आदमी को आदमी, खा रहा आदमी।
उम्र पाकर भी मर रहा आदमी,
आँख का अंधा रहा हो,
पांव का लंगड़ा भले हो,
मस्तिष्क में भले ही
शून्य ने ले रखी जगह हो,
पर हर तरफ ही हर तरफ-
सिर्फ छा रहा है आदमी
छीन कर सुख-चैन सबका-
सो रहा खुद ही आदमी
घर-घर में बूढ़े माँ-बाप-
खोज रहे हैं आदमी
गाँव का मरता किसान -
खोज रहे हैं आदमी
संसद में तड़पता लोकतंत्र-
खोज रहे हैं आदमी
माँ की कोख में भी अब -
खोज रहे हैं आदमी
हर तरफ बस एक ही बात
आदमी को आदमी
खा रहा है आदमी।
- शम्भु चौधरी
10.2.2009
2 comments:
आदमी को आदमी, खा रहा आदमी
उम्र पाकर भी मर रहा आदमी,
" bhut hi dard or aakrosh bhra hai??????kya hua??"
Regards
aapki chhatpatahat sahi hai.rachana sundar hai.
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