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पानी- जय कुमार रूसवा
उसकी सुन रहा था अपनी सुना रहा था
चलते - चलते मिठाई की दुकान आई
देखते ही दोस्त ने प्रेम की गंगा बहाई
और पूछा - रूसवाजी रसगुल्ले खाओगे?
मैंने कहा - तुम खिलाओगे?
वो बोला - खिलाऊंगा, मैने कहा - खाऊंगा
अच्छी-सी कुर्सी देख
हम दोनों ने आसन जमाए
पंद्रह - पंद्रह रसगुल्ले खाए
उसके बाद दोस्त बोला -
मैं जरा पानी पीकर आता हूँ
तुम्हारे लिए लाता हूँ
वह गया - लौटकर ही नहीं आया
120 रूपयों का बिल मैंने चुकाया
कुछ दिनों बाद -
हम दोनों फिर साथ-साथ जा रहे थे
सुन रहे थे, सुना रहे थे
चलते - चलते
मिठाई की दूसरी दुकान आई
देखते ही दोस्त नें
प्रेम की गंगा-यमुना दोनों बहाई
और पूछा - रूसवा जी पेड़े खाओगे?
मैंने कहा - खाऊंगा
लेकिन इस बार, पानी पीने मैं जाऊंगा
-जय कुमार रूसवा, कोलकता
श्री नरेश अग्रवाल की कुछ नई कविताएं-
1. पगडंडी 2. कैसे चुका पायेंगे तुम्हारा ऋण 3. यह लालटेन 4. बैण्डबाजे वाले 5. हर आने वाली मुसीबत 6. टोपी 7.हक 8. खुशियां 9. पूजा के बाद 10. अनुभूतियां 11. मनाली में 12. यहाँ की दुनिया 13. किताब 14. मैं सोचता हूँ 15. तुम्हारे न रहने पर 16. नये घर में प्रवेश 17. दुनिया के सारे कुएँ 18. पार्क में एक दिन 9. डर पैदा करना 20. चित्रकार 21. विज्ञापन 22. नियंत्रण
जहां से सडक़ खत्म होती है
वहां से शुरू होता है
यह संकरा रास्ता
बना है जो कई वर्षों में
पॉंवों की ठोकरें खाने के बाद,
इस पर घास नहीं उगती
न ही होते हैं लैम्पपोस्ट
सिर्फ भरी होती है खुशियॉं
लोगों के घर लौटने की !
2. कैसे चुका पायेंगे तुम्हारा ऋण
रात जिसने दिखाये थे
हमें सुनहरे सपने
किसी अजनबी प्रदेश के
कैसे लौटा पायेंगे
उसकी स्वर्णिम रोशनी
कैसे लौटा पायेंगे
चॉंद- सूरज को उनकी चमक
समय की बीती हुई उम्र
फूलों को खुशबू
झरनों को पानी और
लोगों को उनका प्यार
कैसे लौटा पायेंगे
खेतों को फसल
मिट्टी को स्वाद
पौधों को उनके फल
ए धरती तुम्हीं बता
कैसे चुका पायेंगे
तुम्हारा इतना सारा ऋण ।
सभी सोये हुए हैं
केवल जाग रही है
एक छोटी-सी लालटेन
रत्ती भर है प्रकाश जिसका
घर में पड़े अनाज जितना
बचाने के लिए जिसे
पहरा दे रही है यह
रातभर ।
आधी रात में
बैण्डबाजे वाले
लौट रहे हैं
वापस अपने घर
अन्धकार के पुल को
पार करते
जिसके एक छोर पर
खड़ी है उनकी दुखभरी जिन्दगी
और दूसरे छोर पर
सजी-धजी दुनिया
उसकी गतिविधिय़ॉं
असामान्य होती हैं
दूर से पहचानना
बहुत मुश्किल होता है
या तो वह कोई बाढ़ होती है
या तो कोई तूफान
या फिर अचानक आई गन्ध
वह अपने आप
अपना द्वार खोलती है और
बिना इजाजत प्रवेश कर जाती है
फिर भागते रहो
घंटों छुपते रहो इससे
जब तक वह दूर नहीं चली जाती
हमारे मन से
बचा रह जाता है
उसके दुबारा लौट आने का भय।
तरह-तरह की टोपियॉं
हमारे देश में
सबका एक ही काम
सिर ढकना - नहीं एक और काम
विभाजित करना
लोगों को
अलग-अलग समुदायों में ।
प्रकृति की सुंदरता पर किसी का हक नहीं था
वो आजाद थी, इसलिए सुंदर थी
एक खूबसूरत चट्टान को तोडक़र
दो नहीं बनाया जा सकता
ना ही एक बकरी के जिस्म को दो।
इस धूप को कोई नहीं रोक सकता था
धीरे-धीरे यह छा जाती थी चारों तरफ
इसलिए इसके भी दो हिस्से नहीं हो सकते
और जो हिस्से सुंदर नहीं थे
वे लड़ाईयों के लिए पहले ही छोड़ दिये गए थे।
मुझे थोड़ी सी खुशियां मिलती हैं
और मैं वापस आ जाता हूँ काम पर
जबकि पानी की खुशियों से घास उभरने लगती है
और नदियां भरी हों, तो नाव चल पड़ती है दूर-दूर तक।
वहीं सुखद आवाजें तालियों की
प्रेरित करती है नर्तक को मोहक मुद्राओं में थिरकने को
और चांद सबसे खूबसूरत दिखाई देता है
करवां चौथ के दिन चुनरी से सजी सुहागनों को
हर शादी पर घोड़े भी दूल्हे बन जाते हैं
और बड़ा भाई बेहद खुश होता है
छोटे को अपनी कमीज पहने नाचते देखकर
एक थके हुए आदमी को खुशी देती है उसकी पत्नी
घर के दरवाजे के बाहर इंतजार करती हुई
और वैसी हर चीज हमें खुशी देती है
जिसे स्वीकारते हैं हम प्यार से।
पूजा के बाद हमसे कहा गया
हम विसर्जित कर दें
जलते हुए दीयों को नदी के जल में
ऐसा ही किया हम सबने।
सैकड़ों दीये बहते हुए जा रहे थे एक साथ
अलग-अलग कतार में।
वे आगे बढ़ रहे थे
जैसे रात्रि के मुंह को थोड़ा-थोड़ा खोल रहे हों, प्रकाश से
इस तरह से मीलों की यात्रा तय की होगी इन्होंने
प्रत्येक किनारे को थोड़ी-थोड़ी रोशनी दी होगी
बुझने से पहले।
इनके प्रस्थान के साथ-साथ
हम सबने आंखें मूंद ली थी
और इन सारे दीयों की रोशनी को
एक प्रकाश पुंज की तरह महसूस किया था
हमने अपने भीतर।
सचमुच हमारी अनुभूतियां
नाव के चप्पू की तरह बदल जाती हैं हर पल
लगता है पानी सारे द्वार खोल रहा है खुशियों के
चीजें त्वरा के साथ आ रही हैं जा रही हैं
गाने की मधुर स्वर लहरियां गूंजती हुई रेडियो से
मानों ये झील के भीतर से ही आ रही हों
हम पानी के साथ बिलकुल साथ-साथ
और नाव को धीरे-धीरे बढ़ाता हुआ नाविक
मिला रहा है गाने के स्वर के साथ अपना स्वर
और हम खो चुके हैं पूरी तरह से,
यहां की सुन्दरता के साथ।
ये सेव के पेड़ कितने अजनबी है मेरे लिए
हमेशा सेव से रिश्ता मेरा
आज ये पेड़ बिल्कुल मेरे पास
हाथ बढ़ाऊं और तोड़ लूं
लेकिन इन्हें तोड़ूंगा नहीं
फिर इन सूने पेड़ों को,
खूबसूरत कौन कहेगा।
बच्चा अभी-अभी स्कूल से लौटा है
खड़ा है किनारे पर
चेहरे पर भूख की रेखाएं
और बाहों में मां के लिए तड़प।
मां आ रही हैं झील के उस पार से
अपनी निजी नाव खेती हुई
चप्पू हिलाता है नाव को
हर पल वह दो कदम आगे बढ़ रही
बच्चा सामने है
दोनों की आंखें जुड़ी हुई
खुशी से हिलती है झील
हवा सरकती है धीरे-धीरे
किसी ने किसी को पुकारा नहीं
वे दोनों निकल चले आये ठीक समय पर
यही है यहाँ की दुनिया।
अनगिनत सीढिय़ां चढऩे के बाद
एक किताब लिखी जाती है
अनगिनत सीढिय़ां उतरने के बाद
एक किताब समझी जाती है।
मैं सोचता हूँ सभी का समय कीमती रहा
सभी का अपना-अपना महत्व था
और सभी में अच्छी संभावनाएं थीं.
छोटी सी रेत से भी भवनों का निर्माण हो जाता है
और सागर का सारा पानी दरअसल बूंद ही तो है।
रास्ते के इन पत्थरों को
मैंने कभी ठुकराया नहीं था
इन्हें नहीं समझ पाने के कारण
इनसे ठोकर खाई थी
और वे बड़े-बड़े आलीशन महल
अपने ढ़हते स्वरूप में भी
आधुनिकता को चुनौती दे रहे हैं
और उनका ऐतिहासिक स्वरूप आज भी जिंदा है।
थोड़ा-थोड़ा करके
सचमुच हमने पूरा खो दिया तुम्हें
पछतावा है हमें
तुम्हें खोते देखकर भी
कुछ भी नहीं कर पाये हम,
अब हमारी ऑंखें सूनी हैं,
जिन्हें नहीं भर सकतीं
असंख्य तारों की रोशनी भी
और न ही है कोई हवा
मौजूद इस दुनिया में
जो महसूस करा सके
उपस्थिति तुम्हारी,
एक भार जो दबाये रखता था
हर पल हमारे प्रेम के अंग
उठ गया है, तुम्हारे न रहने से
अब कितने हल्के हो गये हैं हम
तिनके की तरह पानी में बहते हुए ।
वर्षों से ताला बन्द था
उस नये घर में
कोई सुयोग नहीं बन रहा था
यहाँ रहने का
आज किसी शुभ हवा ने
दस्तक दी और खुल गये इसके द्वार
देखता हूँ , बढ़ रहा है
इसमें रहने को छोटा-सा परिवार
माता-पिता बच्चों सहित
साथ में दादा-दादी
सभी खुश हैं
आज पहली बार खाना बनेगा
इसके रसोई घर में
छोंकन से महकेगा सारा घर
कुछ बचा-खुचा नसीब होगा
आस-पास के कुत्तों और पक्षियों को भी
कुछ पेड़-पौधे भी लगाये जाएँगे
साथ में तुलसी घर भी होगा आँगन में
पिछवाड़े में होंगे स्कूटर और साइकिल
और एक कोने में स्थापित होंगी
ईश्वर की कुछ मूर्तियाँ ।
कुछ ऊँचे स्वर भी सुनाई देंगे
कभी-कभार दादा के
जो बतायेंगे
अभी घर की सारी सुरक्षा का भार
उन्हीं के सिर पर है।
मँडरा रहा है यह सूरज
अपना प्रबल प्रकाश लिए
मेरे घर के चारों ओर
उसके प्रवेश के लिए
काफी है एक छोटा सा सूराख ही
और जिन्दगी
जो भी अर्जित किया है मैंने
उसे बहार निकाल देने के लिए
काफी होगा एक सूराख ही
और प्रशंसनीय है यह तालाब
मिट्टी में बने हजार छिद्रों के बावजूद
बचाये रखता है अपनी अस्मिता
और वंदनीय हो तुम दुनिया के सारे कुओं
पाताल से भी खींचकर सारा जल
बुझा देते हो प्यास हर प्राणी की ।
इस पार्क में जमा होते जा रहें हैं लोग
कोई चुपचाप निहार रहा है
पौधों की हरियाली और फूलों को
कोई मग्न है कुर्सी पर बैठकर
प्रेम क्रीड़ा करने में,
कोई बढ़ रहा है आगे देखने की उत्सुकता लिए
कोई वहीं बैठ गया है घास पर
थोड़ी ठंडक का आनन्द लेने
कई बच्चे अलग-जगह पर हैं
झूला झूलते या दूसरे उपकरणों से खेलते हुए
सभी लोग फुर्सत में हैं, फिर भी व्यस्त।
अब थोड़ी देर में फव्वारे चालू होंगे
रंग-बिरंगे मन मोहते हुए
यही आखिरी खुशी होगी लोगों की
फिर लौटने लगेंगे वे वापस घर
कोई परिश्रम नहीं फिर भी थके हुए।
केवल उगते या डूबते हुए सूर्य को ही
देखा जा सकता है नंगी आँखों से
फिर उसके बाद नहीं
और जानता हूँ
हाथी नहीं सुनेंगे
बात किन्हीं तलवारों की
ले जाया जा सकता है उन्हें दूर-दूर तक
सिर्फ सुई की नोक के सहारे ही,
इसलिए सोचता हूँ,
डर पैदा करना भी एक कला है ।
मैं तेज प्रकाश की आभा से
लौटकर छाया में पड़े कंकड़ पर जाता हूँ
वह भी अंधकार में जीवित है
उसकी कठोरता साकार हुई है इस रचना में
कोमल पत्ते मकई के
जैसे इतने नाजुक कि वे गिर जाएंगे
फिर भी उन्हें कोई संभाले हुए है
कहां से धूप आती है और कहां होती है छाया
उस चित्रकार को सब कुछ पता होगा
वह उस झोपड़ी से निकलता है
और प्रवेश कर जाता है बड़े ड्राइंग रूम में
देखो इस घास की चादर को
उसने कितनी सुन्दर बनाई है
उस कीमती कालीन से भी कहीं अधिक मनमोहक।
तरह-तरह के विज्ञापन के कपड़ों से ढका हुआ हाथी
भिक्षा नहीं मांगेगा किसी से
वो चलेगा अपनी मस्त चाल से
बतलाता हुआ, शहर में ये चीजें भी मौजूद हैं
जिन्हें पहुंचाया जा सकता है
घर तक मिनटों में।
वह बढ़ता है सडक़ के दोनों ओर स्थित पेड़ों के बीच से
अपना खाना चुराता हुआ।
महावत को गर्व है
नहीं जाना पड़ेगा उसे घर-घर मांगने
भीड़ भरी सडक़ों पर करता रहेगा वह यात्राएं
और कौतूहलवश लोग उसे देखते रहेंगे
धीरे-धीरे दरें भी बढ़ती जाएंगी
और हाथी अक्सर दिखायी देते रहेंगे
जंगल छोडक़र सडक़ों पर
यह उनका अच्छा उपयोग।
जिन रातों में हमने उत्सव मनाये
फिर उसी रात को देखकर हम डर गए
जीवन संचारित होता है जहां से
अपार प्रफुल्लता लाते हुए
जब असंचालित हो जाता है
कच्चे अनुभवों के छोर से
ये विपत्तियां हीं तो हैं।
कमरे के भीतर गमलों में
ढेरों फूल कभी नहीं आयेंगे
एक दिन मिट्टी ही खा जाएगी
उनकी सड़ी-गली डालियां।
बहादुर योद्धा तलवार से नहीं
अपने पराक्रम से जीतते हैं
और बिना तलवार के भी
वे उतने ही पराक्रमी हैं।
सारे नियंत्रण को ताकत चाहिए
और वो मैं ढूंढ़ता हूँ अपने आप में
कहां है वो? कैसे उसे संचालित करूं?
कभी हार नहीं मानता किसी का भी जीवन
वह उसे बचाये रखने के लिए पूरे प्रयत्न करता है
और मैं अपनी ताकत के सारे स्रोत ढूंढक़र
फिर से बलिष्ठ हो जाता हूँ।
Naresh Agarwal, Jamshedpur 9334825981
यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे
कविवर रविन्द्रनाथ ठाकुर
[बंगला]
यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तॅबे एकला चलो रे।
तॅबे एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे।।
यदि केउ कॅथा ना कॅय, ओरे ओरे ओ अभागा,
यदि सबाइ थके मुख फिराये,
सबाई करे भय-तबे परान खुले,
ओ तुई मुख फुटे तोर मनेर कॅथा एकला बालो रे।।
यदि केउ कॅथा ना कॅय,
ओरे ओरे ओ अभागा,
यदि गहन पथे जावार काले केउ फिरे ना चाय- तबे पथेर काँटा,
ओ तुई रक्तमाखा चरणतले एकला दलो रे।।
यदि आलो ना धरे, ओरे ओरे ओ अभागा,
यदि झड़बादले आँधर राते दुआर देय घरे- तबे वज्रानले,
आपॅन बुकेर पाँजर ज्वालिये निये एकला ज्वलो रे।।
[हिन्दी में रूपान्तर]
तेरी आवाज पे यदि कोई न आये, तो फिर चल अकेला रे।
तो फिर चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला रे।।
यदि कोई भी न बोले, ओरे ओरे ओ अभागे,
यदि सभी मुख मोड़े रहें,
सब डरा करें, तब डरे बिना,
तेरे मन की बात, मुक्त-कण्ठ, कह अकेला रे।।
यदि लौट जायें सभी, ओरे ओरे ओ अभागे,
यदि गहन डगर चले, देखे मुड़ के न कोई तब राहों के कांटे,
ओ तू रक्त - रंगे, चरण - तले, दल अकेला रे।।
यदि दीप न धरें, ओरे ओरे ओ अभागे,
झड़ी - आँधी - भरी रात में, घर बन्द यदि करें तब वज्र -
शिखा से तू अपनी अस्थियाँ जला और जल अकेला रे।।
Translated In Hindi by : Dawlala Kothari
अरमानों का टकराव-कुंवर प्रीतम
अरमानों का टकराव
हर रोज होता है
हालात से
और कुरुक्षेत्र बना
हृदयस्थल फिर
ढूंढने लगता है
उसी कृष्ण को
जिसने दिया था संदेश
कर्मण्येवाधिकारस्ते का।
गीता में कहे बोल
गूंजने लगते हैं
प्रेरणा बनकर
देते हैं पाथेय
और समा जाते हैं
शनैः शनैः
हृदय में
फिर दस्तक देते हैं
आत्मा के आंगन में
अंततोगत्वा
उफनते अरमानों का टकराव
पा जाता है समाधान
और निकल पड़ता है
कर्म की पगडंडी पर।
कुंवर प्रीतम
--
KUNWAR PREETAM
MAHANAGAR PRAKASHAN
309 B B GANGULY STREET, 2ND FLOOR
KOLKATA -700 012
WEST BENGAL
098300 38335
कृष्ण कुमार यादव की तीन कविताऐं
1. खटमल
रात को बार-बार जागता हूँ
पाँच-छ: खटमलों का काम
तमाम कर ही देता हूँ
फिर भी रक्तबीज की भाँति
ये उग आते हैं
रस्सियों की जकड़नों के बीच
अपना आसरा बना रखा है इन्होंने
अब तो इन रस्सियों से भी
डर लगने लगा है
कितने अरमानों से
एक खाट बुनी थी
और एक निश्चितंता की नींद
लेना चाहता था
पर अब तो लगता है
रस्सियां भी मेरी नहीं
खटमलों की ही सुनती हैं।
2. सुबह का अख़बार
आज सुबह का अख़बार देखा
वही मार-काट, हत्या और बलात्कार
रोज पढ़ता हूँ इन घटनाओं को
बस पात्रों के नाम बदल जाते हैं
क्या हो गया है इस समाज को
ये घटनायें उसे उद्वेलित नहीं करतीं
सिर्फ ख़बर बनकर रह जाती हैं
कोई नहीं सोचता कि यह घटना
उसके साथ भी हो सकती है
और लोग उसे अख़बारों में पढ़कर
चाय की चुस्कियाँ ले रहे होंगे।
3. डाकिया
छोड़ दिया है उसने
लोगों के जज्बातों को सुनना
लम्बी-लम्बी साढ़ियाँ चढ़ने के बाद
पत्र लेकर
झट से बंद कर
दिए गए
दरवाजों की आवाज
चोट करती है उसके दिल पर
चाहता तो है वह भी
कोई खुशी के दो पल उससे बाँटे
किसी का सुख-दु:ख वो बाँटे
पर उन्हें अपने से ही फुर्सत कहाँ?
समझ रखा है उन्होंने, उसे
डाक ढोने वाला हरकारा
नहीं चाहते वे उसे बताना
चिट्ठियों में छुपे गम
और खुशियों के राज
फिर वो परवाह क्यों करे?
वह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर
इन कागजी जज्बातों में से
अब लोग उतरकर चुनते हैं
अपनी-अपनी खुशियों
और गम के हिस्से
और कैद हो जाते हैं अपने में।
कृष्ण कुमार यादव
भारतीय डाक सेवा, निदेशक डाक सेवाएं
अंडमान व निकोबार द्वीप समूहए पोर्टब्लेयर-744101
Email: kkyadav.y@rediffmail.com
Blogs: http://kkyadav.blogspot.com
http://dakbabu.blogspot.com
तलाश....रिश्ते की -शशि कान्त सिंह
रिश्तों की अंगुली पकड़, मै धरा पर चलना शुरू किया,
रिश्तों के लिये, रिश्तों से जुड़ता चला गया,
रिश्तों के खातिर, मैं रिश्ता निभाना शुरू किया।
रिश्तों की भीड़ में, तलाशा एक परछायी को,
इतराया गर्व से खुद पर, पाकर उस रिश्तें से प्यार को,
लगा मिल गई है मंजिल मुझे, इस जीवन के मजधार में,
ऐसा लगने लगा, लोग जलने लगे है मेरे इस रिश्ते के नाम से।
समय के साथ, रिश्तों के मायने बदलते चले गये,
मेरी परछायी को वो अँधेरा बन, ढकते चले गये,
मुझे पता न चला, कब मेरी परछायी पीछे छुट गई,
मै तो वही खड़ा रहा, मगर वो रिश्ता मुझसे रूठ गई।
अगली सुबह,
उसी मोड़ पर मै, रिश्तों के अरमानो को निभाता रहा,
उन रिश्तों के बीच, अपनी उस परछायी को तलाशता रहा,
फिर से वो शाम आई,
मगर वो रिश्ता मुझे नजर ना आई....
वो रिश्ता मुझे नजर ना आई।
संपर्क पताः ग्राम + पोस्ट: मझारियां
जिला: बक्सर
बिहार-802116
shashikiit@gmail.com
मै न समझा -राजू "पंडित"
बेवजह मुस्कराने की,
देख मुझे ताक मुझे यु बेवजह
छुप जाने की..
ये शोकिया, ये बांकपन मेरे लिये पर
किसलिए ??
थी न कोई वजह जीने की पर किस लिए
हम जी लिए ??
मन में जो था मेरे या उसके फिर क्यों नही
वो कह दिया॥
बिन कोई वजह फिर क्यों जी रहे
है हम ये दुःख लिए..
आज आलम ये है के पवन चली तो
आहट हुई॥
यु लगा के मेरे दरवाजे फिर
कोई आ गया॥
राम सच्चा, रब सच्चा, या खुदा सच्चा
है यारो।
तुम बताओ क्यों बेवजह ऐसी
मेरी हालत हुई..
आज वो जहा भी होगी खुश होगी
मेरे खुदा,
समझ मेरे आता नही, बिन उसके क्यों
न खुश मै रह सका??
प्यार में बलिदान ही सबसे बड़ी
गाथा रही...
पर वो या मै बलिदान कौन है
दे रहा..??
अब ये वजह है के बेवजह की वजह
क्यों मै खोजता??
अब वो नही इस जीवन में क्यों नही
दिल मानता॥
मन है जोगी ए "राजू" अब तो तन जोगी
बन रहा ॥
क्या लाये थे जो खो दिया ये तो
हर कोई है जानता॥
संपर्क पताः
rajeevtripathi@southalltravel.com
तरसता बचपन... -शशिकान्त सिंह
अपने नौकरी के दौरान मुझे बाढ़ पीडितो के लिये कुछ काम करने का सुनहला मौका मिला। जिस सिलसिले में मै बिहार के खगड़िया जिले में कोसी पीड़ित लोगो के हित के कुछ काम किया। उसी दौरान मुझे वहा रह रहे लोगो कि गरीबी को नजदीक से देखने और महसूस करने का मौका मिला। जिले के राष्ट्रीय राज्यमार्ग -31 पर चल रहे ढाबों में काम कर रहे बच्चों कि जिंदगी से रूबरू होने का मौका मिला। इस रचना के जरिये मै उनके दुखों को समझने की कोशिश है........
ऐ माँ मेरा दोष क्या है
ऐ मेरे पापा मेरी गलती क्या है,
मै तेरे प्यारे आँचल की छावं के लिये तरसता हूँ,
मै पापा के पीठ पर चढ़ने को तरसता हूँ,
मुझे अपने उस ममता से जुदा करने की वजह क्या है?
मुझे अपने तक़दीर पर छोड़ने की वजह क्या है?
जिन हाथों को कागज और कलम की जरुरत थी
उन हाथों में आज लोगों का जूठा थाली है,
जिन गालों को मम्मी के चूमने की अरमान थी
उन गालों पर मालिक के पंजे की निशान है,
ऐ माँ ! क्या कभी सोचा है की मेरी हालत क्या है?
ऐ माँ ! क्या कभी सोचा है की तेरे इस लाल की दषा क्या है?
ऐ माँ ! मेरा भी मन पढने को करता है
पास होकर तेरे माथे को चूमने को जी चाहता है,
बोझ बन गयी इस जिंदगी को छोड़कर
इस दुनिया में कुछ बन कर दिखने को जी करता है
ऐ मुझे जीवन देने वाली माँ !
मेरी एक विनती सुनेगी क्या?
मुझे इस नरक भरे जीवन से बचाने आएगी क्या?
कभी सोचता हूँ कि तुने मुझे इस जहाँ में लाया क्यों?
बचपन में ही इन कन्धों पर इतना बोझ डाला क्यों?
पहले तो सोने से पहले तेरी याद में रोता भी था
आजकल तो जूठे मेज को साफ करने में ही सो जाता हूँ,
ऐ मेरी माँ ! मुझे एक बार फिर से लोरी सुनाओगी क्या?
ऐ माँ मुझे अपने आँचल में फिर से सुलाओगी क्या?
तेरा ये लाल दर्द से कराह रहा है इसे बचाने आवोगी क्या?
संपर्क पताः
At+Post: Majharia,
Dist: Buxar- 802116( Bihar)
Mob:9693161974
माँ . तुम उदास मत होना! - सुधा अरोड़ा
माँ ने उन दिनों कवितायेँ लिखीं ,
जब लड़कियों के
कविता लिखने का मतलब था
किसी के प्रेम में पड़ना और बिगड़ जाना ,
कॉलेज की कॉपियों के पन्नों के बीच छुपा कर रखती माँ
कि कोई पढ़ न ले उनकी इबारत
सहेज कर ले आयीं ससुराल
पर उन्हें पढ़ने की फिर
न फुर्सत मिली , न इजाज़त !
माँ ने जब सुना ,
उनकी शादी के लिए रिश्ता आया है ,
कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से
बी कॉम पास लड़के का ,
माँ ने कहा ,
मुझे नहीं करनी अंग्रेजी दां से शादी !
उसे हिंदी में लिखना पढना आना चाहिए !
नाना ने दादा तक पहुंचा दी बेटी की यह मांग
और पिता ने हिंदी में अपने
भावी ससुर को पत्र लिखा !
माँ ने पत्र पढ़ा तो चेहरा रक्ताभ हो आया
जैसे उनके पिता को नहीं ,
उनको लिखा गया हो प्रेमपत्र
शरमाते हुए माँ ने कहा --
'' इनकी हिंदी तो मुझसे भी अच्छी है ''
और कलकत्ता से लाहौर के बीच
रिश्ता तय हो गया !
शादी के तीन महीने बाद ही मैं माँ के पेट में थी ,
पिता कलकत्ता , माँ लाहौर में ,
जचगी के लिए गयीं थीं मायके !
खूब फुर्सत से लिखे दोनों
प्रेमियों ने हिंदी में प्रेम पत्र ,
बस , वे ही चंद महीने
जब माँ पिता अलग रहे ,
और उस अलगाव की साक्षी
उन खूबसूरत चिट्ठियों का पुलिंदा ,
जो लाल कपडे में एहतियात से रख कर
ऐसे सहेजा गया
जैसे गुरु ग्रन्थ साहब पर
लाल साटन की गोटेदार चादर डाली हो
हम दोनों बहनों ने उन्हें पढ़ पढ़ कर
हिंदी में लिखना सीखा !
शायद पड़ें हों अलमारी के
किसी कोने में आज भी !
उम्र के इस मोड़ पर भी .
पिता छूने नहीं देते जिसे .
पहरेदारी में लगे रहते हैं ,
बस , माँ जिंदा हैं उन्हीं इबारतों में ...
हम बच्चे तो
अपनी अपनी ज़िन्दगी से ही मोहलत नहीं पाते
कि माँ को एक दिन के लिए भी
जी भर कर याद कर सकें ! .....
उस माँ को --
जो एक रात भी पूरा सो नहीं पातीं थीं ,
सात बच्चों में से कोई न कोई हमेशा रहता बीमार ,
किसी को खांसी , सर्दी , बुखार ,
टायफ़ॉयड , मलेरिया , पीलिया
बच्चे की एक कराह पर
झट से उठ जातीं
सारी रात जगती सिरहाने ...
जिस दिन सब ठीक होते ,
घर में देसी घी की महक उठती ,
तंदूर के सतपुड़े परांठे ,
सूजी के हलवे में किशमिश बादाम डलते
घर में उत्सव का माहौल रचते !
दुपहर की फुर्सत में
खुद सिलती हमारे स्कूल के फ्रॉक ,
भाईओं के पायजामे ,
बचे हुए रंग बिरंगे कपड़ों का कांथा सिलकर
चादरों की बेरौनक सफेदी को ढक देतीं ,
क्रोशिये के कवर बिनतीं ,
और काढतीं
साड़ी का नौ गज बोर्डर !
पैसा पैसा जोड़ कर
खड़ा किया उन्होंने वह साम्राज्य ,
जो अब साम्राज्य भर ही रह गया
धन दौलत के ऐश्वर्य में नमी बिला गयी !
यूँ भी ईंट गारों के पक्के मकानों में अब
एयर कंडीशनर धुंआधार ठंडी हवा फेंकते हैं ,
उनमें वह खस की चिकों की सुगंध कहाँ !
' मेनलैंड चाईना ' में चार पांच हज़ार का
एक डिनर खाने वाले
कब माँ के तंदूरी सतपुड़े पराठों को याद करते हैं ,
जिनमें न जाने कितनी बार जली माँ की उँगलियाँ !
माँ ,
उँगलियाँ ही नहीं ,
बहुत कुछ जला तुम्हारे भीतर बाहर
पर कब की तुमने किसी से शिकायत ,
अब भी खुश हो न !
कि तुम्हारी खूबसूरत फ्रेम में जड़ी तस्वीर पर
महकते चन्दन के हार चढा
हम अपनी फ़र्ज़ अदायगी कर ही लेते हैं
तुम्हारे क़र्ज़ का बोझ उतार ही देते हैं !
माँ . तुम उदास मत होना ,
कि तुम्हारे लिए सिर्फ एक दिन रखा गया
जब तुम्हें याद किया जायेगा !
बस , यह मनाओ
कि बचा रहे सालों - साल
कम से कम यह एक दिन !