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श्री रंग की दो कविताऎं


1. पगली


सुबह, गली के लड़के
ढेला मार रहे थे
चिढ़ा रहे थे
वह भी खदेड़ रही थी
बड़बड़ाती.......
दोपहर में,
घूम रही थी बाजार में,
मांग रही थी कुछ खाने को
दुत्तकार रहे थे उसे सभ्य लोग।
शाम ढले,
वह पार्क के बेंच पर बैठी
कुछ खा रही थी चुपचाप
वहाँ उसे कोई ढेला नहीं मार रहा था
दुत्कार नहीं रहा था कोई
कोई नहीं कर रहा था घिन.....
रात गये,
आग की तरह, तापी जा रही थी पगली।

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2. पिता, रोटी और बच्चे


दिन भर हाथ पैर मारते पिता
बोलते झूठ सच किसी तरह करते
पेट भरने का प्रबन्ध.....
देर रात घर लौटने पर माँ
नोचने लगती पिता का मूँह
वरक्कत नहीं होता पिता की कमाई में
परई भररहती दिन भर की
परई भर ही रहती
देर रात तक खटने पर
अपने करम पर रोती माँ
पर रो नहीं पाते खुलकर पिता
सारा गुस्सा उतारते माँ पर
माँ खीज उतारती बच्चों पर...
दिन रात खटे पिता खटती माँ
किस्मत को कोसते
देर रात गये चूल्हा जलाती मँ
बनाती जो मिला होता सीधा-पिसान
डरे सहमे चुपचाप का लेते जो मिलता बच्चे
खाली आतों में पानी भर कर सो जाती माँ
कितनी बार.....




9/12 EWS, कबीर मंदिर रोड,
प्रीतम नगर, इलाहाबाद
साभार:'सम्यक'

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