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पूजा शर्मा की तीन कविता

पापा                                          
काश  मैं तेरी गुड़िया ही  बनी रह जाती     
ना बढ़ता  कद  मेरा  
ना  कम  होती  किलकारियां    
पूरी  दुनिया  तेरी बाहों में  ही सिमट  जाती । 
            गुड्डे  गुड्डियों  की शादियों  के खेल  ही होते,  
            ना बड़ी  होती ना  दुल्हन  बन चली जाती                  
            रोज  नया  खेल होता खुशियों   का           
            मेल  होता  जो कड़कती  बिजली  तो 
            तेरे पैरो से लिपट  जाती ।                 
हर  डर  तुझको  देख  कर दूर  हो जाता   
तेरी गोद में सर  रख  सब  कुछ  मिल  जाता 
काश  एक पल  फिर वो घडी मिल  पाती
पर                                             
क्यों काटते  हो पर मेरे 
अभी -अभी तो खोले  है 
उड़ना  सीखा  है नितम्भ आकाश  में                    
मुझे उड़ने  दो                              
महत्वकांछाओ  के पर फैलाने  दो  
सफलता  की उचाईया  अब  चढ़ने  दो                                     
विचरन करने  दो  आशाओं की  भोर  में         
दर्द  की शामो  को अब ढलने  दो   ।                             


            त्याग  त्तपस्या सहनशक्ति  के बहुत  से उदाहरण बनी  
            अब मेरी उप्लब्धियो  के नए आयाम  मुझे  गढ़ने दो                                     
            अब ना बढ़ते   कदमो  को रोकना   
            ना स्त्री  पुरुष  की संवेदना  से टोकना    
            बस  समानता  का दे अधिकार  जो चाहू वो  करने दो         
            मुझे उड़ने  दो । 



गरीब                                                        
एक  गरीब की ये कहानी  है  बड़ी बेबस   
मजबूर  सी  जिंदगानी   है । 
हाथो में निवाला  है दो खाने  वाले  चार   
कसूर  किसका  है देना  वाला  दातार                               
दो हाथ तो दे दिए   मुसीबते  हजार   
गरीबो  की सुनता  है कौन  लगता  है बाजार            
जिसकी  बोली  लगती  जितनी  उसका  है संसार   
दान पुन्य   का गोरख  धंधा  और  गरीबो पर अत्याचार                                 
सूट बूट पहन  खुर्सी  पर बैठे   
बूढ़ा  चपरासी  चाय बनाता है  ।  
जो  काँपा  हाथ जरा  सा  बाबू  से गाली   खाता  है  
अमीर  का कुत्ता  सुस्त  है देखो   
गरीब का बच्चा  रोया  जाता है  
घुड़की  सुन   कम्पाउंडर  की 
गरीब डर से लाइन  लगाता है  
कुत्ते  के साथ  देखो  डॉक्टर एमेर्जेंसी  में जाता है           
पैसे  की खींचातानी  में इंसानियत  मरती  है  । 
अंत  में कह लो  जो भी होता है ,
वही  जो अमीरी   कहती है । 


￰माँ                          
कब आसान  हुए  रास्ते उनका  
हाथ थामे  हुए  कब आयी  सुनहरी  सुबह  
उनके  साये   तले  दरख  गिरते  रहे  
हम  साथ चलते  रहे  कभी उची  तो कभी नीची  डगर  
हम भी बनते  बिगड़ते  रहे            
उनके साये तले यूँ महफूज  हम  
जैसे   तपती  धूप में आचल   कोई ।     
जब भी डबडबाई  आँखे  माजी  की 
ओट से हँसता कोई साया  पहचाना  सा  
वो खनक  भी कुछ सुनी  हुई,  
जैसे बचपन की वो लोरी  गाता कोई  ।            
ठंडा हाथ तेरा    
पेसानी पे रखा  हुआ   
या  मेरी परेशानियों  को  
 निगलता  गया  हो कोई । 

पापा - पूजा शर्मा, कोलकाता

पापा मैं तेरी  काँच की गुड़िया  
सम्भालो  मुझे नहीं  तो टूट  जाऊँगी 
क्यों  लड़ाते हो  लाड   इतना  
छोड़  कर  तुमको  एक  दिन  चली  जाऊँगी  

बना  के आँखो का  नूर  
पलकों  पर  सजाते  हो मुझे   
जब  आएगा  सैलाब  जज्बातो  का 
तो आँशु बन  के बाह  जाऊँगी 

जो  गिरती  हूँ   तो थाम  लेते  हो 
जो कहती  हूँ  वो मान  लेते हो        
यूँ रखोगे  जो हथेलियों  पर  तो 
हाथ  छुड़ा  के ये कैसे  जाऊँगी   

बत्ती  मेरे कमरे  की जलती  है... 
तो पापा मेरे सो नहीं पाते.... 
बाते  अपने  मन  की.... 
मुझसे  वो कह  नहीं पाते.... 
आँखे कहती है उनकी   
बचपन  को यही   छोड़ जाऊँगी ।              


आ जाती  है वो घडी  भी  
जब बेटी  को जाना  होता  है 
नए  रिश्तो से रिश्ता  निभाना  होता है     
टूटते  बिखरते  मैं संभल  जाउंगी   पापा , 
मैं आपका  मान स्वाभिमान  बन 
उस घर  जाऊँगी उस  घर जाऊँगी 
पूजा शर्मा, कोलकाता

जागो भारत जागो -शम्भु चौधरी

जागो भारत जागो !
इंकलाब नया लाओ भारत।
जागो भारत जागो !

बन के पूजारी लोकतंत्र ये
लूट रहे मंदिर सब आज,
मिटा नहीं अस्तित्व देश का
नंगे बन फिरते सब साथ।

जागो भारत जागो !
इंकलाब नया लाओ भारत।
जागो भारत जागो !

अंधी - लंगड़ी - लूली हो गयी
देश की संसद, गूँगी हो गयी,
भारत का स्वाभीमान खो गया,
संसद का ईमान खो गया ।

जागो भारत जागो !
इंकलाब नया लाओ भारत।
जागो भारत जागो !

सोने की चिड़ियां भूखी-प्यासी,
दाने-दाने को तरस है खाती,
सांप्रदायिकता की आड़ में अब
तू-तू.....मैं-मैं गीत ये गाती ।

जागो भारत जागो !
इंकलाब नया लाओ भारत।
जागो भारत जागो !

इनके इरादे नेक नहीं अब,
लगा मुखौटे एक हो गये;
सत्ता के मद में
सबके सब अंधे जो हो गये।

खेत बेच दे, देश बेच दे,
सत्ता की जागीर बेच दे,
माँ का आँचल, दूध बेच दे,
बलदानी इतिहास बेच दे,
भगत सिंह का नाम बेच दे,
और बेच दे भारत को।

जागो भारत जागो !
इंकलाब नया लाओ भारत।
जागो भारत जागो !

अब अपनी ताकत पहचानो,
वोटों की ताकत को जानो,
घर-घर अलख जगा दो आज,
भ्रष्टाचार मिटा दो आज।

जागो भारत जागो !
इंकलाब नया लाओ भारत।
जागो भारत जागो !

द्वाराः शम्भु चौधरी, कोलकाता-700106

बदले हुए से लोग - डॉ रविन्द्र कुमार

बदले हुए से लोग

कभी ये बदली सी धरती,

तो कभी बदला सा आसमान देखता हूं।
वफा से कभी जो रहती थी गुलजार,
उन गलियों को मैं आज सूनसान देखता हूं।
खुदा से तो क्या खुद से दूर,
हर एक इन्सान देखता हूं।
कल तक थे जो घर,
आज मैं वो पत्थर के मकान देखता हूं।
जीतें थे जिनके दिलों में दोस्ती के कारवां,
आज मैं उन्ही के दिलों मे क्यूं समसान देख्ता हूं।
नन्हें से कदमों से चलते थे, दौडते थे हम,
उन राहों पर मैं मिटे से कुछ निशान देखता हूं।
बदल जाते है क्यूं लोग बस जमाने की रददो बदल में,
अधूरे उन्हीं के फिर भी मैं अरमान देखता हूं।
रोकता हूं, मैं जितना छलक ही आते है अश्क,
सपनो को जब हालातों से परेशान देखता हूं।

- डॉ रविन्द्र कुमार
ग्राम-वेदखेडी, पोस्ट- झिंझाना,
जिला- प्रबुद्ध नगर (उत्तर प्रदेश)

महंगाई देवी - डॉ रविन्द्र कुमार

हे महंगाई देवी तेरी महिमा है न्यारी,
तू है जनता पे आफत भारी।
किसी ने कहा है तुझको डायन,
किसी ने बोला है तुझको महामारी।
तेरे कारण उठा है जनता का चांटा,
सकते मे है अंबानी, बिरला व टाटा।
तेरी वजह से बिके है बंगले,
तूने ही गरीब की चढ्ढी उतारी।
तेरे कारण हुये है अनशन,
हुआ है परेशान जन जन।
तेरी वजह से बढे है कर्ज,
छूट गये पीछे कई फर्ज।
हे देवी सून ले तू,
ये करुण विनती हमारी।
सबको मिले दो वक्त की रोटी,
ना मुरझाये किसी झोंपडी की फुलवारी।
हे मंहगाई देवी बस सून ले तू,
ये इतनी विनती हमारी।


ग्राम-वेदखेडी, पोस्ट- झिंझाना,
जिला- प्रबुद्ध नगर (उत्तर प्रदेश)

ताजा अभी बनाया हूँ!

- डॉ॰ अजय नन्दन 'अजेय'



एक कविता मेरी सुन लो, ताजा अभी बनाया हूँ!
आदर्श श्रोता देख आपको, अभी जेहन में आया हूँ।
चैराहो सड़क पर गाता हूँ,
कुछ न कुछ सुनाता हूँ।
सुनता नहीं यदि कोई,
तो चाय भी उसे पिलाता हूँ।
‘‘वंस मोर’’ की आवाज से, मेरा मन हर्षाया है।
एक कविता मेरी सुन लो....2
मेरी अपनी ही रचना है,
कोई नकल नहीं भाई,
यह तो कॉपी राइट है मेरी,
पकड़ में कभी नहीं आयी।
इस एक कविता को मैंने, दर्जनों बार भुनाया है।

एक कविता मेरी सुन लो....2
मुझे सुनने से मतलब हैं
चाहे हो कोई भी छंद
अर्थ भले कुछ भी निकले,
चाहे दिमाग हो जाए बन्द,
हो मुक्त छंद या फिर तुकांत, मैंने तो सभी गाया है।
एक कविता मेरी सुन लो....2
उपाधिया तो मिली नहीं,
पन्ने किए बहुत काले।
हुआ घर के कामो से बेखबर..
तो बीबी ने भी सुना डाले।
ना घर का रहा ना घाट का, बस आपलोग का साया है।
एक कविता मेरी सुन लो....2
निरीह प्राणी न समझो कवि को,
वह तो राह बताता है।
घर को छोड़ सारी दुनिया को,
नसीहते याद कराता है।
शांति-क्रांति दोनों स्थितियों में बड़ा रोल निभाया है।
एक कविता मेरी सुन लो, ताजा अभी बनाया हूँ!
आदर्श श्रोता देख आपको, अभी जेहन में आया हूँ।

संपर्क का पताः
डॉ॰ अजय नन्दन ‘अजेय’
R.B - 149, RBI Colony,
R.k.Puram, New Delhi - 110022

पानी- जय कुमार रूसवा

मैं अपने दोस्त के साथ जा रहा था
उसकी सुन रहा था अपनी सुना रहा था
चलते - चलते मिठाई की दुकान आई
देखते ही दोस्त ने प्रेम की गंगा बहाई
और पूछा - रूसवाजी रसगुल्ले खाओगे?
मैंने कहा - तुम खिलाओगे?
वो बोला - खिलाऊंगा, मैने कहा - खाऊंगा
अच्छी-सी कुर्सी देख
हम दोनों ने आसन जमाए
पंद्रह - पंद्रह रसगुल्ले खाए
उसके बाद दोस्त बोला -
मैं जरा पानी पीकर आता हूँ
तुम्हारे लिए लाता हूँ
वह गया - लौटकर ही नहीं आया
120 रूपयों का बिल मैंने चुकाया
कुछ दिनों बाद -
हम दोनों फिर साथ-साथ जा रहे थे
सुन रहे थे, सुना रहे थे
चलते - चलते
मिठाई की दूसरी दुकान आई
देखते ही दोस्त नें
प्रेम की गंगा-यमुना दोनों बहाई
और पूछा - रूसवा जी पेड़े खाओगे?
मैंने कहा - खाऊंगा
लेकिन इस बार, पानी पीने मैं जाऊंगा
-जय कुमार रूसवा, कोलकता

श्री नरेश अग्रवाल की कुछ नई कविताएं-



1. पगडंडी 2. कैसे चुका पायेंगे तुम्हारा ऋण 3. यह लालटेन 4. बैण्डबाजे वाले 5. हर आने वाली मुसीबत 6. टोपी 7.हक 8. खुशियां 9. पूजा के बाद 10. अनुभूतियां 11. मनाली में 12. यहाँ की दुनिया 13. किताब 14. मैं सोचता हूँ 15. तुम्हारे न रहने पर 16. नये घर में प्रवेश 17. दुनिया के सारे कुएँ 18. पार्क में एक दिन 9. डर पैदा करना 20. चित्रकार 21. विज्ञापन 22. नियंत्रण


1. पगडंडी


जहां से सडक़ खत्म होती है
वहां से शुरू होता है
यह संकरा रास्ता
बना है जो कई वर्षों में
पॉंवों की ठोकरें खाने के बाद,
इस पर घास नहीं उगती
न ही होते हैं लैम्पपोस्ट
सिर्फ भरी होती है खुशियॉं
लोगों के घर लौटने की !


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2. कैसे चुका पायेंगे तुम्हारा ऋण


रात जिसने दिखाये थे
हमें सुनहरे सपने
किसी अजनबी प्रदेश के
कैसे लौटा पायेंगे
उसकी स्वर्णिम रोशनी

कैसे लौटा पायेंगे
चॉंद- सूरज को उनकी चमक
समय की बीती हुई उम्र
फूलों को खुशबू
झरनों को पानी और
लोगों को उनका प्यार

कैसे लौटा पायेंगे
खेतों को फसल
मिट्टी को स्वाद
पौधों को उनके फल

ए धरती तुम्हीं बता
कैसे चुका पायेंगे
तुम्हारा इतना सारा ऋण ।


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3. यह लालटेन


सभी सोये हुए हैं
केवल जाग रही है
एक छोटी-सी लालटेन
रत्ती भर है प्रकाश जिसका
घर में पड़े अनाज जितना
बचाने के लिए जिसे
पहरा दे रही है यह
रातभर ।


4. बैण्डबाजे वाले


आधी रात में
बैण्डबाजे वाले
लौट रहे हैं
वापस अपने घर
अन्धकार के पुल को
पार करते
जिसके एक छोर पर
खड़ी है उनकी दुखभरी जिन्दगी
और दूसरे छोर पर
सजी-धजी दुनिया


5. हर आने वाली मुसीबत


उसकी गतिविधिय़ॉं
असामान्य होती हैं
दूर से पहचानना
बहुत मुश्किल होता है
या तो वह कोई बाढ़ होती है
या तो कोई तूफान
या फिर अचानक आई गन्ध

वह अपने आप
अपना द्वार खोलती है और
बिना इजाजत प्रवेश कर जाती है

फिर भागते रहो
घंटों छुपते रहो इससे
जब तक वह दूर नहीं चली जाती
हमारे मन से

बचा रह जाता है
उसके दुबारा लौट आने का भय।


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6. टोपी


तरह-तरह की टोपियॉं
हमारे देश में
सबका एक ही काम
सिर ढकना - नहीं एक और काम
विभाजित करना
लोगों को
अलग-अलग समुदायों में ।


7.हक


प्रकृति की सुंदरता पर किसी का हक नहीं था
वो आजाद थी, इसलिए सुंदर थी
एक खूबसूरत चट्टान को तोडक़र
दो नहीं बनाया जा सकता
ना ही एक बकरी के जिस्म को दो।
इस धूप को कोई नहीं रोक सकता था
धीरे-धीरे यह छा जाती थी चारों तरफ
इसलिए इसके भी दो हिस्से नहीं हो सकते
और जो हिस्से सुंदर नहीं थे
वे लड़ाईयों के लिए पहले ही छोड़ दिये गए थे।


8. खुशियां


मुझे थोड़ी सी खुशियां मिलती हैं
और मैं वापस आ जाता हूँ काम पर
जबकि पानी की खुशियों से घास उभरने लगती है
और नदियां भरी हों, तो नाव चल पड़ती है दूर-दूर तक।

वहीं सुखद आवाजें तालियों की
प्रेरित करती है नर्तक को मोहक मुद्राओं में थिरकने को
और चांद सबसे खूबसूरत दिखाई देता है
करवां चौथ के दिन चुनरी से सजी सुहागनों को

हर शादी पर घोड़े भी दूल्हे बन जाते हैं
और बड़ा भाई बेहद खुश होता है
छोटे को अपनी कमीज पहने नाचते देखकर

एक थके हुए आदमी को खुशी देती है उसकी पत्नी
घर के दरवाजे के बाहर इंतजार करती हुई
और वैसी हर चीज हमें खुशी देती है
जिसे स्वीकारते हैं हम प्यार से।


9. पूजा के बाद


पूजा के बाद हमसे कहा गया
हम विसर्जित कर दें
जलते हुए दीयों को नदी के जल में
ऐसा ही किया हम सबने।
सैकड़ों दीये बहते हुए जा रहे थे एक साथ
अलग-अलग कतार में।
वे आगे बढ़ रहे थे
जैसे रात्रि के मुंह को थोड़ा-थोड़ा खोल रहे हों, प्रकाश से
इस तरह से मीलों की यात्रा तय की होगी इन्होंने
प्रत्येक किनारे को थोड़ी-थोड़ी रोशनी दी होगी
बुझने से पहले।
इनके प्रस्थान के साथ-साथ
हम सबने आंखें मूंद ली थी
और इन सारे दीयों की रोशनी को
एक प्रकाश पुंज की तरह महसूस किया था
हमने अपने भीतर।


10. अनुभूतियां


सचमुच हमारी अनुभूतियां
नाव के चप्पू की तरह बदल जाती हैं हर पल
लगता है पानी सारे द्वार खोल रहा है खुशियों के
चीजें त्वरा के साथ आ रही हैं जा रही हैं
गाने की मधुर स्वर लहरियां गूंजती हुई रेडियो से
मानों ये झील के भीतर से ही आ रही हों
हम पानी के साथ बिलकुल साथ-साथ
और नाव को धीरे-धीरे बढ़ाता हुआ नाविक
मिला रहा है गाने के स्वर के साथ अपना स्वर
और हम खो चुके हैं पूरी तरह से,
यहां की सुन्दरता के साथ।


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11. मनाली में


ये सेव के पेड़ कितने अजनबी है मेरे लिए
हमेशा सेव से रिश्ता मेरा
आज ये पेड़ बिल्कुल मेरे पास
हाथ बढ़ाऊं और तोड़ लूं
लेकिन इन्हें तोड़ूंगा नहीं
फिर इन सूने पेड़ों को,
खूबसूरत कौन कहेगा।


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12. यहाँ की दुनिया


बच्चा अभी-अभी स्कूल से लौटा है
खड़ा है किनारे पर
चेहरे पर भूख की रेखाएं
और बाहों में मां के लिए तड़प।
मां आ रही हैं झील के उस पार से
अपनी निजी नाव खेती हुई
चप्पू हिलाता है नाव को
हर पल वह दो कदम आगे बढ़ रही
बच्चा सामने है
दोनों की आंखें जुड़ी हुई
खुशी से हिलती है झील
हवा सरकती है धीरे-धीरे
किसी ने किसी को पुकारा नहीं
वे दोनों निकल चले आये ठीक समय पर
यही है यहाँ की दुनिया।


13. किताब


अनगिनत सीढिय़ां चढऩे के बाद
एक किताब लिखी जाती है
अनगिनत सीढिय़ां उतरने के बाद
एक किताब समझी जाती है।


14. मैं सोचता हूँ


मैं सोचता हूँ सभी का समय कीमती रहा
सभी का अपना-अपना महत्व था
और सभी में अच्छी संभावनाएं थीं.
छोटी सी रेत से भी भवनों का निर्माण हो जाता है
और सागर का सारा पानी दरअसल बूंद ही तो है।

रास्ते के इन पत्थरों को
मैंने कभी ठुकराया नहीं था
इन्हें नहीं समझ पाने के कारण
इनसे ठोकर खाई थी
और वे बड़े-बड़े आलीशन महल
अपने ढ़हते स्वरूप में भी
आधुनिकता को चुनौती दे रहे हैं
और उनका ऐतिहासिक स्वरूप आज भी जिंदा है।


15. तुम्हारे न रहने पर


थोड़ा-थोड़ा करके
सचमुच हमने पूरा खो दिया तुम्हें
पछतावा है हमें
तुम्हें खोते देखकर भी
कुछ भी नहीं कर पाये हम,
अब हमारी ऑंखें सूनी हैं,
जिन्हें नहीं भर सकतीं
असंख्य तारों की रोशनी भी
और न ही है कोई हवा
मौजूद इस दुनिया में
जो महसूस करा सके
उपस्‍थिति तुम्हारी,
एक भार जो दबाये रखता था
हर पल हमारे प्रेम के अंग
उठ गया है, तुम्हारे न रहने से
अब कितने हल्के हो गये हैं हम
तिनके की तरह पानी में बहते हुए ।


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16. नये घर में प्रवेश


वर्षों से ताला बन्द था
उस नये घर में
कोई सुयोग नहीं बन रहा था
यहाँ रहने का
आज किसी शुभ हवा ने
दस्तक दी और खुल गये इसके द्वार
देखता हूँ , बढ़ रहा है
इसमें रहने को छोटा-सा परिवार
माता-पिता बच्चों सहित
साथ में दादा-दादी
सभी खुश हैं
आज पहली बार खाना बनेगा
इसके रसोई घर में
छोंकन से महकेगा सारा घर
कुछ बचा-खुचा नसीब होगा
आस-पास के कुत्तों और पक्षियों को भी
कुछ पेड़-पौधे भी लगाये जाएँगे
साथ में तुलसी घर भी होगा आँगन में
पिछवाड़े में होंगे स्कूटर और साइकिल
और एक कोने में स्थापित होंगी
ईश्वर की कुछ मूर्तियाँ ।
कुछ ऊँचे स्वर भी सुनाई देंगे
कभी-कभार दादा के
जो बतायेंगे
अभी घर की सारी सुरक्षा का भार
उन्हीं के सिर पर है।


17. दुनिया के सारे कुएँ


मँडरा रहा है यह सूरज
अपना प्रबल प्रकाश लिए
मेरे घर के चारों ओर
उसके प्रवेश के लिए
काफी है एक छोटा सा सूराख ही
और जिन्दगी
जो भी अर्जित किया है मैंने
उसे बहार निकाल देने के लिए
काफी होगा एक सूराख ही
और प्रशंसनीय है यह तालाब
मिट्टी में बने हजार छिद्रों के बावजूद
बचाये रखता है अपनी अस्मिता
और वंदनीय हो तुम दुनिया के सारे कुओं
पाताल से भी खींचकर सारा जल
बुझा देते हो प्यास हर प्राणी की ।


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18. पार्क में एक दिन


इस पार्क में जमा होते जा रहें हैं लोग
कोई चुपचाप निहार रहा है
पौधों की हरियाली और फूलों को
कोई मग्न है कुर्सी पर बैठकर
प्रेम क्रीड़ा करने में,
कोई बढ़ रहा है आगे देखने की उत्सुकता लिए
कोई वहीं बैठ गया है घास पर
थोड़ी ठंडक का आनन्‍द लेने
कई बच्चे अलग-जगह पर हैं
झूला झूलते या दूसरे उपकरणों से खेलते हुए
सभी लोग फुर्सत में हैं, फिर भी व्यस्त।
अब थोड़ी देर में फव्वारे चालू होंगे
रंग-बिरंगे मन मोहते हुए
यही आखिरी खुशी होगी लोगों की
फिर लौटने लगेंगे वे वापस घर
कोई परिश्रम नहीं फिर भी थके हुए।


19. डर पैदा करना


केवल उगते या डूबते हुए सूर्य को ही
देखा जा सकता है नंगी आँखों से
फिर उसके बाद नहीं
और जानता हूँ
हाथी नहीं सुनेंगे
बात किन्हीं तलवारों की
ले जाया जा सकता है उन्हें दूर-दूर तक
सिर्फ सुई की नोक के सहारे ही,
इसलिए सोचता हूँ,
डर पैदा करना भी एक कला है ।


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20. चित्रकार


मैं तेज प्रकाश की आभा से
लौटकर छाया में पड़े कंकड़ पर जाता हूँ
वह भी अंधकार में जीवित है
उसकी कठोरता साकार हुई है इस रचना में
कोमल पत्ते मकई के
जैसे इतने नाजुक कि वे गिर जाएंगे
फिर भी उन्हें कोई संभाले हुए है
कहां से धूप आती है और कहां होती है छाया
उस चित्रकार को सब कुछ पता होगा
वह उस झोपड़ी से निकलता है
और प्रवेश कर जाता है बड़े ड्राइंग रूम में
देखो इस घास की चादर को
उसने कितनी सुन्दर बनाई है
उस कीमती कालीन से भी कहीं अधिक मनमोहक।


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21. विज्ञापन


तरह-तरह के विज्ञापन के कपड़ों से ढका हुआ हाथी
भिक्षा नहीं मांगेगा किसी से
वो चलेगा अपनी मस्त चाल से
बतलाता हुआ, शहर में ये चीजें भी मौजूद हैं
जिन्हें पहुंचाया जा सकता है
घर तक मिनटों में।
वह बढ़ता है सडक़ के दोनों ओर स्थित पेड़ों के बीच से
अपना खाना चुराता हुआ।
महावत को गर्व है
नहीं जाना पड़ेगा उसे घर-घर मांगने
भीड़ भरी सडक़ों पर करता रहेगा वह यात्राएं
और कौतूहलवश लोग उसे देखते रहेंगे
धीरे-धीरे दरें भी बढ़ती जाएंगी
और हाथी अक्सर दिखायी देते रहेंगे
जंगल छोडक़र सडक़ों पर
यह उनका अच्छा उपयोग।


22. नियंत्रण


जिन रातों में हमने उत्सव मनाये
फिर उसी रात को देखकर हम डर गए
जीवन संचारित होता है जहां से
अपार प्रफुल्लता लाते हुए
जब असंचालित हो जाता है
कच्चे अनुभवों के छोर से
ये विपत्तियां हीं तो हैं।
कमरे के भीतर गमलों में
ढेरों फूल कभी नहीं आयेंगे
एक दिन मिट्टी ही खा जाएगी
उनकी सड़ी-गली डालियां।
बहादुर योद्धा तलवार से नहीं
अपने पराक्रम से जीतते हैं
और बिना तलवार के भी
वे उतने ही पराक्रमी हैं।
सारे नियंत्रण को ताकत चाहिए
और वो मैं ढूंढ़ता हूँ अपने आप में
कहां है वो? कैसे उसे संचालित करूं?
कभी हार नहीं मानता किसी का भी जीवन
वह उसे बचाये रखने के लिए पूरे प्रयत्न करता है
और मैं अपनी ताकत के सारे स्रोत ढूंढक़र
फिर से बलिष्ठ हो जाता हूँ।


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Naresh Agarwal, Jamshedpur 9334825981

यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे



कविवर रविन्द्रनाथ ठाकुर



[बंगला]

यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तॅबे एकला चलो रे।
तॅबे एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे।।
यदि केउ कॅथा ना कॅय, ओरे ओरे ओ अभागा,
यदि सबाइ थके मुख फिराये,
सबाई करे भय-तबे परान खुले,
ओ तुई मुख फुटे तोर मनेर कॅथा एकला बालो रे।।
यदि केउ कॅथा ना कॅय,
ओरे ओरे ओ अभागा,
यदि गहन पथे जावार काले केउ फिरे ना चाय- तबे पथेर काँटा,
ओ तुई रक्तमाखा चरणतले एकला दलो रे।।
यदि आलो ना धरे, ओरे ओरे ओ अभागा,
यदि झड़बादले आँधर राते दुआर देय घरे- तबे वज्रानले,
आपॅन बुकेर पाँजर ज्वालिये निये एकला ज्वलो रे।।




[हिन्दी में रूपान्तर]

तेरी आवाज पे यदि कोई न आये, तो फिर चल अकेला रे।
तो फिर चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला रे।।
यदि कोई भी न बोले, ओरे ओरे ओ अभागे,
यदि सभी मुख मोड़े रहें,
सब डरा करें, तब डरे बिना,
तेरे मन की बात, मुक्त-कण्ठ, कह अकेला रे।।
यदि लौट जायें सभी, ओरे ओरे ओ अभागे,
यदि गहन डगर चले, देखे मुड़ के न कोई तब राहों के कांटे,
ओ तू रक्त - रंगे, चरण - तले, दल अकेला रे।।
यदि दीप न धरें, ओरे ओरे ओ अभागे,
झड़ी - आँधी - भरी रात में, घर बन्द यदि करें तब वज्र -
शिखा से तू अपनी अस्थियाँ जला और जल अकेला रे।।



Translated In Hindi by : Dawlala Kothari

अरमानों का टकराव-कुंवर प्रीतम

अंतस में उफनते
अरमानों का टकराव
हर रोज होता है
हालात से
और कुरुक्षेत्र बना
हृदयस्थल फिर
ढूंढने लगता है
उसी कृष्ण को
जिसने दिया था संदेश
कर्मण्येवाधिकारस्ते का।
गीता में कहे बोल
गूंजने लगते हैं
प्रेरणा बनकर
देते हैं पाथेय
और समा जाते हैं
शनैः शनैः
हृदय में
फिर दस्तक देते हैं
आत्मा के आंगन में
अंततोगत्वा
उफनते अरमानों का टकराव
पा जाता है समाधान
और निकल पड़ता है
कर्म की पगडंडी पर।
कुंवर प्रीतम

--



KUNWAR PREETAM
MAHANAGAR PRAKASHAN
309 B B GANGULY STREET, 2ND FLOOR
KOLKATA -700 012
WEST BENGAL




098300 38335

कृष्ण कुमार यादव की तीन कविताऐं

1. खटमल
रात को बार-बार जागता हूँ
पाँच-छ: खटमलों का काम
तमाम कर ही देता हूँ
फिर भी रक्तबीज की भाँति
ये उग आते हैं
रस्सियों की जकड़नों के बीच
अपना आसरा बना रखा है इन्होंने
अब तो इन रस्सियों से भी
डर लगने लगा है
कितने अरमानों से
एक खाट बुनी थी
और एक निश्चितंता की नींद
लेना चाहता था
पर अब तो लगता है
रस्सियां भी मेरी नहीं
खटमलों की ही सुनती हैं।

2. सुबह का अख़बार

आज सुबह का अख़बार देखा
वही मार-काट, हत्या और बलात्कार
रोज पढ़ता हूँ इन घटनाओं को
बस पात्रों के नाम बदल जाते हैं
क्या हो गया है इस समाज को
ये घटनायें उसे उद्वेलित नहीं करतीं
सिर्फ ख़बर बनकर रह जाती हैं
कोई नहीं सोचता कि यह घटना
उसके साथ भी हो सकती है
और लोग उसे अख़बारों में पढ़कर
चाय की चुस्कियाँ ले रहे होंगे।

3. डाकिया
छोड़ दिया है उसने
लोगों के जज्बातों को सुनना
लम्बी-लम्बी साढ़ियाँ चढ़ने के बाद
पत्र लेकर
झट से बंद कर
दिए गए
दरवाजों की आवाज
चोट करती है उसके दिल पर
चाहता तो है वह भी
कोई खुशी के दो पल उससे बाँटे
किसी का सुख-दु:ख वो बाँटे
पर उन्हें अपने से ही फुर्सत कहाँ?

समझ रखा है उन्होंने, उसे
डाक ढोने वाला हरकारा
नहीं चाहते वे उसे बताना
चिट्ठियों में छुपे गम
और खुशियों के राज
फिर वो परवाह क्यों करे?
वह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर

इन कागजी जज्बातों में से
अब लोग उतरकर चुनते हैं
अपनी-अपनी खुशियों
और गम के हिस्से
और कैद हो जाते हैं अपने में।


कृष्ण कुमार यादव
भारतीय डाक सेवा, निदेशक डाक सेवाएं
अंडमान व निकोबार द्वीप समूहए पोर्टब्लेयर-744101
Email: kkyadav.y@rediffmail.com
Blogs: http://kkyadav.blogspot.com
http://dakbabu.blogspot.com

तलाश....रिश्ते की -शशि कान्त सिंह

थामे रिश्ते की डोर, मेरा ये जीवन शुरू हुआ,
रिश्तों की अंगुली पकड़, मै धरा पर चलना शुरू किया,
रिश्तों के लिये, रिश्तों से जुड़ता चला गया,
रिश्तों के खातिर, मैं रिश्ता निभाना शुरू किया।

रिश्तों की भीड़ में, तलाशा एक परछायी को,
इतराया गर्व से खुद पर, पाकर उस रिश्तें से प्यार को,
लगा मिल गई है मंजिल मुझे, इस जीवन के मजधार में,
ऐसा लगने लगा, लोग जलने लगे है मेरे इस रिश्ते के नाम से।

समय के साथ, रिश्तों के मायने बदलते चले गये,
मेरी परछायी को वो अँधेरा बन, ढकते चले गये,
मुझे पता न चला, कब मेरी परछायी पीछे छुट गई,
मै तो वही खड़ा रहा, मगर वो रिश्ता मुझसे रूठ गई।

अगली सुबह,
उसी मोड़ पर मै, रिश्तों के अरमानो को निभाता रहा,
उन रिश्तों के बीच, अपनी उस परछायी को तलाशता रहा,
फिर से वो शाम आई,
मगर वो रिश्ता मुझे नजर ना आई....
वो रिश्ता मुझे नजर ना आई।


संपर्क पताः ग्राम + पोस्ट: मझारियां
जिला: बक्सर
बिहार-802116
shashikiit@gmail.com

मै न समझा -राजू "पंडित"

मै न समझा मै ना जाना यु उसकी
बेवजह मुस्कराने की,
देख मुझे ताक मुझे यु बेवजह
छुप जाने की..


ये शोकिया, ये बांकपन मेरे लिये पर
किसलिए ??
थी न कोई वजह जीने की पर किस लिए
हम जी लिए ??

मन में जो था मेरे या उसके फिर क्यों नही
वो कह दिया॥
बिन कोई वजह फिर क्यों जी रहे
है हम ये दुःख लिए..

आज आलम ये है के पवन चली तो
आहट हुई॥
यु लगा के मेरे दरवाजे फिर
कोई आ गया॥

राम सच्चा, रब सच्चा, या खुदा सच्चा
है यारो।
तुम बताओ क्यों बेवजह ऐसी
मेरी हालत हुई..

आज वो जहा भी होगी खुश होगी
मेरे खुदा,
समझ मेरे आता नही, बिन उसके क्यों
न खुश मै रह सका??

प्यार में बलिदान ही सबसे बड़ी
गाथा रही...
पर वो या मै बलिदान कौन है
दे रहा..??

अब ये वजह है के बेवजह की वजह
क्यों मै खोजता??
अब वो नही इस जीवन में क्यों नही
दिल मानता॥

मन है जोगी ए "राजू" अब तो तन जोगी
बन रहा ॥
क्या लाये थे जो खो दिया ये तो
हर कोई है जानता॥

संपर्क पताः
rajeevtripathi@southalltravel.com

तरसता बचपन... -शशिकान्त सिंह


अपने नौकरी के दौरान मुझे बाढ़ पीडितो के लिये कुछ काम करने का सुनहला मौका मिला। जिस सिलसिले में मै बिहार के खगड़िया जिले में कोसी पीड़ित लोगो के हित के कुछ काम किया। उसी दौरान मुझे वहा रह रहे लोगो कि गरीबी को नजदीक से देखने और महसूस करने का मौका मिला। जिले के राष्ट्रीय राज्यमार्ग -31 पर चल रहे ढाबों में काम कर रहे बच्चों कि जिंदगी से रूबरू होने का मौका मिला। इस रचना के जरिये मै उनके दुखों को समझने की कोशिश है........


ऐ माँ मेरा दोष क्या है
ऐ मेरे पापा मेरी गलती क्या है,
मै तेरे प्यारे आँचल की छावं के लिये तरसता हूँ,
मै पापा के पीठ पर चढ़ने को तरसता हूँ,
मुझे अपने उस ममता से जुदा करने की वजह क्या है?
मुझे अपने तक़दीर पर छोड़ने की वजह क्या है?

जिन हाथों को कागज और कलम की जरुरत थी
उन हाथों में आज लोगों का जूठा थाली है,
जिन गालों को मम्मी के चूमने की अरमान थी
उन गालों पर मालिक के पंजे की निशान है,
ऐ माँ ! क्या कभी सोचा है की मेरी हालत क्या है?
ऐ माँ ! क्या कभी सोचा है की तेरे इस लाल की दषा क्या है?

ऐ माँ ! मेरा भी मन पढने को करता है
पास होकर तेरे माथे को चूमने को जी चाहता है,
बोझ बन गयी इस जिंदगी को छोड़कर
इस दुनिया में कुछ बन कर दिखने को जी करता है
ऐ मुझे जीवन देने वाली माँ !
मेरी एक विनती सुनेगी क्या?
मुझे इस नरक भरे जीवन से बचाने आएगी क्या?

कभी सोचता हूँ कि तुने मुझे इस जहाँ में लाया क्यों?
बचपन में ही इन कन्धों पर इतना बोझ डाला क्यों?
पहले तो सोने से पहले तेरी याद में रोता भी था
आजकल तो जूठे मेज को साफ करने में ही सो जाता हूँ,
ऐ मेरी माँ ! मुझे एक बार फिर से लोरी सुनाओगी क्या?
ऐ माँ मुझे अपने आँचल में फिर से सुलाओगी क्या?
तेरा ये लाल दर्द से कराह रहा है इसे बचाने आवोगी क्या?


संपर्क पताः
At+Post: Majharia,
Dist: Buxar- 802116( Bihar)
Mob:9693161974

माँ . तुम उदास मत होना! - सुधा अरोड़ा

मदर्स डे के अवसर पर


माँ ने उन दिनों कवितायेँ लिखीं ,
जब लड़कियों के
कविता लिखने का मतलब था
किसी के प्रेम में पड़ना और बिगड़ जाना ,
कॉलेज की कॉपियों के पन्नों के बीच छुपा कर रखती माँ
कि कोई पढ़ न ले उनकी इबारत
सहेज कर ले आयीं ससुराल
पर उन्हें पढ़ने की फिर
न फुर्सत मिली , न इजाज़त !

माँ ने जब सुना ,
उनकी शादी के लिए रिश्ता आया है ,
कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से
बी कॉम पास लड़के का ,
माँ ने कहा ,
मुझे नहीं करनी अंग्रेजी दां से शादी !
उसे हिंदी में लिखना पढना आना चाहिए !
नाना ने दादा तक पहुंचा दी बेटी की यह मांग
और पिता ने हिंदी में अपने
भावी ससुर को पत्र लिखा !
माँ ने पत्र पढ़ा तो चेहरा रक्ताभ हो आया
जैसे उनके पिता को नहीं ,
उनको लिखा गया हो प्रेमपत्र
शरमाते हुए माँ ने कहा --
'' इनकी हिंदी तो मुझसे भी अच्छी है ''
और कलकत्ता से लाहौर के बीच
रिश्ता तय हो गया !

शादी के तीन महीने बाद ही मैं माँ के पेट में थी ,
पिता कलकत्ता , माँ लाहौर में ,
जचगी के लिए गयीं थीं मायके !
खूब फुर्सत से लिखे दोनों
प्रेमियों ने हिंदी में प्रेम पत्र ,
बस , वे ही चंद महीने
जब माँ पिता अलग रहे ,
और उस अलगाव की साक्षी
उन खूबसूरत चिट्ठियों का पुलिंदा ,
जो लाल कपडे में एहतियात से रख कर
ऐसे सहेजा गया
जैसे गुरु ग्रन्थ साहब पर
लाल साटन की गोटेदार चादर डाली हो
हम दोनों बहनों ने उन्हें पढ़ पढ़ कर
हिंदी में लिखना सीखा !
शायद पड़ें हों अलमारी के
किसी कोने में आज भी !
उम्र के इस मोड़ पर भी .
पिता छूने नहीं देते जिसे .
पहरेदारी में लगे रहते हैं ,
बस , माँ जिंदा हैं उन्हीं इबारतों में ...
हम बच्चे तो
अपनी अपनी ज़िन्दगी से ही मोहलत नहीं पाते
कि माँ को एक दिन के लिए भी
जी भर कर याद कर सकें ! .....

उस माँ को --
जो एक रात भी पूरा सो नहीं पातीं थीं ,
सात बच्चों में से कोई न कोई हमेशा रहता बीमार ,
किसी को खांसी , सर्दी , बुखार ,
टायफ़ॉयड , मलेरिया , पीलिया
बच्चे की एक कराह पर
झट से उठ जातीं
सारी रात जगती सिरहाने ...
जिस दिन सब ठीक होते ,
घर में देसी घी की महक उठती ,
तंदूर के सतपुड़े परांठे ,
सूजी के हलवे में किशमिश बादाम डलते
घर में उत्सव का माहौल रचते !
दुपहर की फुर्सत में
खुद सिलती हमारे स्कूल के फ्रॉक ,
भाईओं के पायजामे ,
बचे हुए रंग बिरंगे कपड़ों का कांथा सिलकर
चादरों की बेरौनक सफेदी को ढक देतीं ,
क्रोशिये के कवर बिनतीं ,
और काढतीं
साड़ी का नौ गज बोर्डर !
पैसा पैसा जोड़ कर
खड़ा किया उन्होंने वह साम्राज्य ,
जो अब साम्राज्य भर ही रह गया
धन दौलत के ऐश्वर्य में नमी बिला गयी !
यूँ भी ईंट गारों के पक्के मकानों में अब
एयर कंडीशनर धुंआधार ठंडी हवा फेंकते हैं ,
उनमें वह खस की चिकों की सुगंध कहाँ !
' मेनलैंड चाईना ' में चार पांच हज़ार का
एक डिनर खाने वाले
कब माँ के तंदूरी सतपुड़े पराठों को याद करते हैं ,
जिनमें न जाने कितनी बार जली माँ की उँगलियाँ !

माँ ,
उँगलियाँ ही नहीं ,
बहुत कुछ जला तुम्हारे भीतर बाहर
पर कब की तुमने किसी से शिकायत ,
अब भी खुश हो न !
कि तुम्हारी खूबसूरत फ्रेम में जड़ी तस्वीर पर
महकते चन्दन के हार चढा
हम अपनी फ़र्ज़ अदायगी कर ही लेते हैं
तुम्हारे क़र्ज़ का बोझ उतार ही देते हैं !

माँ . तुम उदास मत होना ,
कि तुम्हारे लिए सिर्फ एक दिन रखा गया
जब तुम्हें याद किया जायेगा !
बस , यह मनाओ
कि बचा रहे सालों - साल
कम से कम यह एक दिन !

'कबीर तुम कहाँ हो' - डॉ. दीप्ति गुप्ता


कबीर तुम कहाँ हो.................
आज इस युग को तुम्हारी ज़रूरत है,
भूले हुए को दिशा की ज़रूरत है
डरे हुए को वाणी की ज़रूरत है,


तुमने कहा -----
'जो नर बकरी खात है, ताको कौन हवाल '
पर, अब नर ही नर को खात है, बुरा धरती का हाल !

कबीर तुम कहाँ हो.................
आज इस युग को तुम्हारी ज़रूरत है,
भूले हुए को दिशा की ज़रूरत है,
डरे हुए को वाणी की ज़रूरत है,


तुमने कहा -----
'मन के मतै न चालिए '
पर - अब, मन के मतै ही चालिए, स्वाहा सब कर डालिए !

कबीर तुम कहाँ हो.................
आज इस युग को तुम्हारी ज़रूरत है,
भूले हुए को दिशा की ज़रूरत है,
डरे हुए को वाणी की ज़रूरत है,

तुमने कहा -----
'तू - तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ '
पर अब - तू तू मैं मैं हो रही, हर मन में बसी है 'हूँ',

कबीर तुम कहाँ हो.................
आज इस युग को तुम्हारी ज़रूरत है,
भूले हुए को दिशा की ज़रूरत है,
डरे हुए को वाणी की ज़रूरत है,

तुमने कहा -----
'राम नाम निज पाया सारा, अविरथ झूठा सकल संसारा',
पर अब-राम नाम तो झूठा सारा,सुन्दर,मीठा लगे संसारा,


कबीर तुम कहाँ हो.................
आज इस युग को तुम्हारी ज़रूरत है,
भूले हुए को दिशा की ज़रूरत है,
डरे हुए को वाणी की ज़रूरत है,


तुमने ठीक ही कहा था -----
'झीनी झीनी बीनी चदरिया, ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया'
पर,आज हुआ बुरा हाल यूँ उसका,मैल से कटती जाए चदरिया !


कबीर तुम कहाँ हो.................
आज इस युग को तुम्हारी ज़रूरत है,
भूले हुए को दिशा की ज़रूरत है,
डरे हुए को वाणी की ज़रूरत है,

वरदान - डॉ. दीप्ति गुप्ता


ईश्वर के दरबार में एक बार धरती से लाए गए व्यक्ति से जब जवाब तलब किया गया तो, उसके उत्तर सुनकर ईश्वर स्वयं वरदान बनकर उस पर न्यौछावर होने को कुछ इस तरह तैयार हो गया -
ईश्वर ने पूछा - धरती पर तुमने क्या किया
मानव - धर्म
ईश्वर - क्या दिया
मानव - प्यार
ईश्वर - क्या लिया
मानव - दर्द
ईश्वर - क्या बटोरा
मानव - नेकी
ईश्वर - क्या बाँटा
मानव - दूसरों का दुख
ईश्वर - क्या तोड़ा
मानव - दुर्भाव
ईश्वर - क्या जोड़ा
मानव - सदभाव
ईश्वर - क्या मिटाया
मानव - द्वेष
ईश्वर - क्या कायम किया
मानव - शान्ति
ईश्वर - क्या खोया
मानव - बुराई
ईश्वर - क्या पाया
मानव - भलाई
ईश्वर - तुम्हारी जमा पूँजी
मानव - इंसानियत
ईश्वर को लगा यह ज़रूर कोई संत या फक्क़ड साधु होगा,लोगों को प्रवचन देता होगा - पूछा - करते क्या हो?
मानव - लेखक हूँ
ईश्वर - लेखक ?
मानव - जी ।
ईश्वर - जानते हो ऐसे भारी - भारी काम कितने कठिन है ?
मानव - जी आसान है !
ईश्वर - ऐसी कौन सी जादू की छड़ी रखते हो तुम ?
मानव - जी छोटी सी कलम !
ईश्वर - छोटी सी कलम ?
मानव - जी उसी में है इतना दम !
ईश्वर - झूठ
मानव - जी, सच !
ईश्वर - उसे कैसे चलाते हो
मानव - स्याही में डुबोकर काग़ज़ पर चलाता हूँ ।
ईश्वर - उससे क्या होता है ?
मानव - बड़े-बड़े ह्रदय परिवर्तन, बड़े-बड़े जीवन परिवर्तन, दिशा परिवर्तन, यहाँ तक कि बड़ी - बड़ी क्रान्तियाँ
ईश्वर - क्या कहते हो, क्रान्ति तो तलवार और कटार की धार पर होती हैं,
मानव - जी, पर क़लम इन सब से पैनी होती है।
सोए को जगाती है, निराश को उठाती है,
उदास को हँसाती है, दमित को दम देती है,
नासमझ को समझाती है, क्रूर को कोमल बना
प्यार का पाठ पढ़ाती है, जीवन की परतें खोल
गहरे अर्थों का परिचय कराती है,
क्या कहूँ, क्या - क्या न कहूँ
यह अनोखी सबसे है
वेद, क़ुरान, बाइबिल, सब इसी के दम से है !
सच कहता हूँ मेरे भगवन, मैं भी इसी के दम पर लेखक हूँ
इसी से क,ख,ग ध्वनियों को, शब्दों में ढालता हूँ
अर्थों से भरता हूँ और वे ज़रूरी काम करके
समाज और जीवन के प्रति, अपना दायित्व निबाहता हूँ
जिन्हें सुनकर आप हैरान हैं !!
सृष्टा ने ऐसे दृष्टा को वरदान देते हुए कहा
तो ठीक है आज के बाद, जब भी मुझे धरती पर
कुछ परिवर्तन लाना होगा, मैं तुम्हारी क़लम में उतर आऊँगा,
तुम्हारी क़लम को दिव्य और धरती को स्वर्ग बनाऊँगा !

मानव बोला - "और मैं धन्य हो जाऊँगा" !!

Union Carbide: Bhopal Gas

भोपाल तीन काल - शम्भु चौधरी


.

-1-
चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को |
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो
उस नापाक इरादों को
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।


[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 28 दिसम्बर1987]


.


-2-


वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी ।
कुछ जमीन पर सोये सांसे गिन रही थी।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहाँ बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आये तो,
एक गैसयंत्र ओर यहाँ बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जायेगें।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 02 दिसम्बर1987]



.


-3-


भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं मानव।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 5 नवम्बर 1988]

-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

email; ehindisahitya@gmail.com

[Scrip code: Union Carbide: Bhopal Gase]


देश भक्ति गीत - शम्भु चौधरी

1. मेरा वतन
मेरा वतन... मेरा वतन..2
ये प्यारा हिन्दुस्तान-2
हम वतन के हैं सिपाही...
वतन के पहरेदार....2
मेरा वतन... मेरा वतन..2 ये प्यारा - 2
डर नहीं तन-मन-धन का...हमें
हम रक्त बहा देगें...-2
वतन के खातिर सरहद पे हम...
प्राण गवां देगें।
ये प्यारा हिंदुस्तान -2
मेरा वतन... मेरा वतन..2 ये प्यारा - 2
सात सूरों का संगम देखो
जन-जन की आवाज
गा रहे मिलजुल सब
एक स्वर में आज।
मेरा वतन... मेरा वतन..2 ये प्यारा - 2


2. ध्वजः प्रणाम



हिन्द-हिमालय, हिम शिखर,
केशरिया मेरा देश।
उज्ज्वल शीतल गंगा बहती,
हरियाली मेरा खेत,
पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण...
लोकतंत्र मेरा देश
चक्रधरा धरती माँ तुझको
शीश नमन करते हम
माँ ! शीश नमन करते हम!
हम सब भारत की संतान
हमको दो आशीष महान।
'जय-हिन्द', 'जय-हिन्द'
'जय-हिन्द', 'जय-हिन्द', 'जय-हिन्द'!


3.श्रद्धांजलि


नमन तुम्हें, नमन तुम्हें, नमन तुम्हें,
वतन की राह पे खड़े तुम वीर हो,
वतन पे जो मिटे वो तन,
नमन तुम्हें।नमन तुम्हें,
नमन तुम्हें, नमन तुम्हें,
ये शहीदों की चित्ता नहीं,
भारत नूर है,
चरणों पे चढ़ते 'हिन्द' ! तिरंगे फूल हैं।
मिटे जो मन, मिटे जो धन,
मिटे जो तन वतन की राह पे खड़े तुम वीर हो,
वतन पे जो मिटे वो तन,
नमन तुम्हें नमन तुम्हें! नमन तुम्हें! नमन तुम्हें!


4.वतन की नाव


मारो मुझे एक ऐसी कलम से,
जिससे फड़कती हो मेरी नब्जें;
लड़ते रहें, हम लेकर नाम मज़हब का,
मुझको भी जरा ऐसा लहू तो पिलावो,
बरसों से भटकता रहा हुं,
कहीं एक दरिया मुझे भी दिखाओ;
बना के वतन की नाव यहाँ पे;
मेरे मन को भी थोड़ा तो बहलाओ।
मरने चला जब वतन कारवाँ बन,
कब तक बचेगा जरा ये भी बताएं?


-शम्भु चौधरी, एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106

फणीन्द्र कुमार पाण्डेय की दो कविताएँ

1. आशीर्वाद
आशीर्वाद करे तुम्हें चित्त-चोर।
तुमको आशीर्वादित करे चित्त-चोर।
राधा के नायक प्रेम साधक नन्द किशोर।।
समाज का करे समुचित विकास-समाज विकास।
दुर्भावनाओं का हो मानव मन से निकास।।
सुमनों की सर्वत्र फैले सर्वत्र सुवास।
सबके हृदयों से निकले देश प्रेम की श्वास।।
फणीन्द्र का हो जावे सफल-विश्वास।
मम कविता सुमन से बिखरे देश प्रेम की सुवास।।
यत्र-तत्र सर्वत्र फैले पत्रिका समाज विकास।
हटावे लेखनी से जन-जन का त्रास।।
हो जावे सबको पत्रिका की च्प्राश।
ऐसा जीते ये जनता का विश्वास।।
भावे तो इसे तुम प्रकाशित कर देना।


2. महाकाली का भैरवी गान

पाक अधिकृत कश्मीर हो आजाद
आध्यात्मिकता पूर्ण हो समाज-विकास।
हो सब में श्री राम का अब निवास।।
मातृभाव का हो मानव हृदय में प्रकाश।
राष्ट्रीयता को हो समर्पित हर श्वास।।
आतंकवाद का करने को शीघ्र हरास।
बच्चा-बच्चा बन जावे वीर-सुभाष।।
आतंकवाद का खत्म हो जावे राज।
झेले न त्रासदी फिर से होटल ताज।।
सर्वत्र हो फिर से भारत में राम-राज।
आतंकवाद न बिगाड़ने पावे कोई काज।।
सुख शान्ति की यत्र-तत्र-सर्वत्र चले रेल।
नेता जवाब दें-आतंकवाद का बन कर पटेल।।
आतंकवाद का न झेले-अब कोई क्लेश।
करो ऐसा कारगर उपाय कहता तुम से देश।।
शान्ति की बातें क्या सुने ये दुष्ट शैतान।
कहता यही हमसे महाकाली का भैरवी गान।।
कहते हमसे कर्मशील बन कर डटो फिर आज।
करो ऐसा काम जिससे पाक आ जावे बाज।।
यही कहते भगत-बोस-बाई, और आजाद।
पाक अधिकृत कश्मीर को अब कराओ आजाद।।


-फणीन्द्र कुमार पाण्डेय, सल्ला सिमल्टा
चम्पावत-262523, उत्तराखण्ड

मंथन -रामजीलाल घोड़ेला ‘भारती’

आदमी के मन में
हर वक्त चलता है
विचार मंथन।
यह मंथन
उसके अपने
संजोये कर्मों
भविष्य के सपनों
उगते सूर्य
चमकते सितारों
निहारती नजरों
उफनते समन्दर
कांपती धरा का
ही तो है।
यह मंथन
उसकी शंकाओं
मन के भ्रम
जीवन की आशा
हृदय का विश्वास
उपजे सद विचारों
चेतन भावनाओं
परिपक्व संवेगों
को उल्लेखित करता है।
यह मंथन
उसके पीढ़ियों के
संस्कारों
उसके परिश्रम
वर्षों के संघर्ष
जन्म जन्मांतरों के
संचित कर्मों
का ही तो है।
यह मंथन
अपने गुण
दूसरों के दोष
सुबह शायं
लम्बी होती छाया
काया में छिपी
कामनाओं का
ही तो है।
यह मंथन
बढ़ती हिंसा
पांव पसारता
क्रूर आतंक
आदमी का
घटता मूल्य
निर्दोषों की हत्या
हाफते लोगों
क्रंदन करते बच्चों
का ही तो है।


सी/ओ राज क्लॉथ स्टोर,
लूनकरनसर-334603, बीकानेर (राज.)

नववर्ष मंगलमय हो ! - डॉ. अनिल शर्मा ‘अनिल’

नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
तुम्हें नयी नयी खुशियाँ मिलें।
खुशियों के फूल खिलें।।
वो पथ बन जायें सुगम।
जो पथ कंटकमय हो।।
नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
तुम जाओ जहाँ भी कहीं।
खुशियाँ बरसाओ वहीं।।
निर्भय हो काम करो।
नहीं कोई भी भय हो।।
नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
तुम गाते रहो प्रेमगीत।
बन सब के हिय के मीत।।
कुछ नये-शब्द तुम दो।
और कोई नयी लय दो।।
नववर्ष मंगलमय हो,
नववर्ष मंगलमय हो।
- डॉ. अनिल शर्मा ‘अनिल’

‘‘स्वप्न’’ - देवेन्द्र कुमार मिश्रा

सपना तब होता है सपना
जब खुलती है नींद
चलते स्वप्न बिल्कुल
सच्चाई होते हैं
जीवन की तरह।
दुःख है तो है
सुख है तो है
सपना चल रहा है
जो घट रहा है
वो सही है।
अब ये तो नींद खुलने
पर निर्भर है
कि सब अपना लगे।
नींद आ गई है
सपने सत्य हैं
स्वप्न में ही जीवन है मरण है
नींद जो लम्बी है
लगता है
कभी खुलती भी है
तो आँख बन्द कर लेता हूँ
इस आस से कि शायद
कोई अच्छा सुख मिल जाये।
नींद की आदत पड़ गई है
न टूटे तो बेहतर
और खुल गई जिस दिन आँख
उस दिन सब स्वप्न
चाहे जीवन ही क्यों न हो।


- जैन हार्ट क्लीनिक के सामने
एस. ए. एफ. क्वार्टर्स बाबू लाईन, परासिया रोड
छिन्दवाड़ा (म.प्र.) - 480001, मोबाइल: 9425405022

मांड - ताऊ शेखावाटी

ठंडी, ताराँ छाई रात, कराँ दोय बात
सजन घर आओ सा!
म्हारै हिवड़ै रा रूप हजारा, पिउ प्यारा
घर आओ सा!
दरखत हो’गी दूबड़ी सा! चढ़ र’यो जोबन ज्वार
ऊमर घूमर घाल री सा! गावै रूप मल्हार
बरसै बैरस रुत बरसात
हियो हुळसात
सजन घर आओ सा!
अळियाँ गळियाँ कँवळी कळियाँ, उर उनमाद भरै
नुगरा भँवरा ओपरा सा! नित कुचमाद करै
बैठ्या चोर लगायाँ घात
तकै दिन रात
सजन घर आओ सा!
मळ-मळ न्हाया, मलमल पै’री, पल-पल डीक्या सा!
माँड्या मैहँदी माँडणा सब थाँ बिन फीका सा!
सुपनै में ही घड़ी स्यात
करण दो बात
सजन घर आओ सा!

Tawoo Shekhawati
रचयिता का संपर्क पता:
- ताऊ शेखावाटी
32, जवाहर नगर, सवाई माधोपुर-322001
Mobile No. 09414270336/ 09414315094

खून बहाओगे -डॉ. मोहन ‘आनन्द’

बोलो आततायी बोलो, कितना खून बहाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम, भारत माता की छाती।
बांट रहे टुकड़ों-टुकड़ों में, ये क्यों ज़ालिम उत्पाती।
इनसे हाथ मिलाकर बोलो, क्या हासिल कर पाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
क्या-क्या सोच-सोचकर, माँ ने तुमको जन्म दिया होगा।
तेरे लालन-पालन में, कितना श्रम होम किया होगा।
उसका सीना छलनी करके, तुम कैसे जी पाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
जाति-पाँति, मजहब का माता, भेद नहीं स्वीकारती।
अपनी गोदी में लेकर वह, सबको सदा दुलारती।
ऐसी माँ को दुःख पहुँचाकर, तुम कैसे सुख पाओगे।
भारत माता के आंचल में गंदे दाग लगाओगे।
बोली-भाषा, क्षेत्रवाद पर लहू बहाने वालों।
समझो ना कमजोर किसी को, खुद को जरा सम्भालो।
तुम भी चंगुल में आ सकते, भाग कहाँ जाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
देश बचा तो जीने का हक, तुमको मिला रहेगा।
वरना गन्दी करतूतों का, तुमको गिला रहेगा।
ऐसा सबक सिखा देंगे, तुम सिर धुन-धुन पछताओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।
बोलो आततायी बोलो, कितना खून बहाओगे।
भारत माता के आंचल में, गंदे दाग लगाओगे।


रचयिता का संपर्क पता:
डॉ. मोहन आनन्द
सुन्दरम् बंगला, 50 महाबली नगर
कोलार रोड भोपाल (म.प्र.)