रातों की सियाही जायेगी सूरज का उजाला उंडलेगा
वो सुबह कभी तो आयेगी झूमेगी हवा आज़ादी से
जब हौंठ तराने गायेंगे फिर मिलेंगे दिल बेताबी से
वो सुबह कभी तो आयेगी मन में न किसी का डर होगा
जब ज़ुबां खौफ़ न खायेगी मन चाहा एक डगर होगा
वो सुबह कभी तो आयेगी मर्द औरत में न फ़रक होगा
बहुओं को जलाने का जिस दिन दुनिया में नहीं करतब होगा
वो सुबह कभी तो आयेगी जब ख़ून की होली न होगी
बच्चे न भूखे सोयेंगे सपनों से नींद भरी होगी
वो सुबह कभी तो आयेगी अमरीका जब पछतायेगा
मिट्टी के घरों पर अम्बर से बम गोले न बरसायेगा
वो सुबह कभी तो आयेगी होगा जब राज गरीबों का
शाहों के महल ढह जायेंगे मुफ़्ती का नहीं होगा फ़तवा
वो सुबह कभी तो आयेगी जब एक ख़ुदा सब का होगा
न यीशु, राम और अल्लाह से लड़ने का सबब पैदा होगा
वो सुबह कभी तो आयेगी सब मिल कर रहना सीखेंगे
सब एक खु़दा के बंदे हैं ये धर्म निभाना सीखेंगे.
महेश गुप्त ख़लिश
Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Health and Medico-legal Consultant
१ अप्रेल २००३
[ईराक युद्ध के तेरहवें दिन लिखी गयी कविता. युद्ध २० मार्च को आरम्भ हुआ था]
No comments:
Post a Comment