
बन सकूं तो बनूं - पानी
किसी ने पूछा -
तुम्हें क्या बनना है?
समझ नहीं आया
बताऊँ क्या उसे?
सोची -
पूछ देखूं अपने मन से
थोड़ी प्रतीक्षा, मिला उत्तर - 'पानी' ।
शायद -
मिटे इससे इंसान की बैचेनी,
शांत हो सके
धधकती मन की ज्वाला।
किसी वीरान रेगीस्तान में गिरे तो
फूटे फिर नयी कोंपल।
ले सकूं हर आकार,
दिखा सकूं सच्चा प्रतिबिंब
सच और झूठ का।
और
अंत में बन सकूं
ममता के आंसू
जो बरस जाये
बन कर वर्षा ।
- ममता कुमारी, कोलकाता।
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