परिचय:
सन्त शर्मा आप मूल रूप से बिहार के नालंदा प्रान्त का निवासी हैं|आपकी शिक्षा-दीक्षा कोलकाता (वेस्ट बंगाल) में संपन्न हुई और अभी कोलकाता स्थित एक निजी कंपनी में Cost Account के तौर पर कार्यरत हैं | आप मातृभाषा हिंदी में कवितायें लिखना मेरे निजी सुकून का हिस्सा मानते हैं। अपने वैचारिक मित्रों से बाटना इनको सुखद अनुभूति देता है। इनकी तीन कविताएँ -
1. स्वाभिमान
हीन भाव से ग्रसित जीव, उत्थान नहीं कर पाता है
हर लक्ष्य असंभव दिखता है, जब स्वाभिमान मर जाता है
स्वाभिमान है तेज पुंज, यदि कठिनाई है अन्धकार
यह औषधि है हर रोगों की, गहरा जितना भी हो विकार
यह शक्ति है जो है पकड़ती, छुटते धीरज के तार
यह दृष्टि है जो है दिखाती, नित नए मंजिल के द्वार
यह आन है, यह शान है, यह ज्ञान है, भगवान है
कुछ कर गुजरने की ज्योत है, हर चोटी का सोपान है
हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है
यह है तो इस ब्रह्माण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
2.विश्वास न खोने देना
हो थकान भरी जीवन की डगर, तुम आश न सोने देना
बरसेंगे ख़ुशी के मेघ, ये तुम विश्वास न खोने देना
जितना पतझड़ है सत्य, वसंत भी उतनी ही सच्चाई है,
दो दिवस के मध्य में ही हरदम, एक रात घनी आयी है
कब दिल की अगन, रोके है पवन, तुम चाह ना बुझने देना,
है ताकत तो झुकता है गगन, तुम बाह ना झुकने देना
सतयुग हो या हो कलयुग, है सत्य दिखा परेशां,
सहमा, टुटा राहों में, थी सफर ना उसकी आसां
पर जीता है वो हरदम, तुम हार ना होने देना,
मंजिल है तुम्हारी निश्चित, बस राह ना खोने देना
मन हार न माने जब तक, है आश विजय की तब तक,
जब प्रेम प्रबल हो जाता, तब रोके कौन विधाता
सौ आश जो टूटे दिल के, फिर स्वप्न संजोने देना,
हां ख्वाब है होते पूरे, ये विश्वास न खोने देना
3.समय बलवान होता है ..
तनिक सामर्थ्य पा, अक्सर बली अभिमान होता है,
मनुज, ठोकर लगे ना, दर्द से अनजान होता है
समय-निधि रेत पर, कितने घरौंधे रोज बन मिटते,
न जीता जा सका बन्धु, समय बलवान होता है
युगों पहले धरा पर वक़्त एक, दसशीश था आया,
गगन भी था प्रकंपित, अजेय जो सामर्थ्य था पाया
दशा विपरीत जब आई, न क्षण भर भी वो टिक पाया,
बुरे कर्मो का तो भरना, बुरा परिणाम होता है,
न जीता जा सका ........
वक़्त ने ली नयी करवट, अहम् का बीज फिर फूटा,
सुत प्रेमवद्ध एक भूप ने, निज भ्रात हित लूटा
शत-पुत्र, सारे मर मिटे, नहीं विष बेल फल पाया,
अतिक्रमण अधिकार का हो जब, यही अंजाम होता है,
न जीता जा सका ............
काल पश्चिम का फिर आया, व्योम सा जग पे जो छाया,
न क्षण-भर को मिली राहत, दिवाकर भी था घबराया
अहम् के श्रृंग से टूटा यू, धरा पर निज सिमट आया,
यहाँ तो हर उदय का, निश्चित कभी अवसान होता है,
न जीता जा सका ............
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