आसमान से ऊँचे
आसमान से ऊँचे हरदम, और सागर से गहरे रिश्ते
मिट जाते दिल के अंधेरे होते हैं बड़े सुनहरे रिश्ते
खून के रिश्तों से बढ़कर, होते है दिल के गहरे रिश्ते
मेंहदी रिश्ते, पायल रिश्ते, और होते हैं गजरे रिश्ते
रिश्तों के निगहबान है रिश्ते,रिश्तों पे होते पहरे रिश्ते
गांव छोटे पर गहरे रिश्ते, शहर बड़ा और छोटे रिश्ते
मेरा बचपन
कोई खिलौना सा टूट गया है मेरा बचपन
टूटे खिलोने सा कहीं छुट गया है मेरा बचपन
कितना खुश था, कितना सुख था बचपन की उन बातों में
समय का जालिम चेहरा आकर लूट गया मेरा बचपन
हंसता खिलता सबसे मिलता, एक जिद्दी बच्चे जैसा
जाने किस की नज़र लगी और रूठ गया मेरा बचपन
गुल्ली डंडा, गोली कंचा, डोर पतंग सी उमंग लिए
रंग बिरंगे गुब्बारों सा था, क्यूँ फूट गया मेरा बचपन
- सुरेन्द्र कुमार'अभिन्न'
शिक्षा ..अंग्रेजी भाषा और साहित्य में M.A. व M.Phil.
पर्यटन प्रबंधन में स्नातकोत्तर (M.T.A.)
स्थान: अम्बाला
व्यवसाय: हरियाणा सरकार के आबकारी व कराधान विभाग में
आबकारी व कराधान अधिकारी .. एवं .. कर निर्धारण प्राधिकारी
के पद पर सेवारत
E-Mail: sure_234@hotmail.com
5 comments:
ye gazal see dikhtee hai..par wastav men hai naheen....chhapne se pahle bahar ka khyaal bhee rakh liyaa hotaa..vartanee kee ashudhiyan bhee dekhlee hoteen..sahity ke thekedaar ban-ne kee hod me..itnaa to kar hee lenaachahiye..ise sujhaabv ya taang khichaai jis bhee roop men lena chahen le sakte hain..
आदरणीय दुष्यंत जी,
नमस्कार!
आपकी टिप्पणी पर मुझे इतना ही कहना है कि हम किसी ठेकेदार बनने की होड़ में नही लगें हैं। हिन्दी की भाषा, उ.पी, बिहार, राजस्थान, बंगाल में, या गुजरात - राजस्थान में थोड़ी बदल सी जाती है। हमें गर्व होना चाहिये कि परन्तु साहित्य के कुछ आप जैसे पढ़े-लिखे मूर्ख ही इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर सकते हैं। - शम्भु चौधरी
आदरणीय शम्भू चौधरी जी ,
आपने अपनी पत्रिका के माध्यम से हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार और प्रसार का जो बीडा उठाया है उसके लिए आपको अनेको शुभकामनायें.
मै कोई गजलकार या विशुद्ध कवि नहीं हूँ मात्र एक पाठक हूँ और हर अच्छे साहित्य का कद्रदान भी ,कभी कभी जो मन में आता है उसे शब्दों का रूप देदेता हूँ,मै आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ की हमें अपनी हिंदी भाषा पर गर्व होना चाहिए.जिन महाशय ने दुष्यंत जैसे महान साहित्यकार और ज़माने का दर्द झेलने वाले ग़ज़लकार के नाम से
अपने कमेन्ट में जो भी विचार व्यक्त किये है उन्होंने रचना में तकनीकी कमियाँ तो देखी है उसकी आत्मा तक जाने में वे असमर्थ है,वे भावना को समझने में असमर्थ है ,हिंदी कविता के इतिहास पर अगर गौर करें तो कविता ने अपना सफ़र कहाँ से शुरू किया और आज कहाँ पर आकर किस किस रूप में फल फूल रही है ,साहित्य में नित नए नए प्रयोग होने चाहियें ,कविता अकविता भी हो रही है कभी यह गद्य का रूप लेती है तो कभी तुकांत का.साहित्य दीवारों में बंधने के लिए नहीहोता यह तो पुलों की तरह होता है,आलोचना भी कला का एक आयाम है लेकिन आलोचक को अपने अहम् से बाहर आकर विशुद्ध साहित्यिक सोच का होना चाहिए टांग खिचाई जैसी घटिया सोच का नहीं . खैर तारीफ के लिए तो लिखना भी नहीं चाहिए ,लिखने का उद्देश्य साहित्यिक हो या वैचारिक .
धन्यवाद
......अभिन्न
आदरणीय सुरेन्द्र जी
नमस्कार।
आदमी भले ही कितना बड़ा हो उसे अपनी भाषा पर तो नियंत्रण रखना ही चाहिये। हमने दुष्यन्त जी के परिचय को भी देखा है। इनके परिचय में अ सफलता के चिन्ह ज्यादा नज़र आयें। इनके विचारों को मैं यहाँ से हटा भी सकता था। पर मैं चाहता हूँ कि इसी बहाने हमें कुछ नया सीखने का अवसर भी मिलेगा। मेरे मित्र श्री प्रकाश चण्डालिया जी कहा करते हैं - " कि संपादक की कुर्सी सीखने के लिये होती है। '" जी हम तो बस इस विचार को मानने वाले हैं। वैसे कुछ उर्दू के गजलकार उर्दू को हिन्दी कर इसे ही हिन्दी मानते हैं , जैसा कि दुष्यंत जी ने लिखा है। हम इनको दोष नहीं देते , हमें अपने काम को नया जामा पहनना ही होगा, ताकि ऐसे हिन्दी के दुश्मनों को दरकिनार किया जा सके।
आपकी रचना श्रेष्ठ रचना है । बस आप लिखते रहें। मेरी शुभकामना आपके साथ है।
शम्भु चौधरी, संपादक
मेरे विचार से लोगों को कहने का भाव देखना चाहिए, क्योंकि ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिनकी कविता या गजल में तुकबंदी नहीं हो उन्हें अपनी बात रखने का अवसर व अधिकार न मिले.
हाँ, टिपण्णी को हटाना भी उचित नहीं है, क्योंकि उन्हें भी सिखने का मौका मिलना चाहिए. टिपण्णी को सिर्फ हटा देने व कुछ न कहने से उन्हें सिखने का मौका नहीं मिलेगा. ........... हो सकता है इसी टिपण्णी के बहस से उन्हें कुछ सिखने का मौका मिले. ...............
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