आज मैं हिमालय की कन्दराओँ में ,
जाना चाहता हुं,
दुनिया दारी की मोह- जाल
छौड़ जाना चाहता हुं,
यहाँ ना-ना प्रकार की
कृतिम सुख, खोखला दिखावा ,
किसी के दुःख में स्वभाविक दुःख,
किसी के खुशी में हँसने की
झूठी कोशिस
अब बर्दास्त नहीं होता ,
अपने स्वाभाविक कर्तब्यों को
छोड़ जाना चाहता हुं,
कृतिम सुख की और ,
हिमालय की कन्दराओ में ..
ये भी मिथ्या है जहा मैं हुं,
वो भी मिथ्या है
जहा जाना चाहता हुं,
वो कल्पना लोक जिसे देखा नहीं,
यह यथाथ लोक जहा मैं जी रहा ,
चलो इसी में, मैं कुछ करता हुं…नही करना होगा.
हिमालय की कन्दराओ में
मेरा जाना कुछ और नहीं
अपने कर्तब्यों को छोड ,
समाज का मूल्यवान योगदान को
लेकर कायरता पूर्वक भाग जाना होगा
हिमालय की कन्दराओ की जगह
मुझे इस समाज को
हिमालय सा उंचाई दे कर
कुछ पाना है,
मुझे कन्दराए नहीं उसकी
चोटी में स्थान पाना है।
Sikander kushwaha "आजाद सिकन्दर"
Student
XIDAS, Jabalpur
sikanderkush@gmail.com
http://www.azadsikander.blogspot.com/
M.No.- +919200734846
2 comments:
apki kavita bahut achhi hai.ummid hai ek aur achhi kavita jald padne ko milegi.
sikander ji aap to hum kushwaha's ke bhi sikander he. yaad aat ahe yeh gana ek sikander woh tha jisne julm se jita jahan, ek sikander aap he jisne pyaar se jita jahan. manoj kushwah, indore. see also www.kushwahsamaj.blogspot.com
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