुर, अहमदाबाद-380005

दो बांगला कवितावाँ -सुभाष मुखोपाध्याय

1.मरुभोम
म्हैं तो नी भूल्यो
पण कियां भुलाय दी थे
वा शोक री रात
मरुभोम री पवन
उड़ावै ही धूळ आकाश री आंख्यां में
आपरी घांठी नै
ऊंचो उठावतो
टिन-टिन.....टिन-टिन
करतो ऊंटाँ रो टोळो
बावड़ रैयो हो सहर नै छोड़’र
गांव रै कानी
म्हां नै ठानी
रस्तै रै दूजी कानी
कुण सो खड़यो हो बिरछ


2.अर एक दिन
दोनू पग
फंसग्या रास्तै रै कादै में
बांस रै कांपतै पुळ नै
सोरो-दोरो पार कर’र
चल्यो गयो है अबार ई अबार
एक दिन और
चैंका देवै
बीच-बीच में माथा ऊपर
दिन री आवाज
सैनणा री डाल्यां ऊपर झूले है
बड़ी-बड़ी बूंदां
इण बार
हुवैली धान री अणूती खेती
कैवती कैवती
पोखर सूं
हाथ में दीयो लियां
आवै है घर री बीनणी सगळी थळी पर
नचाती अंधेरा नै

उल्थो: श्रीगोपाल जैन

हेल्यां शेखावाटी री -केसरीकान्त शर्मा ‘केसरी’

आज आ हेल्यां में
विखो पड़गो,
माइत मरगा,
सूनैं ढूंढां में
ढांढा रमै,
या अतिक्रमणियां भाईड़ा ।
चूनो चाटगी गायां
गुभारियां में गधा रमै
गरदै रा ढिगला
माटी रा अकूरड़ा
अठै-बठै अऊग्योड़ा
बड़-पीपळ रा गाछ
मकंड़्यां रा जाळा
कबूतरां री गुटरगूं
चमचेड़ां-भीभर्यां रो संगीत !
भूत-भूतण्यां रो बासो,
ओ कांई रासो ?
आंरा भाग कुंण खोलै ?
दिसावरां में रमियोड़ा नैं तो
फुरसत ई कोनी बिचापड़ा नै
बाप-दादा रा ठांव कठै-सी है,
या-ई कोनी जाणै ।
कांई आणी-जाणी है भाईजी
पांती में आज
अेक गुभारियो ही कोनी आवै
अर जिकां रै ज्यादा झमेलो नहीं है,
बै पुरखां रा हेली-नोरा-खेत-कुआ.....
बेचबां नै आवै.....
म्हांनै तो बोलतां-ई सरम आवै ।

आदमी को आदमी, खा रहा आदमी - शम्भु चौधरी

Shambhu Choudhary
आदमी को आदमी, खा रहा आदमी।
उम्र पाकर भी मर रहा आदमी,
आँख का अंधा रहा हो,
पांव का लंगड़ा भले हो,
मस्तिष्क में भले ही
शून्य ने ले रखी जगह हो,
पर हर तरफ ही हर तरफ-
सिर्फ छा रहा है आदमी
छीन कर सुख-चैन सबका-
सो रहा खुद ही आदमी
घर-घर में बूढ़े माँ-बाप-
खोज रहे हैं आदमी
गाँव का मरता किसान -
खोज रहे हैं आदमी
संसद में तड़पता लोकतंत्र-
खोज रहे हैं आदमी
माँ की कोख में भी अब -
खोज रहे हैं आदमी
हर तरफ बस एक ही बात
आदमी को आदमी
खा रहा है आदमी।


- शम्भु चौधरी
10.2.2009

गरीब मजदूर की आत्मकथा -के.पी.चौहान

 K.P.Chauhan
मैं गरीब मरुँ सर्दी में
बरसातों में और गर्मी में
तूफानों में भूचालों में
सीलन भरी हुई चालों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
रिक्शों में हथ्ठेलों में
गाड़ियों में हल बैलों में
खंडहरों में खंडा लों में
गन्दी नाली व नालों में
पर तुम्हे सुलाऊं महलों में ,
भामता रहता हूँ मेलों में
खुशियाँ देता हूँ जेलों में
मैं फिरूँ बांटता भोजन
बसों में और रेलों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
मांजू बर्तन स्टालों में
रखवाली करूँ टकसालों में
उठाता लीद घुड़ सालों में
पर मान ना पाया कालों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
चलता रहता पग छालों में
बदती दाढी बिखरे बालों में
फटे कपड़े और दुशालों में
भूखे पेट के ख्यालों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
मैं गरीब भारत का निराला
मत पहिनाओ पुष्पों की माला
पर ना पिलाओ अपमान का प्याला
पुचकारो और काम कराओ
जाकर सो जाओ महलों में

फूंक दो जला दो
उन लाखों झोपडियों को
जिनमे आज भी
दो वक्त का खाना नहीं बनता
जिनमे रखा
कच्ची मिटटी का चूल्हा
स्वयम को दो वक्त जलाने हेतु
आंसुओं से है रोता ,
उलटा पडा तवा
अपना अपमान देखकर
बार -बार आत्महत्या जैसा
घिनोना कार्यं करने हेतु
प्रेरित है होता ,
जहाँ साग की हांडी
बरसों से पड़ी उलटी
सिल बत्तों को कोस रही है
और सिल को सौतन मान
मन ही मन सौतन डाह से
रोग ग्रसित हो रही है ,
चमचे की हालत
एक कोने में
निश्चल पड़े
बरसों से पोलियो के
मरीज जैसी हो गयी है ,
और वहीँ चौके में बैठी
झोपडी की मालकिन
अभाव ग्रस्त होकर
अपनी फूटी किस्मत को
कोस रही है
इतना सब होते हुए भी
हमारी सरकार
२१वि सदी में पहुचने पर
खुशी से पागल हो रही है
 


K.P. Chauhan
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कमज़ोरी - मन्सूर अली हशमी

Mansoor Ali Hashmi

उनका आंतक फ़ैलाने का दावा सच्चा था,
शायद मैरे घर का दरवाज़ा ही कच्चा था।


पूत ने पांव पसारे तो वह दानव बन बैठा,
वही पड़ोसी जिसको समझा अपना बच्चा था।


नाग लपैटे आये थे वो अपने जिस्मो पर,
हाथो में हमने देखा फूलो का गुच्छा था।


तौड़ दो सर उसका, इसके पहले कि वह डस ले,
इसके पहले भी हमने खाया ही गच्चा था।


जात-धर्म का रोग यहाँ फ़ैला हैज़ा बनकर,
मानवता का वास था जबतक कितना अच्छा था।

मन्सूर अली हशमी

एक दिन का ख्वाब - श्यामसखा'श्याम

आज है इकत्तीस
कल
पहली होगी
मुन्ने
ने, गुड़ियां से यह बात
सौ बार कह ली होगी
आज है
इकत्तीस
कल, पहली होगी
ददा
पगार लाएंगे
हम
दूध भात खाएंगे
बच्चे
मगन हैं
पत्नी की आंखों में
भी
शुभ लग्न है
खत्म होगा
वक्त इन्तजार का
मुंह देखेगी
फिर एक बार पगार का
माना
पगार में नहीं
ऐसा नया कुछ होगा
पर
एक बार फिर नोट गिनने का सुख होगा
वह
बैठेगी
देहली पर पंाव पासर
उतार देगी
पिछले मास
का उधार-भार
खोली का
किराया लेने मुनीम आएगा
कल तो
नालायक बनिया भी
उसे देखकर मुस्कराएगा
घर में
मचेगी बच्चों की चीख पुकार
कल तो
लगेगा दाल में बघार
वे भी
कल बोतल लाएंगे
पहले वह
बोतल से डरती थी
जब भी
पति पीते थे वह लड़ती थी
पर
धीरे धीरे वह जान गई
पति की आंखों
और बोतलों में छुपे दर्द को पहचान गई
बरसों पहले
जब वह
दुल्हन बन कर आई थी
तो
पति फैक्टरी से
घर लौटकर
कैसा-कैसा भींचते थे
समीपता के
वे पल
अब केवल
पहली को
बोतल खाली होने
के बाद आते हैं
पर
पति की भी मजबूरी है
पूरा महीना
काटने के लिए
एक दिन का ख्वाब देखना जरूरी है

मैखाना बुला कर कहती है -Azad Sikander

मैखाना बुला कर कहती है,
पैमाना में शराब के संग,
पिजा गम,
पल-दो –पल ही सही,
देती है भगा गम,

पैमाना-पैमाना कहती हैं,
छलकती शराब लगा ले होठो से,
देगी कर मदहोश,
होठो से हलक तक जाते-जाते,

पीले सराब संग,
गम के आशु मिलकर,
देगी भुला,
थोडी देर के लिए गम,

सराब न मिले तो,
पैमाने में पानी संग गम,
मिला कर पी ले,
झूमते हुए भुला देगी गम,

और कुछ न मिले तो,
पैमाने में,
गम से गम को मिल के,
पी लो तो ,
भाग देती हैं गम।


"Azad Sikander"
azadsikander@gmail.com
http://www.azadsikander.blogspot.com

कृष्ण कुमार यादव की चार कविताएँ

k.k.yadav जीवनवृत्त:

कृष्ण कुमार यादव: जन्म: 10 अगस्त 1977, तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0), शिक्षा: एम0 ए0 (राजनीति शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय विधा: कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, व्यंग्य एवं बाल कविताएं। प्रकाशन: देश की प्राय अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। एक दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन। विभिन्न वेब पत्रिकाओं- सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, काव्यांजलि, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, स्वर्गविभा, कथाव्यथा, युगमानस, वांग्मय पत्रिका, कलायन, ई-हिन्दी साहित्य इत्यादि पर रचनाओं का नियमित प्रकाशन। प्रसारण: आकाशवाणी लखनऊ से कविताओं का प्रसारण। कृतियाँ : अभिलाषा (काव्य संग्रह-2005), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह-2006), इण्डिया पोस्ट- 150 ग्लोरियस इयर्स (अंगेरजी-2006), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह-2007), क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गाथा (2007)। बाल कविताओं व कहानियों का संकलन प्रकाशन हेतु प्रेस में।
इनकी चार कविताएँ


1. गौरैया
चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।

वही गौरैया,
जो हर आँगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।

क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं-सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमाग में उमड़ने लगे।

बाहर देखा
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।

बच्चे प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं।

आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी?

2.जज्बात
वह फिर से ढालने लगा है
अपने जज्बातों को पन्नों पर
पर जज्बात पन्ने पर आने को
तैयार ही नहीं
पिछली बार उसने भेजा था
अपने जज्बातों को
एक पत्रिका के नाम
पर जवाब में मिला
सम्पादक का खेद सहित पत्र
न जाने ऐसा कब तक चलता रहा
और अब तो
शायद जज्बातोें को भी
शर्म आने लगी है
पन्नों पर उतरने में
स्पाॅनसरशिप के इस दौर में
उन्हें भी तलाश है एक स्पाॅन्सर की
जो उन्हें प्रमोट कर सके
और तब सम्पादक समझने में
कोई ऐतराज नहीं हो।

3. मैं उड़ना चाहता हूँ
मैं उड़ना चाहता हूँ
सीमाओं के बंधन से स्वतंत्र
उन्मुक्त आकाश में।

उस जटायु की तरह
जिसने सीता की रक्षा के लिए
रावण से लोहा लिया।

उस यान की तरह
जो युद्धभूमि में दुश्मनों के
छक्के छुड़ा देता है।

उस कबूतर की तरह
जो शान्ति का प्रतीक है।

उस मेघदूत की तरह
जिससे कालिदास के विरही यक्ष ने
अपनी यक्षिणी को पैगाम पहुँचाया।

उस बादल की तरह
जिसे देखते ही
किसन की बाछें खिल जाती हैं
और धरती अन्न-रस से भरपूर हो जाती है।

4. मोक्ष
सागर के किनारे वह सीप
अनजानी सी पड़ी है
ठीक वैसे ही
जैसे शापित अहिल्या
पत्थर बनकर पड़ी थी
एक नन्हीं सी बूँद
पड़ती है उस सीप पर
और वह जगमगा उठती है
मोती बनकर
ठीक वैसे ही, जैसे शापित अहिल्या
प्रभु राम के पाँव पड़ते ही
सजीव हो जगमगा उठी थी
यही मोक्ष है उसका
पर वाह रे मानव
वह हर सीप में मोती खोजता है
हर पत्थर को प्रभु मान पूजता है
पर वह नहीं जानता
मोक्ष पाना इतना आसान नहीं
नहीं मिलता मोक्ष बाहर ढूँढने से
मोक्ष तो अन्तरात्मा में है
बस जरूरत है उसे एक बूँद की
ताकि वह जगमगा उठे।

कृष्ण कुमार यादव
भारतीय डाक सेवा,
वरिष्ठ डाक अधीक्षक,
कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
kkyadav.y@rediffmail.com

भोपाल तीन काल -शम्भु चौधरी


ऐ कब्रगाह- भोपाल!

चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को |
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो
उस नापाक इरादों को
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 28 दिसम्बर1987]

वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी

वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी।
कुछ जमीन पर सोये सांसे गिन रही थी।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहाँ बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आये तो,
एक गैसयंत्र ओर यहाँ बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जायेगें।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 02 दिसम्बर1987]


भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...

भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं म मानव।


[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 5 नवम्बर 1988]
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

email; ehindisahitya@gmail.com

साहित्य शिल्पी: प्रेरणा उत्सव


Rajiv Ranjan Prasadसाहित्य शिल्पी ने अंतरजाल पर अपनी सशक्त दस्तक दी है। यह भी सत्य है कि कंप्यूटर के की-बोर्ड की पहुँच भले ही विश्वव्यापी हो, या कि देश के पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण में हो गयी हो किंतु बहुत से अनदेखे कोने हैं, जहाँ इस माध्यम का आलोक नहीं पहुँचता। यह आवश्यकता महसूस की गयी कि साहित्य शिल्पी को सभागारों, सडकों और गलियों तक भी पहुचना होगा। प्रेरणा उत्सव इस दिशा में पहला किंतु सशक्त कदम था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करने लिये साहित्य शिल्पी ने 25/01/2009 को गाजियाबाद स्थित भारती विद्या सदन स्कूल में लोक शक्ति अभियान के साथ मिल कर प्रेरणा दिवस मनाया। सुभाष चंद्र बोस एसे व्यक्तित्व थे जिनका नाम ही प्रेरणा से भर देता है। साहित्य शिल्पी के लिये भी हिन्दी और साहित्य के लिये जारी अपने आन्दोलन को एसी ही प्रेरणा की आवश्यकता है। कार्यक्रम का शुभारंभ अपने नियत समय पर, प्रात: लगभग साढ़े दस बजे प्रसिद्ध विचारक तथा साहित्यकार बी.एल.गौड के आगमन के साथ ही हुआ। मंच पर प्रसिद्ध शायर मासूम गाजियाबादी तथा सुभाष के चिंतन पर कार्य करने वाले सत्यप्रकाश आर्य भी उपस्थित थे। मंच पर साहित्य शिल्पी का प्रतिनिधित्व चंडीगढ से आये शिल्पी श्रीकांत मिश्र ‘कांत’ ने किया।
नेताजी सुभाष की तस्वीर पर पुष्पांजलि के साथ कार्यक्रम का आरंभ किया गया। तत्पश्चात लोक शक्ति अभियान के मुकेश शर्मा ने आमंत्रित अतिथियों का अभिवादन किया एवं लोक शक्ति अभियान से आमंत्रितों को परिचित कराया। नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए तथा विचारगोष्ठी का संचालन करते हुए योगेश समदर्शी ने युवा शक्ति का आह्वान किया कि वे अपनी दिशा सकारात्मक रख देश को नयी सुबह दे सकते हैं। काव्य गोष्ठी का संचालन श्री राजीव रंजन प्रसाद ने किया।


Masum Gajiyavadi
गाजियाबाद के शायर मासूम गाजियाबादी ने अपनी ओजस्वी गज़ल से काव्य गोष्ठी का आगाज़ किया। अमर शहीदों को याद करते हुए उन्होंने कहा :-
भारत की नारी तेरे सत को प्रणाम करूँ
दुखों की नदी में भी तू नाव-खेवा हो गई
माँग का सिंदूर जब सीमा पे शहीद हुआ
तब जा के कहा लो मैं आज बेवा हो गई


पाकिस्तान और सीमापार आतंकवाद पर निशाना साधते हुए मासूम गाजियाबादी आगे कहते हैं:
मियाँ इतनी भी लम्बी दुश्मनी अच्छी नहीं होती
कि कुछ दिन बाद काँटा भी करकना छोड़ देता है
Subhash Niraw
सुभाष नीरव ने अपनी कविता सुना कर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया। उन्होने कहा -
राहो ने कब कहा हमें मत रोंदों
उन्होंने तो चूमे हमारे कदम और खुसामदीद कहा
ये हमीं थे ना शुकरे कि पैरों तले रोंदते रहे
और पहुंच कर अपनी मंजिल तक
उन्हें भूलते भी रहे....


मास फॉर अवेयरनेस मूवमेंट चलाने वाले नीरज गुप्ता ने सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए राष्ट्रीय चेतना के लिये छोटे छोटे प्रयासों की वकालत की। उन्होने अपने कार्टूनो को उस देश भक्ति का हिस्सा बताया जो लोकतंत्र को बचाने व उसे दिशा देने में आवश्यक है।
उनके वक्तव्य के बाद कार्यक्रम को कुछ देर का विराम दिया गया और उपस्थित अतिथि कार्टून प्रदर्शिनी के अवलोकन में लग गये। कार्यक्रम का पुन: आरंभ किया गया और श्रीकांत मिश्र कांत सुभाष की आज आवश्यकता पर अपना वक्तव्य दिया।
Yogesh Samdarshiयोगेश समदर्शी ने इसके पश्चात बहुत तरन्नुम में अपनी दो कवियायें सुनायीं। एक ओजस्वी कविता में वे सवाल करते हैं:-
तूफानों से जिस किश्ती को लाकर सौंपा हाथ तुम्हारे
आदर्शों की, बलिदानों की बड़ी बेल थी साथ तुम्हारे
नया नया संसार बसा था, नई-नई सब अभिलाषाएं थीं
मातृभूमि और देश-प्रेम की सब के मुख पर भाषाएं थीं
फिर ये विघटन की क्रियाएं मेरे देश में क्यों घुस आईं
आपके रहते कहो महोदय, ये विकृतियाँ कहाँ से आईं


Avinash Vachspatiअविनाश वाचस्पति ने कार्यक्रम में विविधता लाते हुए व्यंग्य पाठ किया। उन्होंने व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए कहा कि “फुटपाथों पर पैदल चलने वालों की जगह विक्रेता कब्जार जमाए बैठे हैं और पैदलों को ही अपना सामान बेच रहे हैं। तो इतनी बेहतरीन मनोरम झांकियों के बीच जरूरत भी नहीं है कि परेड में 18 झांकियां भी निकाली जातीं, इन्हेंज बंद करना ही बेहतर है। राजधानी में झांकियों की कमी नहीं है। सूचना के अधिकार के तहत मात्र दस रुपये खर्च करके आप लिखित में संपूर्ण देश में झांकने की सुविधा का भरपूर लुत्फं उठा तो रहे हैं। देश को आमदनी भी हो रही है, जनता झांक भी रही है। सब कुछ आंक भी रही है। देश में झांकने के लिए छेद मौजूद हैं इसलिए झांकियों की जरूरत नहीं है।
कार्यक्रम में स्थानीय प्रतिभागिता भी रही। गाजियाबाद से उपस्थित कवयित्री सरोज त्यागी ने वर्तमान राजनीति पर कटाक्ष करते हुए कहा :-
बहन मिली, भैया मिले, मिला सकल परिवार
लाया मौसम वोट का, रिश्तों की बौछार
चुन-चुन संसद में गये, हम पर करने राज
सत्तर प्रतिशत माफ़िया, तीस कबूतरबाज
अल्लाह के संग कौन है, कौन राम के साथ
बहती गंगा में धुले, इनके उनके हाथ


काव्यपाठ में सुनीता चोटिया ‘शानू’, शोभा महेन्द्रू, राजीव तनेजा,अजय यादव, राजीव रंजन प्रसाद, मोहिन्दर कुमार, पवन कुमार ‘चंदन’ एवं बागी चाचा ने भी अपनी कवितायें सुनायी।
Sunita Chotiaसुनीता शानू ने अपनी कविता में कहा:-
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे रग
धरती के बेटों के आन बान भूप सी
धरती बना आई है नवरंगी रूप सी


Pawan Kumar Chandanपवन चंदन ने शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए प्रस्तुत किया-
चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
जी करता है कि तेरी आरती उतार लूं


Shobha Mahendroशोभा महेंद्रू ने नेताजी सुभाष पर लिखी पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं:-
२३ जनवरी का दिन एक अविष्मर्णीय दिन बन जाता है
और एक गौरवशाली व्यक्तित्त्व को हम लोगों के सामने ले आता है
एक मरण मांगता युवा आकाश से झाकता है
और पश्चिम की धुन पर नाचते युवको को राह दिखाता है


Rajiv Tanejaराजीव तनेजा ने कहा -
क्या लिखूं कैसे लिखूं लिखना मुझे आता नहीं ...
टीवी की झ्क झक मोबाईल की एसएमएस मुझे भाता नही ....


Bagi Chachaबागी चाचा ने सुनाया -
आज भी जनता शहीद हो रही है और वह डाक्टर के हाथो से शहीद हो रही थी
दीनू की किस्मत फूटनी थी सो फूट गई..


कार्यक्रम के मध्य में मोहिन्दर कुमार ने अपनी चर्चित कविता "गगन चूमने की मंशा में..." सुनायी साथ ही, साहित्य शिल्पी और उसकी गतिविधियों तथा उपलब्धियों से उपस्थित जनमानस का परिचय करवाया।
विचार गोष्ठी में सत्यप्रकाश आर्य ने सुभाष चंद्र बोस और उनके व्यक्तित्व पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने सुभाष के जीवित होने जैसी भ्रांतियों पर भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम में स्थानीय विधायक सुनील शर्मा की भी उपस्थिति थी। सुनील जी ने समाज के अलग अलग वर्ग को भी देश सेवा के लिये आगे आने की अपील की। कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष बी.एल. गौड ने अपने विचार प्रस्तुत लिये। उन्होंने कार्य करने की महत्ता पर बल दिया और विरोधाभासों से बचने की सलाह दी।
उन्होने बदलते हुए समाज में सकारात्मक बदलावों की वकालत करते हुए रूढीवादिता को गलत बताया। अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ भी प्रस्तुत की:


ऐ पावन मातृभूमि मेरी
मैं ज़िंदा माटी में तेरी
मैं जन्म-जन्म का विद्रोही
बागी, विप्लवी सुभाष बोस
अतिवादी सपनों में भटका
आज़ाद हिंद का विजय-घोष
मैं काल-निशाओं में भटका
भटका आँधी-तूफानों में
सागर-तल सभी छान डाले
भटका घाटी मैदानों में
मेरी आज़ाद हिंद सेना
भारत तेरी गौरव-गाथा
इसकी बलिदान-कथाओं से
भारत तेरा ऊँचा माथा


कार्यक्रम में साहित्यकारों विद्वानों और स्थानीय जन की बडी उपस्थ्ति थी।
साहित्य शिल्पी ने कार्यक्रम के अंत में यह संकल्प दोहराया कि साहित्य तथा हिन्दी को अभियान की तरह प्रसारित करने के लिये इस प्रकार के आयोजन जीयमित होते रहेंगे।
कार्यक्रम का समापन "जय हिन्द" के जयघोष के साथ हुआ।

सर्दियों का ना होना

सुबह उठा तो देखा धूप निकल आई है,
घड़ी देखी तो आठ ही बजा था....रात ३ बजे
सोया था सो थोडी सी देर से उठा पर आठ बजे धूप ?
यकीं नहीं हुआ कि जनवरी अभी ख़त्म नहीं हुआ....
पर सर्दी ख़त्म होने चली है।
यकीं करने को जी नहीं चाहता कि इतनी जल्दी ये रूमानी मौसम जा रहा है
पर परेशान करता स्वेटर कह रहा है कि
यकीं कर लो क्यूंकि मैं पसीने से भीग रहा हूँ।
दरअसल शुरुआत तो हुई सर्दी के
जल्दी दिवंगत हो जाने के ख़याल से
पर याद आ गए वो दिन......


सर्दी की दोपहरों में

छतों पर धूप सेंकती रजाईयां

गुम हैं सर्दी की शाम बिना अलाव बिन चाय गुमसुम है
छतों पर, चौखटों
पर बिनती स्वेटर, उडाती अफवाहें
वो औरतें कहाँ गई
सांझ के धुंधल के में
पार्क में बच्चों की तसवीरें धुंधला गई
सुबह उठने के बाद सड़कों पर कोहरा नहीं
इंसानों का सैलाब हैमन नहीं लगता
इस शहर में
मौसम ख़राब है
स्कूल जाते बच्चे
स्कार्फ, लंबे मोजे और दस्ताने
गए हैं भूल
नए घरों के
आधुनिक लाडले
कैब से जाते हैं स्कूल
अंगीठी अब खो गई है
या बदल गई है
एयर कंडीशनर में
सर्दी का मौसम
रह गया है केवल टीवी की ख़बर में याद आती है
बहुत अपने शहर की उस मौसम सर्द की सजा है
हमारे लिए ये सब कुदरत बेदर्द की

मयंक सक्सेना द्वारा: जी न्यूज़, FC-19, फ़िल्म सिटी,
सेक्टर 16 A, नॉएडा, उत्तर प्रदेश - 201301

ई मेल : mailmayanksaxena@gmail.com


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समझौते की बात न हो तो अच्छा है


राष्ट्रीय महानगर कोलकाता महानगर सांध्य दैनिक की तरफ से गत २३ जनवरी को कोलकाता के माहेश्वरी भवन सभागार में "अपनी धरती अपना वतन" कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसकी शुरूआत श्री प्रकाश चण्डालिया के पुत्र चिं. चमन चण्डालिया ने माँ सरस्वती वन्दना से की।
कोलकाता. सांध्य दैनिक राष्ट्रीय महानगर की और से आयोजित कवि सम्मलेन एवं अपनी धरती-अपना वतन कार्यक्रम कई मायनों में यादगार बन गया। कोलकाता में हाल के वर्षों में यह ऐसा पहला सार्वजनिक कवि सम्मलेन था जिसमे भाग लेने वाले सभी कवि इसी महानगर के थे। महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने अपने संबोधन में कहा भी, कि यहाँ जब भी कोई सांस्कृतिक आयोजन होता है तो लोग कलाकार का नाम जानने को उत्सुक रहते हैं, लेकिन जब कभी भी कोलकाता में कोई कवि सम्मलेन होता है तो उसका शहर जानने को उत्सुक रहते हैं। इस सोच कि पृष्ठभूमि में शायद यह बात छिपी है कि कोलकाता में शायद अच्छे कवि हैं ही नही। पर राष्ट्रीय महानगर ने इस सोच से मुकाबिल होते हुए इस कवि सम्मलेन में केवल कोलकाता में प्रवास करने वाले कवियों को ही चुना, उन्होंने कहा कि खुशी इस बात कि है कि कोलकाता के कवियों को सुनने पाँच सौ से भी अधिक लोग उपस्थित हुए। वरिष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', श्री नन्दलाल 'रोशन', श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग', श्रीमती गुलाब बैद और उदीयमान कवि सुनील निगानिया ने अपनी प्रतिनिधि रचनाएँ सुना कर भरपूर तालियाँ बटोरीं, साथ ही, डाक्टर मुश्ताक अंजुम, श्री गजेन्द्र नाहटा, श्री आलोक चौधरी को भी मंच से रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया गया। सभी कवियों ने अपनी उम्दा रचनाएँ सुनायीं। देशभक्ति, आतंकवाद और राजनेताओं की करतूतों पर लिखी इन कवियों कि रचनाएँ सुनकर श्रोता भाव विभोर हो गए और बार बार करतल ध्वनि करते रहे। कवि सम्मलेन लगभग दो घंटे चला। कवि सुमनजी और रोशनजी ने जबरदस्त वाहवाही लूटी। मुश्ताक अंजुम कि ग़ज़ल भी काफ़ी सराही गई। गजेन्द्र नाहटा ने कम शब्दों में जानदार रचनाएँ सुनाई। गुलाब बैद कि रचना भी काफ़ी सशक्त रही। कार्यक्रम के दूसरे दौर में देश विख्यात कव्वाल जनाब सलीम नेहली ने भगवन राम कि वंदना के साथ साथ ये अपना वतन..अपना वतन.. अपना वतन है, हिंदुस्तान हमारा है जैसी उमड़ा देशभक्ति रचनाएँ सुनकर श्रोताओं को बांधे रखा। संध्या साढ़े चार बजे शुरू हुआ कार्यक्रम रात दस बजे तक चलता रहा और सुधि श्रोता भाव में डूबे रहे। कार्यक्रम का सञ्चालन राष्ट्रीय महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने किया, जबकि कवि सम्मलेन का सञ्चालन सुशिल ओझा ने किया। प्रारम्भ में सुश्री पूजा जोशी ने गणेश वंदना की और नन्हे बालक चमन चंडालिया ने माँ सरस्वती का श्लोक सुनाया। कार्यक्रम में अतिथि के रूप में वृद्धाश्रम अपना आशियाना का निर्माण कराने वाले वयोवृद्ध श्री चिरंजीलाल अग्रवाल, वनवासियों के कल्याण के बहुयामी प्रकल्प चलाने वाले श्री सजन कुमार बंसल, गौशालाएं चलाने वाले श्री बनवारीलाल सोती और प्रधान वक्ता सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन के पैरोकार श्री कमल गाँधी के साथ साथ कोलकाता की पूर्व उप मेयर श्रीमती मीना पुरोहित, पार्षद सुनीता झंवर उपस्थित थीं। कार्यक्रम के प्राण पुरूष राष्ट्रीय महानगर के अनन्य हितैषी श्री विमल बेंगानी थे। उन्होंने अपने स्वागत संबोधन में कहा कि यह आयोजन देशप्रेम कि भावना का जन-जन में संचार सेवा के उदेश्य से किया गया है। कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रीय महानगर के पाठकों की और से राष्ट्रीय महानगर के संस्थापक श्री लक्ष्मीपत सिंह चंडालिया और श्रीमती भीकी देवी चंडालिया का भावभीना सम्मान किया गया। शहरवासियों के लिए इस कार्यक्रम को यादगार बनाने में सर्वश्री विद्यासागर मंत्री, विजय ओझा, राकेश चंडालिया, गोपाल चक्रबर्ती, विजय सिंह दुगर, गौतम दुगर, पंकज दुधोरिया, हरीश शर्मा, राजीव शर्मा, प्रदीप सिंघी, सरीखे हितैषियों का सक्रिय सहयोग रहा। बदाबजर के महेश्वरी भवन में आयोजित इस विशिष्ट समारोह में सभी क्षेत्र के लोग उपस्थित थे। इस अवसर पर राष्ट्रीय महानगर की सहयोगी संस्था अपना मंच कि काव्य गोष्ठियों के चयनित श्रेष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल सुमन, श्री नन्दलाल रोशन और सुश्री नेहा शर्मा का भावभीना सम्मान किया गया। सभी विशिष्ट जनों को माँ सरस्वती की नयनाभिराम प्रतिमा देकर सम्मानित किया गया। समारोह में उपस्थित विशिष्ट जनों में सर्वश्री जुगल किशोर जैथलिया, नेमीचंद दुगर, जतनलाल रामपुरिया, शार्दुल सिंह जैन, बनवारीलाल गनेरीवाल, रमेश सरावगी, सुभाष मुरारका, सरदार निर्मल सिंह, बंगला नाट्य जगत के श्री अ.पी. बंदोपाध्याय,राजस्थान ब्रह्मण संघ के अध्यक्ष राजेंद्र खंडेलवाल, हावडा शिक्षा सदन की प्रिंसिपल दुर्गा व्यास, भारतीय विद्या भवन की वरिष्ठ शिक्षिका डाक्टर रेखा वैश्य सेवासंसार के संपादक संजय हरलालका, आलोक नेवटिया, अरुण सोनी, अरुण मल्लावत, रामदेव काकडा, सुरेश बेंगानी, कन्हैयालाल बोथरा, नवरतन मॉल बैद, रावतपुरा सरकार भक्त मंडल के प्रतिनिधि सदस्य, रावतमल पिथिसरिया, शम्भू चौधरी, प्रमोद शाह, गोपाल कलवानी, प्रदीप धनुक, प्रदीप सिंघी, महेंद्र दुधोरिया, प्रकाश सुराना, नीता दुगड़, वीणा दुगड़, हीरालाल सुराना, पारस बेंगानी, बाबला बेंगानी, अर्चना रंग, डाक्टर उषा असोपा, सत्यनारायण असोपा, गोपी किसान केडिया, सुधा केडिया, शर्मीला शर्मा, बंसीधर शर्मा, जयकुमार रुशवा, रमेश शर्मा, सुनील सिंह, महेश शर्मा, गोर्धन निगानिया, आत्माराम तोडी, घनश्याम गोयल, बुलाकीदास मिमानी, अनिल खरवार, डी पांडे, राजेश सिन्हा उपस्थित थे ।


"अपनी धरती अपना वतन"
मंच पर आसीन कवि थे सर्वश्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', नन्दलाल 'रोशन', जे. चतुर्वेदी 'चिराग, श्रीमती गुलाब बैद, और सुनील निंगानिया। देशप्रेम की भावना से परिपूर्ण श्री नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में कोलकाता स्थित स्थानीय माहेश्वरी भवन सभागार में किया था। कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रधान वक्ता बतौर श्री कमल गाँधी ने देश के वीर सेनानियों को नमन करते हुए मुम्बई घटना में हुए शहीदों को अपनी भावपुर्ण श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि इन शहिदों के नाम को जितनी श्रद्धा के साथ लिया जाय उतना ही कम है, देश के वर्तमान नेताओं के नाम को लिये बिना आपने कहा कि जिस मंच पर सुभाष-गांधी को याद किया जाना है, वीर शहिदों को याद किया जाना है ऐसे मंच पर खड़े होकर उनका नाम लेकर इस मंच की मर्यादा को कम नहीं करना चाहता। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच श्री कमल गाँधी ने कहा कि हम अभी इतने भी कायर नहीं हुए कि अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते देशहित को तिलांजलि दे देगें, हमारे लिये देशहित सर्वप्रथम है। इस समारोह की अध्यक्षता शहर के जाने-माने समाज सेवी श्री चिरंजीलाल अग्रवाल ने किया। कार्यक्रम का उद्घाटन श्री एस.के पारिक ने किया। बतौर प्रदान अतिथि थे श्री सजन कुमार बंसल और बनवारी लाल सोती। कार्यक्रम के स्वागताध्यक्ष श्री बिमल बैंगानी ने सभी का स्वागत किया और धन्यवाद दिया महानगर के जाने -माने पत्रकार और 'राष्ट्रीय माहानगर' के संपादक श्री प्रकाश चण्डालिया ने कवि मंच " अपनी धरती-अपना वतन" कार्यक्रम के संचालन की शुरूआत श्री सुशील ओझा ने श्री छविनाथ मिश्र की कविता से की:


मेरे दोस्त मेरे हमदम तुम्हारी कसम
कविता जब किसी के पक्ष कें या
किसी के खिलाफ़ जब पूरी होकर खड़ी होती है;
तो वह ईश्वर से भी बड़ी होती है।
-छविनाथ मिश्र


अपनी धरती अपना वतन कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए श्रीमती गुलाब बैद ने माँ सरस्वती पर अपनी पहली रचना प्रस्तुत की।
माँ सरस्वती.. माँ शारदे, हम सबको तेरा प्यार मिले...2
चरणों में अविनय नमन करें,
तेरा बाम्बार दुलार मिले। हे वीणा वादणी, हंस वाहिणी.. तू ममता की मूरत है।
श्री सुनील निंगानिया ने आतंकवाद पर अपनी कविता के पाठ कर बहुत सारी तालियां बटोरी..
शहर-शहर.... गाँव-गाँव मौसम मातम कुर्सी का
आम अवाम लाचार हो गई, देख रही छलनी होते ..
भारत माँ की जननी को .. शहर-शहर....
दिल्ली का दरबार खेल रहा है, खेल ये कैसा कुर्सी का...
यह कैसी आजादी होती, हम आजादी पर रोते हैं
सरहद से ज्यादा खतरा घर की चारदिवारी का... शहर-शहर....
आगे इन्होंने कहा..
उग्रवाद का समाधान नहीं .. राजनीति की दुकानों पे
हासिल करना होगा इसे हमें, अपने ही बलिदानों से..शहर-शहर....
श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग'
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
जीवन नाम नहीं जीने का, जिस सम अधिकार नहीं हो,
जीवन की परिभाषा तो, अधिकार छीनकर जीना होता...
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
श्रीमती गुलाब बैद ने अपनी ओजस्वी गीत से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।
1.कभी मार सकी मौत तुम्हें, हे अमर वीर बलिदानी...
भारत माँ के सच्चे सपुत हो, सच्चे हिन्दुस्तानी...
जब-जब भारतमाता को, दुश्मन ने आँख उठाकर
सीमा पर ललकारा
तब-तब भारत माँ ने तुम्हें पुकारा....
2.सैनिक जीवन है सर्वोत्तम, सर्वोत्तम सैन्य कहानी
कब मार सकी है मौत तुम्हें
हे अमर वीर बलिदानी...
3. चन्दन है भारत की माटी
महक रहा इसका कण-कण
जिसकी गौरव गाथा गाते
हरषे धरती और गगन.....
श्री नन्दलाल 'रोशन' ने ग़ज़ल और कविताओं के सामंजस्य को इस बखूबी बनाया कि सभी दर्शकगण बार-बार तालियां बजाते चले गये..
-कौन मेरे इस वतन में बीज नफ़रत के बो रहा....
-उनकी जुवां पर पत्थर पिघलने की बात है,
यह तो महज दिल को बहलाने की बात है।
-जो भी आया सामने.. सारे के सारे खा गये
हक़ हमार खा गये.. हक़ तुम्हारा खा गये..
और खाते-खाते पशुओं का चारा भी वो खा गये।
-पल में तौला.. पल में मासा, राजनीति का खेल रे बाबा..
धक-धक करती चलती दिल्ली अपनी.. रेल रे बाबा..
बहुत पुराना खेल रे बाबा...
सां-संपेरे का खेल हो गया.... पकड़ लिया तो बात बन गई,
चुक गया तो मारा गया रे बाबा.....
ताल ठोक संसद जाते, जनता के प्रतिनिधी कहलाते।
सारा ऎश करे य बहीया...
जनता बेचे तेल रे भईया...
पहले मिल बाँटकर खाते.. फिर आपस में लड़ जाते;
स्वाँगों की भी जात !.. फेल हो गई रे बाबा...
डॉ.मुस्ताक अंजूम ने अपनी ग़ज़लों से सभी को मोह लिया।
हजारों ग़म हैं, फिर भी ग़म नहीं है
और हमारा हौसला कुछ कम नहीं है।
और उसकी बात पर कायम है सबलोग
जो खुद अपनी बात पर कायम नहीं है।।
श्री गजेन्द्र नाहटा और श्री आलोक चौधरी जी ने भी अपनी कविताओं का पाठ इस मंच से किया।
गजेन्द्र जी नाहाटा-
दर्द को खुराक समझ के पीता हूँ
और टूटते हृदय को आशाओं के टांके से सीता हूँ।
आलोक चौधरी
जब सुभाष ने शोणित माँगा था.. सबसे करी दुहाई थी,
जाग उठा था देश चेतना.. पाषाणों में, जान आई थी।
कवि मंच "अपनी धरती-अपना वतन" के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन' ने अपनी कविताओं का पाठ शुरू करने से पूर्व कहा कि सभागार में शहर के सो से भी अधिक कवियों की इस उपस्थिति ने यह बता दिया कि कि इस महानगर में भी कवि रहते हैं श्री प्रकाश चण्डालिया का आभार व्यकत करते हुए अपनी दो पंक्तियां कही..
जो दिलों को जोड़ता है, उन ख्यालों को सलाम
अव्वल तुफानों में उन मशालों को सलाम
जो खुद जलकर उजाला बांटता हो उन मशालों को सलाम।
आपने कहा कि वे अपने लोगों से गुजारिश करूँगा कि वे अपने शहर के चिरागों को सामने लायें। आपने "मातृभूमि की बलिवेदी को प्रणाम" कविता का पाठ भी किया.. आपने वर्तमान राजनीति के रंग को अपनी इस कविता के माध्यम से चित्रण किया..
जिन शलाखों के पीछे वह बरसों रहे ... वे अब शलाखों के पहरेदार हैं।
कल तलक जो लुटेरे थे, आज उनकी सरकार है।।
होना हो तो एक बार हो, ये बार-बार होना कैसा है।
और धार चले तो एक बार चले.. धार-धार चलना कैसा है।।
आपने आगे कहा...
तासकंद की रात न हो तो अच्छा है,
शिमला जैसा प्रातः न हो तो अच्छा है,
करगील जैसा घात न हो तो अच्छा है
समझौते की बात न हो तो अच्छा है।

मुझे अब रौशनी दिखने लगी -अमित चित्रांशी

परिचय:


श्री अमित चित्रांशी

श्री अमित चित्रांशी जिन्हें रंजन गोरखपुरी के नाम से भी जाना जाता है। आप पेशे से सिविल इंजिनियर हैं। 17 जन्वरी 1983 को जन्मे इस शायर को इनके ख्यालों की रवानगी, जोशीले और संवेदनशील लेखन से इस भीड़ में बिल्कुल अलग पहचाना जा सकता है। कद-ए-'फ़िराक' से रौशन है शहर-ए-गोरखपुर, खुदा करीम है 'रंजन' से भी गुमां होगा... अगर ये कहें कि जगजीत सिंह साहब और चित्रा जी की गज़ल गायकी ने ज़हन के शायर को जन्म दिया तो को‌ई अतिशयोक्ती नही होगी! लिखना जैसे आदत सी बन ग‌ई है! एक दफ़े इन्होनें लिखा था:

बेज़ौक और बेखयाल जी रहे थे हम, मासूमियत की दीद ने शायर बना दिया...

लखन‌ऊ में अदब के जानकारों से उर्दू अदब, उस्लूब और अरूज़ की बेहद मुफ़ीद जानकारियां हासिल की और ये सफ़र आज मुसलसल गज़लें और नज़्मों तक पहुंच गया है! सफ़र बादस्तूर जारी है और बीते सफ़र की यादों का गुलदस्ता है 'दयार-ए-रंजन'...


Amit Ranjan Chitranshi
5/160 Vinay Khand Gomti Nagar
Lucknow-226010

http://ranjangorakhpuri.blogspot.com/

1. मुझे अब रौशनी दिखने लगी...

मुझे अब रौशनी दिखने लगी है,
धुएं के बीच आखिर लौ जली है

यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है

सम्भल जाओ ज़रा अब हुक्मरानों,
यहां आवाम की ताकत बडी है

हिला पाओगे क्या जज़्बे को इसके,
ये मेरी जान मेरी मुम्बई है

घिरा फिर मुल्क जंगी बादलों से,
कि "रंजन" घर में कुछ राशन नही है

2. कुछ शेर माँ के नाम...


१)
मेरे अंजाम के रस्ते भी मुझको राह देते हैं,
मेरा आगाज़ होता है मेरी मां की दुआ लेकर

२)
मै मां के इस हुनर पे आज भी हैरान होता हूं,
मेरे आंसू टपकते हैं उसी की आंख से होक़र

३)
मैं जब भी ज़िन्दगी की दौड में कुछ टूट जाता हूं,
ये आंखें भीग जाती हैं, मुझे मां याद आती है

४)
मुझे न इश्क न उल्फ़त की चाह है या रब,
मैं खुश वहीं हूं जहां मां सा प्यार मिलता है

५)
कोई तन्हा सा कतरा मुश्किलों से रोक रखा था,
फ़कत मां के तसव्वुर ने मगर बरसात कर डाली

६ )
मेरी शैतानियो के बाद मां अक्सर ही गुस्से में,
मुझे तो मारती थप्पड मगर रोती रही दिनभर

पर एक बार कलम ने ये भी लिखा दिया

7)
शहर के तौर हैं मुमकिन है खलल पड़ती हो,
वो माँ को गाँव में लाचार छोड़ आया है...

3. पौधे से जुदा होकर...



वो यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,
सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर

मेरी तकलीफ़ का एहसास उसको है तभी शायद,
उडा जाता है अश्कों को फ़िज़ाओं में सबा होकर

फ़कत पल भर ही देखा और नज़रें फेर लीं गोया,
बची हों कुछ अदाएं बेवफ़ाई में वफ़ा होकर

यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,
कि पी रखी है काले बादलों ने गमज़दा होकर

बताया था मुझे ये राज़ कल शब एक वाइज़ ने,
'अगर मैखाने में जाओ तो आना पारसा होकर'

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर

चुभन होती है अब दोनो तरफ़ कांटों के तारों से,
कि मुद्दत हो गई है सरहदों को यूं खफ़ा होकर

बचा लेना मुझे उन पत्थरों की चोट से "रंजन".
मैं जीना चाहता हूं सिर्फ़ तेरा आईना होकर

सन्त शर्मा की तीन कविताएँ

परिचय:

सन्त शर्मा आप मूल रूप से बिहार के नालंदा प्रान्त का निवासी हैं|आपकी शिक्षा-दीक्षा कोलकाता (वेस्ट बंगाल) में संपन्न हुई और अभी कोलकाता स्थित एक निजी कंपनी में Cost Account के तौर पर कार्यरत हैं | आप मातृभाषा हिंदी में कवितायें लिखना मेरे निजी सुकून का हिस्सा मानते हैं। अपने वैचारिक मित्रों से बाटना इनको सुखद अनुभूति देता है। इनकी तीन कविताएँ -


1. स्वाभिमान
हीन भाव से ग्रसित जीव, उत्थान नहीं कर पाता है
हर लक्ष्य असंभव दिखता है, जब स्वाभिमान मर जाता है

स्वाभिमान है तेज पुंज, यदि कठिनाई है अन्धकार
यह औषधि है हर रोगों की, गहरा जितना भी हो विकार

यह शक्ति है जो है पकड़ती, छुटते धीरज के तार
यह दृष्टि है जो है दिखाती, नित नए मंजिल के द्वार

यह आन है, यह शान है, यह ज्ञान है, भगवान है
कुछ कर गुजरने की ज्योत है, हर चोटी का सोपान है

हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है

यह है तो इस ब्रह्माण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है

2.विश्वास न खोने देना
हो थकान भरी जीवन की डगर, तुम आश न सोने देना
बरसेंगे ख़ुशी के मेघ, ये तुम विश्वास न खोने देना

जितना पतझड़ है सत्य, वसंत भी उतनी ही सच्चाई है,
दो दिवस के मध्य में ही हरदम, एक रात घनी आयी है
कब दिल की अगन, रोके है पवन, तुम चाह ना बुझने देना,
है ताकत तो झुकता है गगन, तुम बाह ना झुकने देना

सतयुग हो या हो कलयुग, है सत्य दिखा परेशां,
सहमा, टुटा राहों में, थी सफर ना उसकी आसां
पर जीता है वो हरदम, तुम हार ना होने देना,
मंजिल है तुम्हारी निश्चित, बस राह ना खोने देना

मन हार न माने जब तक, है आश विजय की तब तक,
जब प्रेम प्रबल हो जाता, तब रोके कौन विधाता
सौ आश जो टूटे दिल के, फिर स्वप्न संजोने देना,
हां ख्वाब है होते पूरे, ये विश्वास न खोने देना

3.समय बलवान होता है ..

तनिक सामर्थ्य पा, अक्सर बली अभिमान होता है,
मनुज, ठोकर लगे ना, दर्द से अनजान होता है
समय-निधि रेत पर, कितने घरौंधे रोज बन मिटते,
न जीता जा सका बन्धु, समय बलवान होता है

युगों पहले धरा पर वक़्त एक, दसशीश था आया,
गगन भी था प्रकंपित, अजेय जो सामर्थ्य था पाया
दशा विपरीत जब आई, न क्षण भर भी वो टिक पाया,
बुरे कर्मो का तो भरना, बुरा परिणाम होता है,
न जीता जा सका ........

वक़्त ने ली नयी करवट, अहम् का बीज फिर फूटा,
सुत प्रेमवद्ध एक भूप ने, निज भ्रात हित लूटा
शत-पुत्र, सारे मर मिटे, नहीं विष बेल फल पाया,
अतिक्रमण अधिकार का हो जब, यही अंजाम होता है,
न जीता जा सका ............

काल पश्चिम का फिर आया, व्योम सा जग पे जो छाया,
न क्षण-भर को मिली राहत, दिवाकर भी था घबराया
अहम् के श्रृंग से टूटा यू, धरा पर निज सिमट आया,
यहाँ तो हर उदय का, निश्चित कभी अवसान होता है,
न जीता जा सका ............

कितना है दम चराग़ में: श्रद्धा जैन

परिचय:


श्रीमती श्रद्धा जैन

शिक्षा - विज्ञान में MSc और कंप्यूटर Advance accounting में डिप्लोमा। विदिशा में पली बढ़ी मगर पिछले नौ सालों से सिंगापुर निवासी हूँ। फिलहाल आप एक अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं। 'विदिशा' भारत के मध्यप्रदेश में भोपाल शहर के पास एक बहुत छोटा सा शहर है। आपने केमिस्ट्री में अपनी शिक्षा पूरी की और वक़्त की हवा ने आपको सिंगापुर पहुँचा दिया यहाँ आकर देश की सभ्यता की खूबियों को जाना, जाना रिश्ते क्या हैं, अपनो का साथ कैसा होता है, और अपने देश की मिट्टी में कितना सकुन है कुछ एहसास कलम से काग़ज़ पर उतर आए और श्रद्धा आप सबके बीच आ गयी !
http://bheegigazal.blogspot.com



कितना है दम चराग़ में, तब ही पता चले
फानूस* की न आस हो , उस पर हवा चले

लेता हैं इम्तिहान अगर, सब्र दे मुझे
कब तक किसी के साथ, कोई रहनुमा चले

नफ़रत की आँधियाँ कभी, बदले की आग है
अब कौन लेके झंडा –ए- अमनो-वफ़ा चले

चलना अगर गुनाह है, अपने उसूल पर
सारी उमर सज़ाओं का ही सिल सिला चले

खंजर लिये खड़ें हों अगर मीत हाथ में
"श्रद्धा" बताओ तुम वहाँ फ़िर क्या दुआ चले
*फानूस = काँच का कवर


2.

वक़्त करता कुछ दगा या चाल तुम चलते कभी
था जुदा होना ही हमको हाथ को मलते कभी

आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी

थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी

कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी

आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी

तनहा

कवि: मयंक सक्सेना
जन्म: लखनऊ में १९८४ में, पत्रकारिता से जीवन यापन, वर्तमान में ज़ी न्यूज़ में कार्यरत। प्रसारण पत्रकारिता से परास्नातक एवं कई पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर कई लेख कवितायेँ प्रकाशित।

बिन तेरे हर बात तनहा
मैं भी तन्हा, रात तन्हा

ज़िंदगी के खेल में अब
कैसी शह और मात तन्हा

बाग़ कैसा बाग़बां बिन
गुल भी तन्हा, पात तन्हा

वक़्त वो भूला नहीं है
मैं था तेरे साथ तन्हा

क्या कहें हम हो गए हैं
छोड़ तेरा हाथ तन्हा

ज़िंदगी की मुश्किलों में
तुम थे एक सौगात तन्हा

बिन तेरे हम खोजते हैं
अपनी तो औकात तन्हा

यूं तो दुनिया में मिलेंगे
तुमको कई हज़रात तन्हा

पर किसी में दिख जो जाए
हम सी इक भी बात तन्हा

रास्ता कट जाए जल्दी
खत्म हों हालात तन्हा

यूं तो अब तक हो चले हैं
अपने सब जज़्बात तन्हा

सोचता हूं फिर भी एक दिन
तुमसे हो मुलाक़ात तन्हा


मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@gmail.com
Zee News Limited,
FC-19, Sector 16 A, Noida, Uttar Pradesh.

नए साल की शुभकामनाएँ - देवमणि पांडेय


आंखों में अपनी हैं आशा की किरणें
चाहत के सुर धड़कनों में सजाएं
इक दिन मिलेगी वो सपनों की दुनिया
जादू उमंगों का दिल में जगाएं...


बादल में बिजली है, सूरज में आभा
हिम्मत हवाओं में सागर में लहरें
मुश्किल नहीं कुछ अगर ज़िद है मन में
चलतें रहें बस कहीं भी ना ठहरें


नज़रों में झिलमिल सितारे सजाकर
नई रोशनी से गगन जगमगाएं...


हम कौन हैं ! क्या है हसरत हमारी
लाज़िम है खु़द को भी पहचान लें हम
अगर हौसला है रगों में हमारी
तो मंज़िल पे पहु्चेंगे, ये जान लें हम


कड़ी धूप हो, पर न पीछे हटेंगें
ये एहसास हम रास्तों को दिलाएं...


कलियों की मुस्कान, फूलों की रंगत
निगाहों में हों खू़बसूरत नज़ारे
चलो अपनी बाहों में आकाश भर लें
करें बंद मुट्ठी में ये चांद-तारे


चेहरे पे सबके हो खुशियों की रौनक
जहां में मोहब्बत की खु़शबू लुटाएं...


नए साल की हैं ये शुभकामनाएँ


देवमणि पांडेय
ए – 2, हैदराबाद इस्टेट, नेपियन सी रोड, मुम्बई – 400036
M : 98210-82126 / R : 022 - 2363-2727
Email : devmanipandey@gmail.com

आखिरी ख़त - रचना श्रीवास्तव


कवियित्री का नाम: रचना श्रीवास्तव
जन्म: लखनऊ (यू पी), लिखने की प्रेरणा बाबा स्वर्गीय रामचरित्र पाण्डेय जी और माता श्रीमती विद्या वती पाण्डेय और पिता रमाकांत पाण्डेय।
रूचि: लेखन, अभिनय ,संगीत सुनना, कवि गोष्ठियों में भाग लेना, डैलस में, भारत में, मंच संचालन, अभिनय में अनेक पुरस्कार और स्वणॅ पदक भी आपको मिले हैं। वाद विवाद प्रतियोगिता में पुरस्कार, लोक संगीत और न्रृत्य में पुरस्कार, रेडियो फन एशिया, रेडियो सलाम नमस्ते (डैलस ), रेडियो मनोरंजन (फ्लोरिडा ), रेडियो संगीत (हियूस्टन), में कविता पाठ। कृत्या, साहित्य कुञ्ज, अभिव्यक्ति, सृजन गाथा, लेखिनी, रचनाकर, हिंद युग्म, हिन्दी नेस्ट, गवाक्ष, हिन्दी पुष्प, स्वर्ग विभा, हिन्दी मिडिया आदि में लेख, कहानियाँ, कवितायें, बच्चों की कहानियाँ और कविताये प्रकाशित।


1. आखिरी ख़त


मेरी बच्ची
जानती हूँ अब न जी पाऊँगी
तेरे साथ और न रह पाऊँगी
माफ़ करना ,मेरी बच्ची मुझे
के जन्म तो दिया तुझे ,
पर पाल न पाऊँगी
इस कठोर जहाँ मे तुझे
मै अकेला ही छोड़ जाऊँगी
रात दिन देखा था सपना तेरा
सोचा था साथ रहेगा सदा तेरा मेरा
पर .....
आज आई जो गोद मे मेरे
तो जी भर के तुझको खिला भी न पाऊँगी
सोचा था ,
जब तू पहला कदम उठाएगी
थाम उंगुली तेरी तुझ को चलना सिखाउँगी
कहेगी जब पहली बार माँ मुझे
दौड़ के तुझको गले आपने लगाऊँगी
तेरी तोतली बोली का इंतजार था कितना
पर अब जब तू बोलेगी ,
मै तुझ को सुन न पाऊँगी
दिल मे था के ,
हर रात तुझ को लोरी सुनाऊंगी
सपनो की प्यारी सी दुनिया मे
तुझे अपने साथ लेके जाऊँगी
करोगी जब जिदद कभी मुझसे
बड़े प्यार से तुझको बह्लाउँगी
तेरी मासूम हसी मे
गम आपने भूल जाऊँगी
फैला के नन्ही बाहें जब तू गले लग जायेगी
सारी दुनिया की खुशियाँ
मेरे क़दमों तले आजायेंगी
सजाये थे
तुझ को लेके कितने सपने मेने
अब उन्हें कभी भी पूरा न कर पाऊँगी
बस अभी थोड़े ही दिनों मे
इस जहाँ से मै चली जाऊँगी
काश!!!!!!!!!!!!!!!
काश कोई
सारी दौलत के बदले
मुझे जीने की थोडी मौहलत दे दे
तो कर के बड़ा तुझ को
हँसते हँसते इस दुनिया से चली जाऊँगी
पर ये हो न सकेगा जानती हूँ मै
फ़िर भी इन झूठे खयालो से
दिल को आपने बहलाती हूँ मै
बंद होती आंखों मै है बस मासूम चेहरा तेरा
सोचती हूँ के कौन पालेगा तुझे
कौन रखेगा ख्याल तेरा
मेरी बच्ची
तुझे अब बिन माँ ही बड़े होना है
ख़ुद ही आपना सहारा बनना है
मेरी अरुशी
मेरी प्यारी
जब आए मेरी याद तुझे
तस्वीर मेरी हाथों मै उठा लेना
गले उसको लगा लेना
मेरे आंचल मे ख़ुद लो लपेट लेना
बंद कर आँख मुझको तुम महसूस करना
मै हूँगी पास तेरे
इस बात पे भरोसा करना
दे न सकी माँ का प्यार तुझको
ममता की छाँव भी न दे सकी
इस खाता के लिए मुझको मेरी बच्ची
हो सके तो मुझको माफ़ करना
सांसे दूट रहीं है
बचने की आस भी छूट रही है
तू धुंधली सी दिख रही है
पर कितनी प्यारी लग्रही है
लगता है अब और न जी पाऊँगी
तेरी दुनिया मै अब न रह पाऊँगी
मेरी बच्ची
प्यार
- तेरी माँ


कहानी तो रोज
काकी सुनाती थी
माँ रात मे
न जाने कहाँ जाती थी
सुबह
कोई भूखा नही रहता था
आज भी
रात होने से डरती हूँ
काश !
इस डर के अंधेरों की सुबह हो


उसकी माँ ने
बसता और टिफिन पकडाया
मेरी माँ ने
झाडू कटका
उसे स्कूल बस मे चढाया
माँ ने मुझे
मालकिन का घर दिखलाया
जानती है वो
न गई तो पैसे कटेंगे
और हम भूखे रहेंगे
काश !
मै उजाले की
कोई किरण पकड पाती
तो मै भी
स्कूल बस मे चढ़ पाती


गिरा पुल
हजारों लोग मरे
रिश्वत ले नेता
पत्रकारों को बता रहा था
आतंक वादियों की
साजिश का अंदेशा जाता रहा था
दीवार पे लिखे
तम सो मा ज्योतिर्गमय के शब्द
इधर उधर हो रहे थे
फ़िर देखा तो लिखा था
ज्योति सो मा तमोग्म्य


बेटी होने की खुशी
अब सिर्फ़
वैश्याये मनाएँगी
समाज के ठेकेदारों के घर
बेटियाँ कोख मे
दफ़न कर दिजायेंगी
काश !
गर्भ का अन्धकार छोड़
वो दुनिया का उजाला देख पाती


2. एक बेरोजगार नौजवान


मैं आज का नौजवान
बेरोजगारी से
हूँ परेशान
व्यंग बाँण से बिधा
कटाक्ष से धायल
मैं उम्मीद मे इसकी
नजाने कितने जन्म
लेता रहा मरता रहा
लगा करलूं कुछ वयापार
संग आपने दूँ
औरों को भी रोजगार
विचार आया
खोल लूँ
एक दुकान
जहाँ पे ग्राहक
सच मे
समझा जाएगा भगवान
समान होगा शुध
देने होंगे वाजिव दाम
ईमानदारी से होगा
जहाँ सब काम
इन्ही सपनों के साथ
ले बैंक से क़र्ज़
बनाईं हम ने आपनी दुकान
लोग आए
खूब बिका आपना समान
लगा के
जल्दी ही चुका दूँगा क़र्ज़
पूरा कर पाउँगा
सारा फ़र्ज़
दूसरे दिन देखा
लगी थी दुकान पे भीड़ भरी
असली था समान
इसीलिए आई है जनता सारी
पंहुचा वहां
तो रह गया हैरान
लौटा रहे थे
लोग आपना समान
देशी घी खा के तेरा
बीमार है पूरा घर मेरा
तेल मे है
अलग सी गंध
मसलों मे है
कुछ ज्यादा सुगंध
सारे समान का बुरा है हाल
ख़राब है तुम्हारा पूरा माल
अरे भाई साहब !
तभी तो है इतना कम दाम
मैं कहता रहा
असली है एकदम असली है हर समान
ज्यादा मुनाफा चाहता नही
इसीलिए रखा कम दाम
पटक समान
चला गया हर इन्सान
मैं बैठा रहा
हो के परेशान
नकली असली मे
कुछ इस कदर घुल चुका था
मिलावटी समान का स्वाद
जिव्हा पे कुछ इसकदर चढ़ चुका था
के हर कोई
असली को नकली
समझ रहा था
बगल के दुकानदार ने कहा
करो थोडी मिलावट
और बढ़ा दो दाम
चल निकलेगी तुम्हारी दुकान
माँ की बीमारी ,पिता का चेहरा
याद आया सब कुछ
फ़िर भी बेच न पाया
मैं आपना इमान
रोजगार कार्यालय की
लम्बी कतार मे
फ़िर खड़ा हो गया
मैं एक भारतीये नौजवान


3.ज़िंदगी


क्या चीज है ?कैसी है ?
और
किस हाल मे है ज़िंदगी
फूलों मे बसी या
बिखरी है खुशबुओं मे
या काँटों की बिच फसी है ज़िंदगी


सांसों के तार से बुनी है
या धडकनों मे बसी है
या लाशों के बिच पलती है ज़िंदगी


सुख की सहिली है
या खुशियों से खिलती है
या गम की चादर से ढकी है ज़िंदगी


तुम को मिली है क्या ?
किसीने देखि है क्या ?
या फ़िर मुझसे ही छुपी है ज़िंदगी


चाँद की किरण है
या शीतल पवन है
या झुलसते तन सी है ज़िंदगी


लोगों के बिच मिलती है
या लोगों मे मिलती है
या फ़िर विरानो मे भटकती है ज़िंदगी


अपनों की आस है
या प्यार की प्यास है
या टूटते रिश्तों का अहसास है ज़िंदगी


महलों के गुम्बदों मे
या घर के आंगन मे
या झोपडी के दिए मे जलती है ज़िंदगी


4.दुआ


सूखे से तरसी आंखों ने
मांगी दुआ वर्षा की
पानी बरसा और बरसता ही चलागया
सब खुछ बहा गया
कुछ यूँ कबूल होती है
दुआ गरीबों की


5. बटवारा


घर ,धन ,वृद्ध आश्रम के खर्चे
यहाँ तक के कुत्ते भी बटें
पर पिता के त्याग ,प्यार
माँ के आँसू ,दूध ,और पीडा
का कुछ मोल न लगा
क्यों की पुरानी,घिसी चीजों का
कुछ मोल नही होता


6. शोर


चहुँ और है शोर बहुत
भीतर बहार हर ओर
तभी सुनाई नही देती
हिमखंड के पिघलने की आवाज़
गाँव के सूखे कुंए की पुकार
धरती में नीचे जाते
जल स्तर की चीख


7. समीकरण


माँ पिता पालते हैं
चार बच्चे खुशीसे
पर चार बच्चों पे
माँ पिता भारी है
ये कलयुग का समीकरण है


8. विस्फोट


दर्द चीखा
लहू बहा
शहर काँपा
दुनिया के नक्शे पे
भारत थरथराया
राम हुआ शर्मिंदा
रहीम ने सर झुकाया


लाशों की भीड़ में खड़ी
माँ भारती रो रही
चिता जलाऊँ किस के लिए
बनाऊँ कब्र किसकी
मानव मानवता
धर्म धार्मिकता
देश देशभक्ति
है कौन यहाँ
हुई हो न मौत जिसकी

तुम्हें क्या बनना है? - ममता कुमारी


बन सकूं तो बनूं - पानी
किसी ने पूछा -
तुम्हें क्या बनना है?
समझ नहीं आया
बताऊँ क्या उसे?
सोची -
पूछ देखूं अपने मन से
थोड़ी प्रतीक्षा, मिला उत्तर - 'पानी' ।
शायद -
मिटे इससे इंसान की बैचेनी,
शांत हो सके
धधकती मन की ज्वाला।
किसी वीरान रेगीस्तान में गिरे तो
फूटे फिर नयी कोंपल।
ले सकूं हर आकार,
दिखा सकूं सच्चा प्रतिबिंब
सच और झूठ का।
और
अंत में बन सकूं
ममता के आंसू
जो बरस जाये
बन कर वर्षा ।


- ममता कुमारी, कोलकाता।