(पाकुड़-साहेबगंज इलाकों की पहाड़ी जिंदगी से रू-ब-रू होकर.....,)
दिन समेटकर उतरता है थका-माँदा बूढ़ा सूरज
पहाड़ के पीछे
अपने साथ वन-प्रांतरों की निःशेष होती गाथाएँ लिये
तमतमायी उसके आँखों की ललाई पसर जाती है
जंगलों से गुम हो रही हरियाली तक
मृतप्राय नदियों में फैल रहे रेतीले दयार तक
विलुप्त हो रहे पंछियों के उजड़ रहे अंतिम नीड़ तक।
ऊँची-नीची पगडंडियों पर कुलेलती
लौटती है घर पहाड़न
टोकरीभर महुआ
दिन की थकान
होठों पर वीरानियों से सनी कोई विदागीत लिये।
उबड़-खाबड़ जंगल-झाड़ के रस्ते लौट आते हैं
बैल-बकरी, सुअर, कुत्ते, गायें भी दालान में
साँझ की उबासी लिये।
साथ लौटता है पहाड़िया बगाल
निठल्ला अपने सिर पर ढेर सा आसमान
और झोलीभर सपने लिये
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(२)
घिर जाती है साँझ और गहरी
अंधरे के दस्तक के साथ ही
घर-ओसारे में उतर आते हैं महाजन
खटिया पर बैठ देर तक
गोल-गोल बतियाते हैं पहाड़ियों से
हँसी-ठिठोली करते घूरते हैं पहाड़नों को
फिर खोलते हैं भूतैल खाते-बहियाँ अपनी
और भुखमरी भरे जेठ में लिये गये उधार पर
बेतहाशा बढ़ रहे सूद का हिसाब पढ़ते हैं
दूध, महुआ, धान, बरबट्टी और बूटियों के दाम से
लेकर पिछली जंगल-कटनी तक की मजूरी घटाकर भी
कई माल-मवेशी बेच-बीकन कर भी
जब उरिन नहीं हो पाता पहाड़िया तो
गिरवी रख लते हैं महाजन
पहाड़न के चांदी के जेवर, हंसुली, कर्णफूल, बाले वगैरह....।
तेज उसाँसें भरता अपने कलेजे में पहाड़िया
टका देता है अपना माथा महाजन के पैर पर।
तब महाजन देते हैं भरोसा
कोसते हैं निर्मोही समय को
वनदेवता से करते हैं कोप बरजने की दिखावटी प्रार्थनाएँ
अपनेपन का कराते हैं बोध पहाड़िया को
गलबहियाँ डाले महाजन साथ मिलकर दुःख बांटने का
और संग-संग पीते हैं 'हंडिया-दारू' भी
भात के हंडियों में सीझने तक,
फिर देते हैं, एक जरूरी सुझाव जल्दी उरिन होने का,
जंगल कटाई का -
फफक-फफक असहमति में सिर हिलाता रो पड़ता है पहाड़िया
पहाड़न गुस्से से लाल हो बिफरती है
गरियाती है निगोड़े महाजन को
करमजले अपने मरद को भी
पर बेबस पहाड़िया
निकल पड़ता है माँझी-थान में खायी कसमें तोड़
हाथ में टांगी, आरा लिये निविड़ रात्रि में
भोजन-भात कर, गिदरा-गिदरी को सोता छोड़
पहाड़न से झगड़ कर
महाजन के साथ बीहड़ जंगल ।
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(३)
रातभर दुःख में कसमसाती
अपने भीतर सपने टूटते देखती है पहाड़न
रात गिनती
मन की परत-परत गांठें खोल पढ़ती है पहाड़न
नशे में धुत्त पहाड़िया रातभर
पेड़ों के सीने पर चलाता है आरा, टांगी
और काटता रहता है अपने दुःखों के जंगल।
बनमुरगे की कुट्टियाँ नोंचते
रहरह कर दारू, बीड़ी पीते
जगे रहते हैं संग-संग धींगड़े महाजन भी रातभर।
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(४)
शीशम, सागवान, साल की सिल्लियाँ लादे
जंगल से तराई की ओर बैलगाड़ियाँ पर कराते महाजन,
बिना दातुन-पानी किये, बासी भात और अपनी गिदरे
पीठ पर गठियाये महुआ बीनने पहाड़न,
मवेशियों को हाँक लगाता बगाल पहाड़िया
कब के उतर चुके होते हैं पहाड़ी ढलान !
बहुत सुबह, सूरज के उठान के काफी पेश्तर ही !!
खाली रहती है बहुधा पहाड़ी बस्तियाँ दिनभर
बचे रहते हैं पहाड़ पर सिर्फ़
सुनसान माँझी-थान में पहाड़ अगोरते वनदेवता
उधर पूरब में जलता-भुनता सूरज
और गेहों में लाचार कई वृद्ध-वृद्धाएँ ।
सुशील कुमार
जन्म : १३ सितम्बर, १९६४, पटना सिटी में, किंतु पिछले तेईस वर्षों से दुमका (झारखण्ड) में निवास। शिक्षा : बी०ए०, बी०एड० (पटना विश्वविद्यालय) सम्प्रति : घर के हालात ठीक नहीं होने के कारण पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की - १९९६ में लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में संप्रति +२ जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर प्रकाशन : हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने में गहरी रुचि. कविताएँ कई प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित
E-Mail:sk.dumka@gmail.com
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