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मुझे अब रौशनी दिखने लगी -अमित चित्रांशी

परिचय:


श्री अमित चित्रांशी

श्री अमित चित्रांशी जिन्हें रंजन गोरखपुरी के नाम से भी जाना जाता है। आप पेशे से सिविल इंजिनियर हैं। 17 जन्वरी 1983 को जन्मे इस शायर को इनके ख्यालों की रवानगी, जोशीले और संवेदनशील लेखन से इस भीड़ में बिल्कुल अलग पहचाना जा सकता है। कद-ए-'फ़िराक' से रौशन है शहर-ए-गोरखपुर, खुदा करीम है 'रंजन' से भी गुमां होगा... अगर ये कहें कि जगजीत सिंह साहब और चित्रा जी की गज़ल गायकी ने ज़हन के शायर को जन्म दिया तो को‌ई अतिशयोक्ती नही होगी! लिखना जैसे आदत सी बन ग‌ई है! एक दफ़े इन्होनें लिखा था:

बेज़ौक और बेखयाल जी रहे थे हम, मासूमियत की दीद ने शायर बना दिया...

लखन‌ऊ में अदब के जानकारों से उर्दू अदब, उस्लूब और अरूज़ की बेहद मुफ़ीद जानकारियां हासिल की और ये सफ़र आज मुसलसल गज़लें और नज़्मों तक पहुंच गया है! सफ़र बादस्तूर जारी है और बीते सफ़र की यादों का गुलदस्ता है 'दयार-ए-रंजन'...


Amit Ranjan Chitranshi
5/160 Vinay Khand Gomti Nagar
Lucknow-226010

http://ranjangorakhpuri.blogspot.com/

1. मुझे अब रौशनी दिखने लगी...

मुझे अब रौशनी दिखने लगी है,
धुएं के बीच आखिर लौ जली है

यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है

सम्भल जाओ ज़रा अब हुक्मरानों,
यहां आवाम की ताकत बडी है

हिला पाओगे क्या जज़्बे को इसके,
ये मेरी जान मेरी मुम्बई है

घिरा फिर मुल्क जंगी बादलों से,
कि "रंजन" घर में कुछ राशन नही है

2. कुछ शेर माँ के नाम...


१)
मेरे अंजाम के रस्ते भी मुझको राह देते हैं,
मेरा आगाज़ होता है मेरी मां की दुआ लेकर

२)
मै मां के इस हुनर पे आज भी हैरान होता हूं,
मेरे आंसू टपकते हैं उसी की आंख से होक़र

३)
मैं जब भी ज़िन्दगी की दौड में कुछ टूट जाता हूं,
ये आंखें भीग जाती हैं, मुझे मां याद आती है

४)
मुझे न इश्क न उल्फ़त की चाह है या रब,
मैं खुश वहीं हूं जहां मां सा प्यार मिलता है

५)
कोई तन्हा सा कतरा मुश्किलों से रोक रखा था,
फ़कत मां के तसव्वुर ने मगर बरसात कर डाली

६ )
मेरी शैतानियो के बाद मां अक्सर ही गुस्से में,
मुझे तो मारती थप्पड मगर रोती रही दिनभर

पर एक बार कलम ने ये भी लिखा दिया

7)
शहर के तौर हैं मुमकिन है खलल पड़ती हो,
वो माँ को गाँव में लाचार छोड़ आया है...

3. पौधे से जुदा होकर...



वो यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,
सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर

मेरी तकलीफ़ का एहसास उसको है तभी शायद,
उडा जाता है अश्कों को फ़िज़ाओं में सबा होकर

फ़कत पल भर ही देखा और नज़रें फेर लीं गोया,
बची हों कुछ अदाएं बेवफ़ाई में वफ़ा होकर

यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,
कि पी रखी है काले बादलों ने गमज़दा होकर

बताया था मुझे ये राज़ कल शब एक वाइज़ ने,
'अगर मैखाने में जाओ तो आना पारसा होकर'

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर

चुभन होती है अब दोनो तरफ़ कांटों के तारों से,
कि मुद्दत हो गई है सरहदों को यूं खफ़ा होकर

बचा लेना मुझे उन पत्थरों की चोट से "रंजन".
मैं जीना चाहता हूं सिर्फ़ तेरा आईना होकर

2 comments:

श्रद्धा जैन said...

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर


Amit ji ko padhna naseeb ki baat hai
ye jitne achhe gazalkaar hai
utne hi achhe insana bhi hai

संत शर्मा said...

मै मां के इस हुनर पे आज भी हैरान होता हूं,
मेरे आंसू टपकते हैं उसी की आंख से होक़र

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

Bahut khubsurat labjo me aapne mata - pita ke prati apni bhawana ko vyaqt kiya hai, its nice to read you.