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श्री अशोक शर्मा की चार हास्य कविता


पति-पत्नी संवाद


पति-पत्नी संवाद-1
 

परेशान पति ने पत्नी से कहा --
'एक मैं हूं जो तुम्हें निभा रहा हूँ
लेकिन अब,
पानी सर से ऊपर जा चुका है
इस लिये 'आत्म-हत्या' करने जा रहा हूँ।'
पत्नी बोली - 'ठीक है,
लेकिन हमेशा की तरह
आज मत भूल जाना,
और लौटते समय
दो किलो आटा जरूर लेते आना।


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पति-पत्नी संवाद-2
 

पत्नी ने पति से कहा -- 'तुम रोज-रोज
नदी में छलांग लगाने की कहते हो
लेकिन आज तक तुमने छलांग लगाई? '
पति बोला -- चेलैंज मत कर
वरना करके दिखा दूंगा,
अभी मैं तैरना सीख रहा हूँ
जिस दिन आ जाएगा
छलांग भी लगा दूंगा।'


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पति-पत्नी संवाद-3
 

पति बोला -- अगर तू
इतनी ही परेशान है
तो मुझे छोड़ क्यों नहीं देती,
ये पति-पत्नी का रिश्ता
तोड़ क्यों नही देती।
पत्नी बोली -- इतनी जल्दी भी क्या है
मेरे साजन भोले,
पहले तेरी सारी संपत्ति
मेरे नाम तो हो ले।


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पति-पत्नी संवाद-4
 

पत्नी ने सुबह-सुबह पति को जगाया
पति बड़बड़ाया --
'दो मिनट बाद नहीं जगा सकती थी
ऎसी भी क्या जल्दी थी
कितना अच्छा सपना दिख रहा था,
राजा हरिस्चन्द्र बना मैं और मेरा परिवार
चौराहे पर बिक रह था।'
पत्नी बोली -- 'फिर,
दो मिनट में वहां कौनसी तुम्हारे लिए
रोटी सिक लेती,'
वह बोला -- बेवकूफ,
रोटी सिकती या न सिकती
पर दो मिनट में
कम से कम तू तो बिक लेती।'


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शम्भु चौधरी नई कविता 'शांति' विश्व की छः भाषाओं में



By: Shambhu Choudhary, FD-453, Salt Lake City,
Kolkataa-700106. India



हिन्दी में 'शांति'



धमाके से फैली
अशांति,
फिर हर तरफ
शांति ही शांति



English: Peace
 

From the blast spread
Unrest,
Yet all around
The peace & peace



French: Paix
 

L'explosion de propagation
Les troubles,
Pourtant, tout autour de
La paix la paix



Russian: Мир
 

От взрыва распространения
Беспорядки,
Тем не менее все вокруг
Миру мир



Japanese: 平和
 

からの送風に広がる
不安、
すべての周りはまだありません
平和平和



Chinese: 和平
 

从爆炸蔓延
动乱,
然而,所有靠近
和平和平



Go to ToP

देवी नागरानी की दो कविता


जिंदगी एक रिश्ता..एक फ़ासला
 

कागज़ के कोरे पने
ज़िंदगी तो नहीं
न ही काले रंग की पुतन
का नाम है ज़िंदगी
"ज़िंदगी है एक रिश्ता"
एक लहर का दूजे से
धूप का छाँव से
दुख का सुख से
रात का दिन से
अंधेरे का रौशनी से
" जिंदगी है एक फ़ासला"
वो तो सूरज की
पहली किरन से शुरू होकर
उसी किरण के अस्त होने
तक का फ़ासला है / जीवन की हद से,
मौत की सरहद तक का फ़ासला
जिंदगी सुबह की पहली किरण है
मौत साँझ कि आखिरी किरण है
यही ज़िंदगी है / यही उसकी हद है
और सरहद भी / यही ज़िंदगी है
एक रिश्ता भी / एक फ़ासला भी


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फिर भर आई बदरिया
 

देखो बरसे नैना चोर
सावन की प्यासी ज्यों बदरी
वैसे प्यासा मनवा मोर
देखो बरसे नैना चोर


ऐसा प्यार करे मन पी से
चँदा से ज्यों करे चकोर
देखो बरसे नैना चोर


रुनझुन रुनझुन पायल बाजे
बैरन शोर करे उठ भोर
देखो बरसे नैना चोर


बादल गरजे घनघन घन घन
छाई घटा कारी घन घोर
देखो बरसे नैना चोर


भीनी भीनी खुश्बू छाई
महकी मस्त हवा चहूँ ओर
देखो बरसे नैना चोर


रिमझिम रिमझिम पानी बरसे
प्यासा मोर मचाए शोर
देखो बरसे नैना चोर


सावन की हरयाळी छाई
मस्त फिजाँ मेँ भीगी भोर
देखो बरसे नैना चोर


कळ कळ कळ कळ पानी बहता
प्यास बुझाए प्यासे ढोर
देखो बरसे नैना चोर


ऊँची उड़ान भरे मन ऐसे
जैसे पतँग की हो डोर
देखो बरसे नैना चोर


मदमाती मस्ती है देवी
आई है ख़ुशियों की भोर
देखो बरसे नैना चोर



Add: ९ डी, कॉर्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड,
बांद्रा, मुंबई 400052 , PH: 9867855751,


E-Mail:dnangrani@gmail.com


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डॉo सुरेश अवस्थी की दो कविता:


1. जाँच

नाम के आगे लिखा देख
नेता जी भी गच्चा खा गये
एक दिन सवेरे- सवेरे
इलाज कराने मेरे घर आ गये।
बोले डॉक्टर साहब!
जब से कुर्सी मिली है
भूख जाने का नाम ही नहीं ले रही है
इतना खाया है, इतना खाया है फिर भी भूख-
और खाओ, और खाओ का उपदेश सुना रही है।
पता नहीं पेट में चल रहा है कौन सा घपला।
टीएलसी,डीएलसी,ईसीजी जाँच करा ली,
लेकिन कुछ भी नहीं निकला।
मैंने कहा-
यह डॉक्टर आपको सही इलाज बातायेगा
नेता जी, एक बार 'सीबीआई' जाँच करा लो
सब कुछ निकल आयेगा।


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2. दोहरापन


मैंने बेटे से पूछा
विभीषण अपनी दीवारों, दरवाज़ों पर
राम-राम क्यों लिखता था, लिखवाता था?
वह बोला-
उस जमाने का समझदार नेता था
ऐसा करके वह
'रा' और 'रावण' दोनों को पटाता था
जब कोई रामा दल से आता था तो उसे
राम-राम-राम पढ़वाता था
लेकिन जब कोई रावण दल से आता था तो उसे
'रा' से रावण 'म' से मंदोदरि समझाता था
आजकल
ऐसे दोहरे चरित्र का आदमी
उन्नति कर पाता है
जो भाई की लाश पर
कुर्सी रख कर राजा बन जाता है
वैसे इतिहास
विभीषण को रामभक्त कहते हुए नहीं थकते है।
बावजूद इसके कोई भी बाप अपने बेटे का नाम
विभीषण नहीं रखता है।

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जड़ें

सुशील कुमार

जन्म : १३ सितम्बर, १९६४, पटना सिटी में, किंतु पिछले तेईस वर्षों से दुमका (झारखण्ड) में निवास। शिक्षा : बी०ए०, बी०एड० (पटना विश्वविद्यालय) सम्प्रति : घर के हालात ठीक नहीं होने के कारण पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की - १९९६ में लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में संप्रति +२ जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर प्रकाशन : हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने में गहरी रुचि. कविताएँ कई प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित
E-Mail:sk.dumka@gmail.com


जड़ें
बढ़ती ही जाती हैं
अंधेरे में
अतल गहराईयों में
अपने आस-पास सदैव
मिट्टियों को थामे हुए।
जड़ें
बेख़बर हैं
बसंत से पतझड़ तक
पृथ्वी की उपरी सतह के हर मौसम से।
जड़ें तो
तल्लीन होकर
सोखती रही हैं
धरती का सत्वजल
और फैलाती रही हैं
निरंतर उसे
शाखाओं-प्रशाखाओं से,
लताओं-गुल्मों-फुनगियों-कल्लों तक।
जड़ें
टकरा रही हैं
पृथ्वी के गर्भ में
चट्टानों से
गर्म तैलीय लावा से
उफनते धुँओं से भी
आघात से जिसके नित
टूटते-फूट रहे हैं
जड़ों के असंख्य रोएँदार कोमल रोम।

जड़ें चाहे जितनी बेचैन रही हों
दुख:कातर और निस्सहाय भी,
पर भेदती रहती हैं सतत
धरती का सीना,
सहती जाती हैं
धरती की सीलन-तपिश,
फिर भी आकुल रहती है
हरदम
भीतर धँसने को।
पेड़ों को क्या मालुम कि
इस कठिन यात्रा में
जड़ें
मर रही हैं,
सड़ रही हैं
फ़िर भी
हर क्षण लड़ रही हैं
हर विघ्न-रोड़ों से
पेड़ों के जीवन के वास्ते।
जड़ों की चिंता
वाज़िब है,उस पर
गर्व होता होगा पेड़ों को !
हॉलाकि मालुम है सबको कि
जंगल बचे हैं जड़ों से ही
पूरी दुनिया में।
जड़ों ने
वन्य-संसार में
श्रम की संस्कृति रच रखी है
और खड़े किये हैं
अपने कंधों पर
जंगलों का गौरवमय इतिहास,
फिर भी मजलूम है
हमारे समाज में
जड़ें
जैसे दुनियाभर के इतिहास में
मेहनतकश घट्ठाये हमारे हाथ
मजलूम हैं
जिसने सिरजा है बड़े जतन से
विश्व में पूरी मानवता।
यह सोचना कितना
हैरत-अंगेज है कि
तख़त-ए-ताऊसों से इमारतों तक
जड़ों के कहीं नाम नहीं!
जहाँ भी जड़ें साबूत बची हैं
(ठूँठ बादिय़ों में भी,)
जीवन के फ़िर से
लौट आने की
वहाँ संभावना अभी अशेष है
किंतु जड़ों के नसीब में
बदा है सिर्फ़
रात की
सियाही हर क्षण
नहीं प्रकाश का एक कण।
पेड़ों को देखकर लगता है कि
जब हम भी
अपनी जड़ों से
कटने लगते हैं,
पेड़ों की तरह ही
सुखने लगते हैं
तड़पने लगते हैं,
जिजीविषा
बेचैन हो उठती हैं
हममें भी।
जड़ें मरकर भी
हमारी मिट्टी को पकड़े रहती हैं
और हमारी नीवों को
स्खलन से बचाती हैं,
हमारे पुरखों के किये-धरे की तरह।
किसको पता नहीं कि
जिनकी जड़ों में
रोगाणु लग जाते हैं
उनके साबूत बचने के आसार
कम ही रहते,
उन वृक्षों को घुन लग जाते है।

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श्री रंग की दो कविताऎं


1. पगली


सुबह, गली के लड़के
ढेला मार रहे थे
चिढ़ा रहे थे
वह भी खदेड़ रही थी
बड़बड़ाती.......
दोपहर में,
घूम रही थी बाजार में,
मांग रही थी कुछ खाने को
दुत्तकार रहे थे उसे सभ्य लोग।
शाम ढले,
वह पार्क के बेंच पर बैठी
कुछ खा रही थी चुपचाप
वहाँ उसे कोई ढेला नहीं मार रहा था
दुत्कार नहीं रहा था कोई
कोई नहीं कर रहा था घिन.....
रात गये,
आग की तरह, तापी जा रही थी पगली।

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2. पिता, रोटी और बच्चे


दिन भर हाथ पैर मारते पिता
बोलते झूठ सच किसी तरह करते
पेट भरने का प्रबन्ध.....
देर रात घर लौटने पर माँ
नोचने लगती पिता का मूँह
वरक्कत नहीं होता पिता की कमाई में
परई भररहती दिन भर की
परई भर ही रहती
देर रात तक खटने पर
अपने करम पर रोती माँ
पर रो नहीं पाते खुलकर पिता
सारा गुस्सा उतारते माँ पर
माँ खीज उतारती बच्चों पर...
दिन रात खटे पिता खटती माँ
किस्मत को कोसते
देर रात गये चूल्हा जलाती मँ
बनाती जो मिला होता सीधा-पिसान
डरे सहमे चुपचाप का लेते जो मिलता बच्चे
खाली आतों में पानी भर कर सो जाती माँ
कितनी बार.....




9/12 EWS, कबीर मंदिर रोड,
प्रीतम नगर, इलाहाबाद
साभार:'सम्यक'

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आत्म-विश्लेषण

श्यामसखा 'श्याम'


भला लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना

पर इसके लिये
वक़्त कहां ?
वक़्त तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में
और अधिक-और अधिक
संचय की आस में

बीत गये बचपन जवानी
जीवन के अन्तिम दिनों में
हमने वक़्त की कीमत जानी
तब तक तो खत्म हो चुकी थी
नीलामी

हम जैसों ने खरीदे
जमीन के टुकड़े
इक्ट्ठा किया धन
देख सके न
जरा आँख उठा
विस्तरित नभ
लपकती तड़ित
घनघोर गरजते घन
रहे पीते धुएं से भरी हवा
कभी देखा नहीं
बाजू मे बसा
हरित वन

पत्नी ने लगाए
गमलों में कैक्टस
उन पर भी
डाली उचटती सी नज़र

खा गया
हमें तो यारो
दावानल सा बढ़ता
अपना नगर

नगर का
भी, क्या दोष
उसे भी तो हमने गढ़ा
देखते रहे औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर अपनी
हथेली को
कभी नहीं पढ़ा

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डॉ० श्यामसखा'श्याम' मौदगल्य का संक्षिप्त परिचय

जन्म-अगस्त २८,१९४८[अप्रैल १,१९४८विद्यालयी रिकार्ड में]
जन्म स्थान-बेरी वालों का पेच रोहतक
जननी-जनक: श्रीमति जयन्ती देवी,श्री रतिराम शास्त्री
शिक्षा -एम.बी; बी.एस ; एफ़.सी.जी.पी.
सम्प्रति- निजी नर्सिंग होम
लेखन-
भाषा- हिन्दी,पंजाबी,हरयाणवी व अंग्रेजी में
प्रकाशित पुस्तकें- ३ उपन्यास[नवीनतम-कहां से कहां तक-प्रकाशक-हिन्द पाकेट बुक्स]
२ उपन्यास ,कोई फ़ायदा नहीं हिन्दी,समझणिये की मर-
हरयाण्वी में साहित्य अकादमी हरयाणा द्वारा पुरस्कृत
३ कथा संग्रह-हिन्दी-अकथ ह.सा.अकादमी द्वारा-पुरस्कृत
१ कथा संग्रह इक सी बेला-पं.सा अका.द्वारा पु.
५ कविता संग्रह प्रकाशित-एक ह,सा.अ.द्वारा अनुदानित
१ ग़ज़ल संग्रह-दुनिया भर के गम थे
१ दोहा-सतसई-औरत वे पांचमां[हरियाण्वी भाषा की पहली दोहा सतसई]
१ लोक-कथा संग्रह-घणी गई-थोड़ी रही-ह.सा.अका.[अनुदानित]
१ लघु कथा संग्रह-नावक के तीर-ह.सा.अका[अनुदानित]
चार कहानियां ह.सा अका.२ तीन-पंजाबी सा.अका द्वारा पुरस्कृत
एक उपन्यास-समझणिये की मर'-एम.ए फ़ाइनल पाठ्यक्रम[कुरुक्षेत्र वि.विद्यालय मे]
मेरे साहित्य पर एक शोध-पी एच डी हेतु,तीन एम.फिल हेतु सम्पन्न।
सम्पादन-संस्थापक संपादक-मसि-कागद[प्रयास ट्रस्ट की साहित्यिक पत्रिका]-दस वर्ष से
कन्सलटिंग एडीटर-एशिया ऑफ़-अमेरिकन बिबिलोग्राफ़ीक मैगज़ीन-२००५ से
सह-संपादक-प्रथम एडिशन-रोह-मेडिकल मैगज़ीन मेडिकल कालेज रोहतक-१९६७-६८
सम्मान -पुरुस्कार
१ चिकित्सा- रत्न पुरस्कार-इन्डियन मेडिकल एसोशिएशन का सर्वोच्च पुरुस्कार-२००७
२ पं लखमी चंद पुरस्कार[ लोक-साहित्य हेतु]-२००७
३ छ्त्तीस गढ़ सृजन सम्मान[मुख्यमंत्री डॉ० रमन सिंह द्वारा]-२००७
४ अम्बिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण-२००७
५-कथा बिम्ब-कथापुरस्कार मुम्बई,
६ राधेश्याम चितलांगिया-कथा पुरस्कार- लखनऊ
६ संपादक शिरोमिणि पु.श्रीनाथद्वारा-राजस्थान
सहित-लगभग २५ अन्य सम्मान पुरस्कार
अध्यक्ष[प्रेजिडेन्ट]=इन्डियन मेडिकल एसोशियेशन हरियाणा प्रदेश;२साल१९९४-९६
संरक्षक- इंडियन,मेडि.एसो.हरियाणा-आजीवन
सदस्य-रोटरी इन्टरनेशनल व पदाधिकारी
सदस्य कार्यकारणी-गौड़ब्राह्मण विद्याप्रचारणी सभा
सम्पर्क- मसि-कागद १२ विकास नगर रोह्तक १२४००१
घुमन्तू भाष-०९४१६३५९०१९ .
E-Mail:shyamskha@yahoo.com


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सुरेन्द्र कुमार'अभिन्न'की दो कविता



आसमान से ऊँचे

 

आसमान से ऊँचे हरदम, और सागर से गहरे रिश्ते
मिट जाते दिल के अंधेरे होते हैं बड़े सुनहरे रिश्ते
खून के रिश्तों से बढ़कर, होते है दिल के गहरे रिश्ते
मेंहदी रिश्ते, पायल रिश्ते, और होते हैं गजरे रिश्ते
रिश्तों के निगहबान है रिश्ते,रिश्तों पे होते पहरे रिश्ते
गांव छोटे पर गहरे रिश्ते, शहर बड़ा और छोटे रिश्ते





मेरा बचपन

 

कोई खिलौना सा टूट गया है मेरा बचपन
टूटे खिलोने सा कहीं छुट गया है मेरा बचपन
कितना खुश था, कितना सुख था बचपन की उन बातों में
समय का जालिम चेहरा आकर लूट गया मेरा बचपन
हंसता खिलता सबसे मिलता, एक जिद्दी बच्चे जैसा
जाने किस की नज़र लगी और रूठ गया मेरा बचपन
गुल्ली डंडा, गोली कंचा, डोर पतंग सी उमंग लिए
रंग बिरंगे गुब्बारों सा था, क्यूँ फूट गया मेरा बचपन




- सुरेन्द्र कुमार'अभिन्न'
शिक्षा ..अंग्रेजी भाषा और साहित्य में M.A. व M.Phil.
पर्यटन प्रबंधन में स्नातकोत्तर (M.T.A.)
स्थान: अम्बाला
व्यवसाय: हरियाणा सरकार के आबकारी व कराधान विभाग में
आबकारी व कराधान अधिकारी .. एवं .. कर निर्धारण प्राधिकारी
के पद पर सेवारत

E-Mail: sure_234@hotmail.com


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मकडियां


मयंक सक्सेना
Zee News Ltd., FC - 19, Sector 16A, Noida
09311622028


सन्नाटे के शोर से कानो को पकड़
दांतों को भींचता
सामने के भयानक दृश्य
देख न पाने की हालत में
आंखों को मींचता
इधर उधर
हर तरफ़ .... जहाँ देखो
या न देखो
सब कहीं झूठ .... धोखा
लोग होते जाते और और और
मक्कार
सब हैं अय्यार
अंधेरे में पूरे बदन पर रेंगती हैं
फंसाने को
शिकार बनाने को
जाल बुनती हैं
हजारों मकडियां
दरो दीवारों पर ......
दिलो की दीवारों पर !

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कान्हा खेलत ब्रिज में

Dr.SK Mittal


कान्हा खेलत ब्रिज में ग्वालन संग
घुसत गोपियन के घर ढुडन माखन
गोपी तरसत छुप झाँकत, कब आवेंगे नन्दलाल
देख कान्हा, दर्शन पात, होजावे निहाल

लेत बलिआं, पीछे भागत, पकड़वे को नटवरलाल
अंखियन नीर बहावत, कमलपद पखारत, जपे गोपाल

ये नटखट,लीला करत,गोपियन को खिजावत,करे धमाल
छाछ के लोटे पे,त्रिभंगी को नचावे,देखो गोपियन को कमाल

मनभाव दुसरो,काम दूसरो,पकडे श्याम को, डाले जाल
सुन स्यानी, जो इसे ध्यावे,
वोह तो, निहाल और खुशहाल

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कट्टरवाद

जो न सुनता, न जानता हो
औरतों के जिस्म को न
पहचानता हो,
सिर्फ मर्दों का हक
कानून में बोलता हो,
खुद का क्रोध,
दूसरे पर थोपता हो
अंधविश्वास की नींव पर
टिक
दूसरे धर्म में
अविश्वास के ज़हर रोपता हो । -शम्भु चौधरी

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