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भोपाल तीन काल -शम्भु चौधरी


ऐ कब्रगाह- भोपाल!

चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को |
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो
उस नापाक इरादों को
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 28 दिसम्बर1987]

वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी

वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी।
कुछ जमीन पर सोये सांसे गिन रही थी।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहाँ बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आये तो,
एक गैसयंत्र ओर यहाँ बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जायेगें।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 02 दिसम्बर1987]


भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...

भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं म मानव।


[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 5 नवम्बर 1988]
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

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1 comment:

महेन्द्र मिश्र said...

तीनो रचना अच्छी है . बधाई . लिखते रहिये.