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चूल्हा घर का जलता देखा - शम्भु चौधरी



घर का चूल्हा जलता देखा
चूल्हे में लकड़ी जलती देखी
उस पर जलती हाँड़ी देखी,
हाँड़ी में पकते चावल देखे,
फिर भी प्राणी मरते देखे।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


खेतों में हरियाली देखी
घर में आती खुशहाली देखी
बच्चों की मुस्कान को देखा,
मन में कोलाहल सा देखा,
जब मंडी में भाव को देखा
श्रम सारा पानी सा देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


घर का चूल्हा जलता देखा
बर्तन-भाँडा बिकता देखा
हाथ का कंगना बिकता देखा,
बिकती इज्जत को भी देखा
खेत-खलिहान को बिकता देखा
हल-जोड़ों को बिकता देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


बैल को जोता, खुद को जोता,
बच्चों और परिवार को जोता
व्याज के बढ़ते बोझ को जोता
सरकार को जोता, फसल को जोता,
घरबार- परिवार को जोता
दरबारी-सरपंच को जोता,


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


मुर्दों की संसद को देखा
बन किसान मौज करते देखा,
घर का चूल्हा जलता देखा
बेच-बेच ऋण चुकता देखा
फिर किसान को मरता देखा
फांसी पर लटकता देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।

साहित्य शिल्पी पर टिप्पणियाँ



-शम्भु चौधरी, एफ.डी.-453/2,
साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106, मोबाइल: 0-9831082737.
16 नवम्बर'2008

1 comment:

महेश कुमार वर्मा : Mahesh Kumar Verma said...

बैल को जोता, खुद को जोता,
बच्चों और परिवार को जोता
ब्याज का बढ़ता बोझ को जोता
सरकार को जोता, फसल को जोता,
घरबार- परिवार को जोता
दरबारी-सरपंच को जोता,



हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


अच्छी रचना
धन्यवाद.