मैं गरीब मरुँ सर्दी में बरसातों में और गर्मी में तूफानों में भूचालों में सीलन भरी हुई चालों में पर तुम्हें सुलाऊं महलों में , रिक्शों में हथ्ठेलों में गाड़ियों में हल बैलों में खंडहरों में खंडा लों में गन्दी नाली व नालों में पर तुम्हे सुलाऊं महलों में , भामता रहता हूँ मेलों में खुशियाँ देता हूँ जेलों में मैं फिरूँ बांटता भोजन बसों में और रेलों में पर तुम्हें सुलाऊं महलों में , मांजू बर्तन स्टालों में रखवाली करूँ टकसालों में उठाता लीद घुड़ सालों में पर मान ना पाया कालों में पर तुम्हें सुलाऊं महलों में , चलता रहता पग छालों में बदती दाढी बिखरे बालों में फटे कपड़े और दुशालों में भूखे पेट के ख्यालों में पर तुम्हें सुलाऊं महलों में , मैं गरीब भारत का निराला मत पहिनाओ पुष्पों की माला पर ना पिलाओ अपमान का प्याला पुचकारो और काम कराओ जाकर सो जाओ महलों में | फूंक दो जला दो उन लाखों झोपडियों को जिनमे आज भी दो वक्त का खाना नहीं बनता जिनमे रखा कच्ची मिटटी का चूल्हा स्वयम को दो वक्त जलाने हेतु आंसुओं से है रोता , उलटा पडा तवा अपना अपमान देखकर बार -बार आत्महत्या जैसा घिनोना कार्यं करने हेतु प्रेरित है होता , जहाँ साग की हांडी बरसों से पड़ी उलटी सिल बत्तों को कोस रही है और सिल को सौतन मान मन ही मन सौतन डाह से रोग ग्रसित हो रही है , चमचे की हालत एक कोने में निश्चल पड़े बरसों से पोलियो के मरीज जैसी हो गयी है , और वहीँ चौके में बैठी झोपडी की मालकिन अभाव ग्रस्त होकर अपनी फूटी किस्मत को कोस रही है इतना सब होते हुए भी हमारी सरकार २१वि सदी में पहुचने पर खुशी से पागल हो रही है |
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गरीब मजदूर की आत्मकथा -के.पी.चौहान
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