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बुझा सकता नहीं - प्रकाश यादव "निर्भीक"

हँसे हो तुम देख मेरी बदकिस्मती को,
तेरी यह हँसी ही मेरी किस्मत हँसा देगी;
मुड़ गए तुम देख मेरा पतझड़ जीवन को,
सोचा न कि इसमें भी बहार आयेगी।

अरे काँटों में रह रहा हूँ तो क्या हुआ,
कभी इस चमन में भी गुल खिलेगें;
आओगे मिलने तुम एक अफसोस के साथ,
क्या हम फिर पहले की तरह मिलेगें।

अरे टुट जाते हैं जो धागे एक बार भी,
जुट पाते नहीं सपाट वे फिर कभी;
अगर टुटना ही था इस दिल से भी,
तो जुटे क्यों थे इस दिल से कभी।

बदल गए तुम इतनी जल्दी कैसे,
मुझे तुमसे यह उम्मीद न थी;
तुममें यह अहं आ गया कबसे,
जबकि तुझमें यह सब बात न थी।

रह गया अकेला मैं तो क्या हुआ,
आना जाना है अकेला सभी को यहाँ;
मगर अजीज दोस्त वह दोस्त है,
जो छोडता नहीं कभी दोस्त का जहाँ।

कमजोर समझ बैठा शायद तुम,
इस टिमटिमाते मध्दिम प्रकाश को;
मगर लाख आँधी आये जीवन में,
बुझा सकता नहीं "निर्भीक" प्रकाश को।


प्रकाश यादव "निर्भीक"

अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in

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