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जिस बेटे को उंगली पकड़कर


जिस बेटे को उंगली पकड़कर
चलना था सिखलाया
जिसे गोद में रखकर
बोलना था सिखलाया
आज उसी बेटे ने मुझे
धक्का देकर
घर से है निकाला।
घर से है निकाला॥


उसकी पत्नी ने उससे कहा
इस बुढे का रहना मुझे नहीं है भाता
लगाओ इस बुढे को कहीं भी ठिकाना
वरना तोड़ लो मुझसे नाता।
वरना तोड़ लो मुझसे नाता॥


माना उसने प्यारी बीवी की बात
किया मुझपर कटु वचनों की बरसात
बोला उसने,
ऐ बुढा!
तुम्हारा नही है यहाँ कोई काम
चले जाओ यहाँ से
और हमें शान्ति से रहने दो
वरना हाथ-पैर तोड़कर बाहर कर दूंगा
फिर भी नहीं मानोगे तो
जहर देकर मार दूंगा!
जहर देकर मार दूंगा!!
पहले किया मैंने
उसके बात को अनसुना
पर उसने मेरा भोजन बंद किया
व मुझे भूखे ही रखने लगा
फिर एक दिन मुझे
धक्का देकर
घर से भी निकाल दिया।
घर से भी निकाल दिया॥


तब से भटक रहा हूँ
अकेले रह रहा हूँ
कोई नहीं है अब मेरा
सिर्फ ईश्वर ही है सहारा।
सिर्फ ईश्वर ही है सहारा॥


जिस बेटे को उंगली पकड़कर
चलना था सिखलाया
जिसे गोद में रखकर
बोलना था सिखलाया
आज उसी बेटे ने मुझे
धक्का देकर
घर से है निकाला।
घर से है निकाला॥



रचयिता -- महेश कुमार वर्मा

मैं एड्स हूँ -सुनील कुमार सोनू

मैं एड्स हूँ
एक खतरनाक बीमारी
इसलिए कहता हूँ
रखो एड्स की सही जानकारी.
एड्स ऐसे फैलता है :--
असुरक्षित यौन संबंध बनने से
संक्रमित सुई लगाने से
hiv+ माँ द्वारा नवजात शिशु को स्तनपान कराने से
संक्रमित खून के आदान-प्रदान से
लेकिन एड्स ऐसे नही फैलता है:--
हाथ या गले मिलाने से
चुम्मा या प्यार जताने से
संग रहने से या खाने-पीने से
तिलचट्टा या मच्छर काटने से
एड्स का लक्षण है :--
 लंबे समय तक बुखार रहना
  चेहरे पे बरे-बरे फोरे-फुन्सी हो जाना
   राग प्रतिरोधक क्षमता घट जाना
   लगातार वजन घटते रहना
    आत्मविश्वाश डगमगा जाना
एड्स से बचने के उपाय :--
  नशा से दूर रहें
हमेशा कंडोम का उपयाग करें.
  जोश में आके होश न गवाएँ
 जीवन साथी के संग बफा निभाएं
  homosex, heterosex,groupsex,oralsex&analsex से मीलों दूर रहें.
   जहाँ तक सम्भव हो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य-धर्म का पालन करें.
जो एड्स के रोगी हैं :--
उन्हें उचित मान-सम्मान दे
उन्मे जीने की ललक पैदा करें
उनसे ये कहो की ---
"जबतक है साँस जिंदगी की
 तबतक हँसते-गाते रहो !
  शेष बहुत है लम्हें कारवां के,
   बस जीने की ललक जागते रहो !"
    उन्हें रस-गंध-स्पर्श का फ़िर से एहसास कराओ!
      उन्हें प्यार देकर कहो की जिंदगी अभी भी
       बहुत खुबसूरत है किसी नई-नवेली दुल्हन की तरह!

 "अपने हाथों में लेके तेरे हाथ चलेंगे!
    तू दिल अपना छोटा न कर
     हम हर पल तेरे साथ चलेंगे! "


SUNIL KUMAR SONU
36th batch ADC student
room no 318
new ADC hostel
NATIONAL INSTITUTE OF FOUNDRY& FORGE(NIFFT),HATIA,RANCHI
JHARKHAND 834003
cell-- 09852341209,9204696659

आज मैं हिमालय की कन्दराओँ में -Sikander kushwaha


आज मैं हिमालय की कन्दराओँ में ,
जाना चाहता हुं,
दुनिया दारी की मोह- जाल
छौड़ जाना चाहता हुं,
यहाँ ना-ना प्रकार की
कृतिम सुख, खोखला दिखावा ,
किसी के दुःख में स्वभाविक दुःख,
किसी के खुशी में हँसने की
झूठी कोशिस

अब बर्दास्त नहीं होता ,
अपने स्वाभाविक कर्तब्यों को
छोड़ जाना चाहता हुं,
कृतिम सुख की और ,
हिमालय की कन्दराओ में ..

ये भी मिथ्या है जहा मैं हुं,
वो भी मिथ्या है
जहा जाना चाहता हुं,
वो कल्पना लोक जिसे देखा नहीं,
यह यथाथ लोक जहा मैं जी रहा ,

चलो इसी में, मैं कुछ करता हुं…नही करना होगा.

हिमालय की कन्दराओ में
मेरा जाना कुछ और नहीं
अपने कर्तब्यों को छोड ,
समाज का मूल्यवान योगदान को
लेकर कायरता पूर्वक भाग जाना होगा

हिमालय की कन्दराओ की जगह
मुझे इस समाज को
हिमालय सा उंचाई दे कर
कुछ पाना है,

मुझे कन्दराए नहीं उसकी
चोटी में स्थान पाना है।



Sikander kushwaha "आजाद सिकन्दर"

Student
XIDAS, Jabalpur
sikanderkush@gmail.com
http://www.azadsikander.blogspot.com/
M.No.- +919200734846

गर तू ना होती - महेश कुमार वर्मा


गर तू ना होती तो कौन मेरे पास होता
गर तू ना होती तो कौन मेरे साथ होता
गर तू ना होती तो कौन मेरा अपना होता
गर तू ना होती तो सारा जहाँ सपना होता
गर तू ना होती तो जीवन नहीं ये पूरा होता
गर तू ना होती तो जीवन ये अधुरा होता
गर तू ना होती तो नहीं ये जीवन होता
गर तू ना होती तो नहीं ये गज़ल होता
कहना है बस एक बार तू मान जा
मान जा मेरे दिल को बहला जा
मान जा जीने का राह दिखा जा
मान जा मेरे जीवन को सँवार जा
गर तू ना होती तो नहीं ये जीवन होता
गर तू ना होती तो नहीं ये गज़ल होता

शरदेन्दु शुक्ल 'शरद' की दो कविता


खानदानी असर


बच्चा सबको सता रहा था,
अस्सी साल की बुढ़िया को मम्मी
और 19 साल के लड़के को
अपना डेड बता रहा था।
एक ने कहा पिछले कई दिनों से
यह किसी की भी गोद में जाकर बैठ जाता है।
बुजुर्ग ने कहा इसमें कोई नहीं विवाद है,
मैं चेलैंज करता हूँ, चाहे ज्योतिषी से पुछवा लो
जरूर किसी दलबदलू की औलाद है।



सुसाइट


दशहरे के दिन रामलीला कमेटी ने
रावण फूंकने से पहले कवि सम्मेलन कराया,
उसमें थर्ड क्लास कवियों को बुलवाया,
दो कौड़ी की कविताएँ सुन
आपसे में मच गई कलह,
कुछ ने फौरन कार्यक्रम बंद करने की दी सलाह।
वे एक भी कवि को नहीं कर पाये थे सहन
इससे पहले ही,
कविता से दुखी रावण ने
खुदको कर लिया था दहन।


डाक द्वारा प्राप्त कविता:
कवि का संपर्क पता:
97/8, आयुध निर्माणी, देहु रोड, पुणे-412101 फोन: 020 27673206 / 0-9970303113

भूतों की दुनिया - पवन निशान्त





धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी गरीबी
पैसा कमाने के सपने तो होंगे पर जरूरत नहीं होगी
जरूरत पूरी करने की चुभन तो होगी पर एहसास मर जाएगा
न्यूज प्रिंटर की तरह धड़ाधड़ बाहर आएंगी जरूरतें
चिल्लाएंगी हंगामा करेंगी पर अधूरी जरूरतें
पूरी होने वाली जरूरतों का घोंट देंगी गला
सुबह का अखबार कौन पढ़ना चाहेगा
अल्सुबह काम पर जाना होगी सबसे बड़ी जरूरत
तब रात में निकलने शुरू होंगे अखबार या तब
जब कोई उन्हें पढ़ने की जरूरत जताएगा
दिन भर बिना कमाये लौटेगा आदमी
रात में काम पर जाएंगी औरतें, लगी रहेंगी काम में
यक्ष प्रश्न बार-बार परीक्षा लेगा उनकी
किसका बिस्तर गर्म करें कितनों का बिस्तर गर्म करें
कि गरम हो सके सुबह का चूल्हा
बिस्तर गरम कराने वाले छोड़ चुके होंगे शहर
शहर के अस्पताल भरे होंगे उनसे
हाहाकार मचा होगा अस्पतालों में-
ऊं जूं सः मा पालय, ऊं जूं सः मा पालय पालय।
बच्चे निकलेंगे पूरा परिवार संगठित होकर
कमाएगा और पाएगा फूटी कौड़ी
तब जागेगा प्यार आर्थिक अभाव में
प्यार भूख में होगा पर भूख न लगेगी
बाजारवाद की व्याख्या करके
विजयी भाव से भर जाएगा प्यार
इतिहासकारों का शरीर फट चुका होगा
अर्थशास्त्रियों के भेजे में हो जाएगा कैंसर या मधुमेह से
मारे जा चुके होंगे सब के सब
जनता का आदर्श हो जाएगा आर्थिक अभाव
पूंजी का कोई अर्थ न रह जाएगा
जो पूंजी वाला होगा, वही सबसे गरीब होगा
पैसे वाला पैसे वाले से दूर भागेगा
जो जितना अमीर होगा उतना अश्पृश्य हो जाएगा
जो जितना गरीब होगा उतना अपना होगा
पूंजी के साथ आने वाले मर्ज उड़न छू हो चुके होंगे

मुझे भूतों की दुनिया दिखती है

उस दुनिया में मारामारी नहीं है
आदमी भड़ुआ नहीं है औरत बाजारी नहीं है
बच्चों के आगे बड़ा होने की लाचारी नहीं है
बड़ी हो रही है भूतों की दुनिया
समय के सहवास में हुए स्खलन से हो रहा है उसका जनम
किसी पल कबीर की उलटबांसियों की तरह
सामने आकर खड़ी हो सकती है भूतों की दुनिया
उनकी आंखों में लाल डोरे फैलने लगे हैं
जाप चल रहा है चल रहा है और तेज हो रहा है
तीव्रतम हो रहे हैं उनके स्वर-
परित्राणाय साधुनाम......

भूतों की हथियार मंद दुनिया से
हमले का अंदेशा लगता है


पवन निशांत का परिचय
जन्म-11 अगस्त 1968, रिपोर्टर दैनिक जागरण, रुचि-कविता, व्यंग्य, ज्योतिष और पत्रकारिता
पता: 69-38, महिला बाजार,
सुभाष नगर, मथुरा, (उ.प्र.) पिन-281001
E-mail: pawannishant@yahoo.com

डॉ.गुलाबचंद कोटड़िया की कविताएँ



डॉ.गुलाबचंद कोटड़िया का जन्म 07 अगस्त 19935 लोहावट गांव जिला जोधपुर (राजस्थान) में हुआ । आपकी शिक्षा: अजमेरे इंटर, विशारद (बी.ए.हिन्दी)
आपकी अबतक निम्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।
पाँच हिन्दी कहानी संग्रह
1. रो मत अक्कल बाई 2. बाई तूं क्यों आई? 3. भावनाओं का खेल 4. विधि का विधान 5. जंग खाए लोग
पाँच हिन्दी कविता संग्रह
संवेदना के स्वर, ठूंठ की आशीष, मिट्ती के रंग हज़ार, रहुँ न रहुँ और रेत की पीड़ा
एक राजस्थानी कविता संग्रह: देश री सान-राजस्थान
एक राजस्थानी कहानी संग्रह: थोड़ा सो सुख
छह बाल साहित्य की पुस्तकें:
101 प्रेरक प्रसंग, 101 प्रेरक कथाएं, 101प्रेरक पुंज, प्रेरणा दीप, 101 प्रेरक बोध कथाएं और 101 प्रेरेक कहानियां
तीन निबन्ध संग्रह:
घूमता आईना, जीवन मूल्य और दाम्पत्य ज्यामिति (शीघ्र प्रकाश्य)
आकाशवाणी चेन्नई एवं दिल्ली से रचनाएं प्रसारित। दूरदर्शन मैट्रो से स्वलिखित नाटक में अभिनय। सौ से अधिक काहानियां व लगभग 750 लेख, कविताएंविभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
सम्मान:
साउथ चक्र, राजस्थानी एसोसियशन तमिलनाडु द्वारा 'राजस्थान श्री', तमिलनाडु हिंदी अकादमी, भारती भूषण, रामवृ्क्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी सम्मन, हिंदी सेवी सम्मन, साहित्यानुशीलन समिति राजस्थानी भाषा में डी.आर.लिट्, सुभद्राकुमारी चौहान जन्म शताब्दी सम्मन, भाषा रत्न सम्मन, साहित्य महोपाध्याय, भारती भूषण एवं अन्य कई सम्मान।
संप्रति: स्वतंत्र लेखन
पता: 469, मिंट स्ट्रीट, चेन्नई- 600079. फोन: 044-25203036


इनकी दो कविताएँ:


बूंद


बूंद
गिरी धरती पर
सौख़ ली गई
मानव पर पोंछ ली गई
समुन्दर में लुप्त हो गई
पेड़ पौधों की जड़ों में
जीवन दायिनी बन गई।
पत्ते पर गिरी
थोड़ी देर मोती सी चमकी
सूर्य की गरमी से
वाष्प बन उड़ गई।
एक बूंद विष मृत्यु की गोद में सुला देती है,
एक बूंद अमृत अमर बना देती है,
यह भी किसी ने नहीं जाना
बूंद को किसी ने
महत्व नहीं दिया,
वह क्रंदन कर उठी
लोग क्यों नहीं
कहतें हैं वह महान है।
बूंद बूंद घड़ा भरता है
क्या वे उससे भी अनजान हैं?


अग्नि नक्षत्र


तमिलनाडु में व
दक्षिणी प्रदेशों में
ग्रीष्म ऋतु में
एक महीना अग्नि नक्षत्र
प्रति वर्ष लगता है।
लगता तो पूरे भारत में होगा
परन्तु अहम् खास यहीं पा गया।

झूलसते हैं लोग
उनके जीव फ्ड़फ्ड़ाते हैं
भूमि, जीव-जन्तु, घास, पेड़,
पशु-पक्षी, उस महीने में
त्रस्त हो जाते हैं भयंकर
गर्मी से तोबा-तोबा कर उठते हैं।

पशु पक्षियों को तो छाया भी
विश्राम हेतु मिल जाती है
दैनिक मजदूरों को भरगर्मी में
पसीने में सराबोर होते हुए
काम करना ही होता है
जिनके पास
खाने को सुबह है तो शाम नहीं
उनके लिए अग्नि नक्षत्र का
कोई महत्व नहीं होता
होता है तो भी मजबूर है
हाँ धनी संपन्न लोग
सुविधा प्राप्त होने के कारण
एयरकंडीशनर कमरों में दुबक जाते हैं
ठंढे की तरह।



कवि मंच में आप भी भाग लें।

आख़िर है तो इंसान ही - किशोर कुमार जैन


मुझे भरोसा है एक दिन वे लोग मान जायेंगे
आख़िर है तो इंसान ही
अहिंसा के पथ से भटक गए है वो लोग
इंसानी चीख से वे भी दहल जायेंगे
बकरे की अमा कब तक मनाएगी खैर!
जब पकडे जायेंगे, तब याद आ जायेगी नानी
चिथड़े-चिथड़े होकर उडी थी उनकी देह
आए थे जानी अनजानी जगह से
न जाने संजोये होंगे क्या-क्या सपने
बस एक धडाम और हो गए सब चकनाचूर
इश्वर नही ले पाए तेरा नाम
कैसे कैसे नजारें है तेरी इस दुनिया के
पता नहीं कैसी कैसी दे रखी छूट
प्रकृति के साथ-साथ तेरी अनमोल कृति
मानव भी कितना बदल गया है
जानवरों सा दिमाग मानवों को भी देकर
बना दिया है कितना बेरहम
इसा ने कहा ,इन्हे माफ़ कर दे
पता नहीं वे क्या कर रहे है
कवि कहता है
सब के ऊपर मानव ही सत्य है
मानव ही देव मानव ही सेव
मानव बिन नहीं केव
फ़िर भी कैसा-कैसा बन गया है इंसान
पशु से भी बदतर हो गया है इंसान
नहीं हूँ हैरान मुझे भरोसा है
एक दिन सब बदल गया जाएगा
शान्ति से रहना चाहेगा
प्रेम की गंगा में बह जायेगा
मेरे भरोसे की लाज रखना हे भगवन
सबको आख़िर आना है तेरे पास।


किशोर कुमार जैन

चूल्हा घर का जलता देखा - शम्भु चौधरी



घर का चूल्हा जलता देखा
चूल्हे में लकड़ी जलती देखी
उस पर जलती हाँड़ी देखी,
हाँड़ी में पकते चावल देखे,
फिर भी प्राणी मरते देखे।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


खेतों में हरियाली देखी
घर में आती खुशहाली देखी
बच्चों की मुस्कान को देखा,
मन में कोलाहल सा देखा,
जब मंडी में भाव को देखा
श्रम सारा पानी सा देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


घर का चूल्हा जलता देखा
बर्तन-भाँडा बिकता देखा
हाथ का कंगना बिकता देखा,
बिकती इज्जत को भी देखा
खेत-खलिहान को बिकता देखा
हल-जोड़ों को बिकता देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


बैल को जोता, खुद को जोता,
बच्चों और परिवार को जोता
व्याज के बढ़ते बोझ को जोता
सरकार को जोता, फसल को जोता,
घरबार- परिवार को जोता
दरबारी-सरपंच को जोता,


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।


मुर्दों की संसद को देखा
बन किसान मौज करते देखा,
घर का चूल्हा जलता देखा
बेच-बेच ऋण चुकता देखा
फिर किसान को मरता देखा
फांसी पर लटकता देखा।


हाय.. रे..घर...का..चूल्हा...।
घर का चूल्हा जलता देखा।।

साहित्य शिल्पी पर टिप्पणियाँ



-शम्भु चौधरी, एफ.डी.-453/2,
साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106, मोबाइल: 0-9831082737.
16 नवम्बर'2008

स्मृति शेष: कन्हैयालाल सेठिया की कालजयी रचनायें



कन्हैयालाल सेठिया
११ सितम्बर १९१९ : ११ नवम्बर 2008


आज हिमालय बोला


जागो, जीवन के अभिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
लील रहा मधु-ऋतु को पतझर,
मरण आ रहा आज चरण धर,
कुचल रहा कलि-कुसुम,
कर रहा अपनी ही मनमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
साँसों में उस के है खर दव,
पद चापों में झंझा का रव,
आज रक्त के अश्रु रो रही-
निष्ठुर हृदय हिमानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !
हुआ हँस से हीन मानसर,
वज्र गिर रहे हैं अलका पर,
भरो वक्रता आज भौंह में,
ओ करुणा के दानी !
जागो, जीवन के अभिमानी !


कुँआरी मुट्ठी !


युद्ध नहीं है नाश मात्र ही
युद्ध स्वयं निर्माता है,
लड़ा न जिस ने युद्ध राष्ट्र वह
कच्चा ही रह जाता है,
नहीं तिलक के योग्य शीश वह
जिस पर हुआ प्रहार नहीं,
रही कुँआरी मुट्ठी वह जो
पकड़ सकी तलवार नहीं,


हुए न शत-शत घाव देह पर
तो फिर कैसा साँगा है?
माँ का दूध लजाया उसने
केवल मिट्टी राँगा है,
राष्ट्र वही चमका है जिसने
रण का आतप झेला है,
लिये हाथ में शीश, समर में
जो मस्ती से खेला है,
उन के ही आदर्श बचे हैं
पूछ हुई विश्वासों की,
धरा दबी केतन छू आये
ऊँचाई आकाशों की,
ढालों भालों वाले घर ही
गौतम जनमा करते हैं,
दीन-हीन कायर क्लीवों में
कब अवतार उतरते हैं?


नहीं हार कर किन्तु विजय के
बाद अशोक बदलते हैं
निर्दयता के कड़े ठूँठ से
करुणा के फल फलते हैं,


बल पौरुष के बिना शन्ति का
नारा केवल सपना है,
शन्ति वही रख सकते जिनके
कफन साथ में अपना है,
उठो, न मूंदो कान आज तो
नग्न यथार्थ पुकार रहा,
अपने तीखे बाण टटोलो
बैरी धनु टंकार रहा।

आज साथी बोल दो.... -प्रकाश चण्डालिया


मंच है प्रियवर तुम्हारा, भाव मन के खोल दो
जो बताना जग को चाहो, आज दिल से बोल दो
तुम न बोलोगे, जगत में बात फिर बोलेगा कौन
मिट ही जायेगा जहां, जो तुम रहे गुमसुम औ मौन
इस जहाँ को आज दिल के भाव से तुम तोल दो,
बोल दो, तुम बोल दो, आज साथी बोल दो....


प्रकाश चण्डालिया

अपना मंच से साभार

डॉ.विजय बहादुर सिंह की कुछ कविताएँ


डॉ. विजय बहादुर सिंह का परिचय:


प्रख्यात आलोचक और कवि डॉ.विजय बहादुर सिंह ने हाल में ही भारतीय भाषा परिषद में निदेशक के पद का कार्यभार सम्भाला है। 'नागार्जुना का रचना संसार', 'नागार्जुन संवाद', 'कविता और संवेदना', 'समकालीनों की नज़र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल', 'उपन्यास: समय और संवेदना, महादेवी के काव्य का नेपथ्य आदि आलोचना पुस्तकें तथा मौसम की चिट्ठी, पतझड़ की बांसुरी, पृथ्वी का प्रेमगीत, शब्द जिन्हें भूल गयी भाषा तथा 'भीम बेटका' काव्य कृतियां प्रकाशित। भवानी प्रसाद मिश्र, दुष्यंत कुमार और आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की ग्रंथावलियों का संपादन। आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की जीवनी 'अलोचक का स्वदेश' एवं शिक्षा और समाज सम्बंधी कृतियां ' आओ खोजें एक गुरु' और 'आजादी के बाद के लोग' प्रकाशित।


1. सच:


सच, सच की तरह था
झूठ भी था झूठ की तरह
फिर भी
मिलते जुलते थे दोनों के चेहरे
समझौता था परस्पर
थी गहरी समझदारी
राह निकाला करते थे
एक दूसरे की मिलकर
सच की भी अपनी दुकानदारियां थीं
मुनाफे थे झूठ के भी अपने
सच, सच की तरह था।


2. विश्वास


विश्वास
एक ऐसी खूंटी है
जिस पर टंगे हैं सबके कपड़े
उसके भी
जो विश्वासघाती है।


3. बरसों बाद


बरसों बाद बैठे हम इतने करीब
बरसों बाद फूटी आत्मा से
वही जानी-पहचानी सुवास
बरसों बाद हुए हम
धरती हवा आग पानी
आकाश...


4.क्षितिज


क्षितिज पर
छाई हुई है धूल
उदास धुन की तरह
बज रही है खामोशी...

सांस की तरह आ-जा रही है
वो मेरे फेफड़ों में
धड़क भी तो रहा हूं मैं
ठीक दिल की तरह...


5. अनकिया


अनकिया
गया नहीं किया
हूं
जितना कर गयीं तुम


6. पतझर


पतझर
लटका हुआ है पेड से
पेड़ की चुप्पी तो देखिये
देखिये उसका धीरज


7.इतनी खास हो तुम


करीब मेरे मगर खुद के आस-पास हो तुम
लहकती बुझाती हुई आग की उजास हो तुम
चहकते गाते परिन्दे की तुम खामोशी हो
खिली सुबह की तरह शाम सी उदासी हो तुम
हजार चुप से घिरी हलचलों के घेरे में
रूकी रूकी-सी हिचकती सी कोई सांस हो तुम
बने नहीं कि टूट जाय एक बुत जैसे
इतनी आम इतनी खास हो तुम।

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल


देवमणि पांडेय:4 जून 1958 को सुलतानपुर (उ.प्र.) में जन्मे देवमणि पांडेय हिन्दी और संस्कृत में प्रथम श्रेणी एम.ए. हैं। अखिल भारतीय स्तर पर लोकप्रिय कवि और मंच संचालक के रूप में सक्रिय हैं। अब तक दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- "दिल की बातें" और "खुशबू की लकीरें"। मुम्बई में एक केंद्रीय सरकारी कार्यालय में कार्यरत पांडेय जी ने फ़िल्म 'पिंजर', 'हासिल' और 'कहां हो तुम' के अलावा कुछ सीरियलों में भी गीत लिखे हैं। फ़िल्म ' पिंजर ' के गीत '' चरखा चलाती माँ '' को वर्ष 2003 के लिए 'बेस्ट लिरिक आफ दि इयर' पुरस्कार से सम्मानित किया गया।आपके द्वारा संपादित सांस्कृतिक निर्देशिका 'संस्कृति संगम' ने मुम्बई के रचनाकारों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई है। radiosabrang.com पर गीत-ग़ज़लों की ऑडियो प्रस्तुति|



ख़यालों में तुम्हारे जब कभी मैं डूब जाता हूं
जिधर देखूं नज़र के सामने तुमको ही पाता हूं

मोहब्बत दो दिलों में फ़ासला रहने नहीं देती
मैं तुमसे दूर रहकर भी तुम्हें नज़दीक पाता हूं

किसी लम्हा किसी भी पल ये दिल तनहा नहीं होता
तेरी यादों के फूलों से मैं तनहाई सजाता हूं

तेरी चाहत का जादू चल गया है इस तरह मुझ पर
ख़ुशी में रक्स करता हूं मैं ग़म में मुसकराता हूं

तुझे छूकर तेरी ख़ुशबू हवा जब लेके आती है
कोई दिलकश ग़ज़ल लिखता हूं लिखकर गुनगुनाता हूं

मेरे दिल पर मेरे एहसास पर यूं छा गए हो तुम
तुम्हें जब याद करता हूं मैं सब कुछ भूल जाता हूं

मेरी आँखों में तू ही तू मेरी धड़कन में तू ही तू
मैं हर इक साँस अपनी नाम तेरे लिखता जाता हूं



सम्पर्कः
देवमणि पाण्डेयः ए-2, हैदराबाद एस्टेट, नेपियन सी रोड, मालाबार हिल,
मुम्बई - 400 036, M: 99210-82126 / R : 022-23632727,

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बुझा सकता नहीं - प्रकाश यादव "निर्भीक"

हँसे हो तुम देख मेरी बदकिस्मती को,
तेरी यह हँसी ही मेरी किस्मत हँसा देगी;
मुड़ गए तुम देख मेरा पतझड़ जीवन को,
सोचा न कि इसमें भी बहार आयेगी।

अरे काँटों में रह रहा हूँ तो क्या हुआ,
कभी इस चमन में भी गुल खिलेगें;
आओगे मिलने तुम एक अफसोस के साथ,
क्या हम फिर पहले की तरह मिलेगें।

अरे टुट जाते हैं जो धागे एक बार भी,
जुट पाते नहीं सपाट वे फिर कभी;
अगर टुटना ही था इस दिल से भी,
तो जुटे क्यों थे इस दिल से कभी।

बदल गए तुम इतनी जल्दी कैसे,
मुझे तुमसे यह उम्मीद न थी;
तुममें यह अहं आ गया कबसे,
जबकि तुझमें यह सब बात न थी।

रह गया अकेला मैं तो क्या हुआ,
आना जाना है अकेला सभी को यहाँ;
मगर अजीज दोस्त वह दोस्त है,
जो छोडता नहीं कभी दोस्त का जहाँ।

कमजोर समझ बैठा शायद तुम,
इस टिमटिमाते मध्दिम प्रकाश को;
मगर लाख आँधी आये जीवन में,
बुझा सकता नहीं "निर्भीक" प्रकाश को।


प्रकाश यादव "निर्भीक"

अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in

असभ्य सभ्य पर हँसता है -प्रकाश यादव "निर्भीक"

आज एक अर्ध्दनग्न लड़की को,
एक सभ्य औरत पर हँसते देखा,
वजह बस इतनी थी कि,
औरत घुंघट ले गाड़ी मेँ,
अपनी इज्जत को खुद मेँ,
समेटे चुपचाप बैठी थी,
और वह आधुनिक लड़की,
कामुक वेश मेँ चौराहे पर खडी,
परोस रही थी अपनी जिस्म,
दुनियां को सरेआम,
और हँस रही थी उस औरत पर,
कैसा बदल गया जमाना अब,
असभ्य सभ्य पर हँसता है,
वाह वाही का हक पाता है,
और वह नारी,
जो भारतीयता की पहचान है,
जिसकी महिमा का गुनगान,
गुँजता है आदिग्रन्थोँ मेँ,
विषय बन जाती है हँसी की,
इन लडकियोँ के बीच,
कहाँ गई भारत की वह गरिमा,
जहाँ नारी देवी मानी जाती थी,
क्या यही है उसका प्रतिबिम्ब,
शायद सब कुछ बदल गया अब,
चोर उचक्के बन गये साधु,
लुटेरे बन गये देश के कर्णधार,
तो क्योँ न यह लडकी,
हँसे उस शालीन औरत पर-


प्रकाश यादव "निर्भीक"

अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in

हाँ,मैं कलम हूँ - सुनील कुमार सोनू

मैं औरों की तरह नही मित्रा
सजा-संवरा कोई वास्तु नहीं
मुझे गहे बिना आजतक
हुआ कोई अरस्तु नहिं
परिचय क्या दूं अपना
हूँ मै केवल हकीकत
बाकी सारे दिवा-सपना
बेजान हूं पर जन लिए हूं
मृत हूँ पर मुस्कान लिए हूं
मै ही सत्यम -शिवम्- सुन्दरम हूं
आहा ! ठीक कहा आपने,मैं तो कलम हूँ
हाँ,मैं कलम हूँ जिसमें
सुभाष की दृढ़ता है,भगत की निडरता है
शेखर की स्वतंतत्रा है,गाँधी की सहिष्णुता है
हाँ, मैं ही कलम हूँ जो
राणा या झाँसी की तलवार है,कुंवर या तिलक की ललकार है
अभिमन्यु या खुदीराम की वार है,हिमालय या शिवाजी सी पहरेदार है
हाँ, मैं कलम ही हूँ जिसने
तुलसी,कबीरा नानक को अमर किया
भाव- वेदना-संवेदना को सुंदर किया
हाँ, मैं कलम ही हूँ जिसने
एकता-विद्वता-मित्रता का पाठ पढ़ाया
प्रेम-त्याग-संकल्प का जाप कराया
हाँ,मैं कलम हूँ जो
चंदन में आग खोज लेता है
बिरानों में अनुराग खोज लेता हे
हाँ,मैं कलम हूँ जो
बिना मौसम के
गर्मी पैदा करवा दूँ
कहो तो अभी आंखों से
हजारों झरने बहवा दूँ
हाँ,मैं कलम हूँ जो
श्रृष्टि के पहले भी था
और बाद तक रहेगा
अंत में बस यही कहूँगा
देवी-देवता,नर-नारी
पशु-पक्षी या प्राणी संसारी
सारे के सारे विनाशी हैं
एक अकेला कलम है
जो चिर-अविनाशी है


सुनील कुमार सोनू


संपर्क पता:
SUNIL KUMAR SONU
36th ADC student NIFFT HATIA,Ranchi-834003
(Jharkhand)
mob no.9852341209

E-mail:sunilkumarsonus@yahoo.com

आस्था -मुकेश पोपली

अचानक ही क्यों
जाग जाती हो तुम
तुम क्यों नहीं
बनाती अपनी कोई
पंचवर्षीय योजना
तुम क्यों नहीं
सजाती अपनी कोई
बड़ी सी दुकान

तुम क्यों नहीं
बड़बड़ाती जब कोई
तुम्हें एकदम से
याद करता है
तुम क्यों नहीं
भटकाती जब कोई
अटकाता है रोड़े
तुम्हारे रास्ते में

मुझे बरगलाओ मत
यह सब तुम
करती हो मगर
देख नहीं पाता
तुम्हारे प्रेम में डूबा
कोई पागल
क्योंकि
तुम ही तो
हो एक विश्वास
सच्चे हृदय का
सच्ची भावना का
सच्चे लक्ष्य का
सच्ची प्रेम-गाथा का ।


मुकेश पोपली

सूरज तुम जलते रहना -सचीन जैन

सूरज तुम जलते रहना, सूरज तुम जलते रहना,
तुम्ही से जीवन, तुम्ही से तन मन,तुम्ही से धूप और ये छाँव,
दिन और ये रात तुमने बनाए, प्रक्रति की कैसी लालिमा दिखाई,
दिया तुमने हमको ये जीवन निराला, जो तुम पर है निर्भर मांगे तुम्हारा उजाला,
आखिर क्यों तुमको पड़ता है जलकर भी जीना, क्या आता नहीं कभी तुम्हे पसीना,
क्यों तुम्हे दूसरों के लिए तडपना, क्या कोई नहीं है तुम्हारी सुनने वाला,
या कोई अन्य ही है कारण, या ये जलता ही है अकारण,
इसी उधेड़बुन में मैं हो गया परेशान, पर जल्द ही मिल गया मुझे समाधान,
उसी रात सूरज मेरे सपने मैं आया, उसने मुझे ये समझाया,
अरे अपने लिए तो सबको है जीना, बहाए जो दूसरों के लिए पसीना,
जो आए दूसरों के सदा काम, वही है सचमुच महान,
यही सोच कर मैं जलता हूँ, इसलिए ही उजाला करता हूँ,
सूरज के ऐसे विचार सुनकर, मैं बैठ गया बिस्तर से उठकर,
मन मैं सूरज के लिए श्रधा के भाव जागे, हम मनुष्य कुछ भी नहीं सूरज के आगे,
हमे भी चाहिए कुछ ऐसे जीना, की किसी के काम आए अपना पसीना,
तभी हम सचे मनुष्य कहलाएंगे, अपना जीवन सफल कर जाएंगे......


परिचय:
सचीन जैन:
DOB: 07-08-1982 , Started my own Software venture related to India's education industry and working to make that successful. Being so busy in life, give sometime to the poetry and hindi.
9873763210
Noida.

समय - ई. नीलिमा गर्ग

1. समय

मुट्ठी में   बंधी  रेत की तरह
फिसल रहा है हाथ से
समय
बँधा क्यूं नही रहता
कुछ ख़ूबसूरत लम्हो की तरह
समय बहता रहता है दरिया की तरह
समय
पलट कर नही आता 
नही दिखता गुज़रे वक़्त की परछाई 
दर्पण में पड़ी लकीरो की तरह 


2. उमंग

बसन्त की उमंगों में
इन्द्रधनुषी रंगों में
बस तेरा नाम महकता है.............

सावन की फुहरों में
मन वीणा के तारों में
तेरी ही धुन बजती है................

उषा की अरूणाई में
सुनहली चम्पई साँझ में
तुम ही तुम शामिल हो............

मलयज पवन के झोंकों में
महकी मदिर बयार में
तुम्हारें ही अहसास है.............


ई. नीलिमा गर्ग


Address:
Er . neelima garg
chander road dalanwala
dehradoon
I am an engineer by profession . I always found Hindi interesting so writing poems in hindi to give voice to my feelings.

रावण - सुरिन्दर रत्ती - मुंबई

आज अख़बार में एक ख़बर पढ़ी
रावण का कद छोटा हो गया है ।
मैं पढ़ कर थोड़ा हैरान हुआ
महंगाई ने भले ही रावण का कद
छोटा कर दिया हो
लेकिन रावणों के ग़लत मंसूबों पर
पानी फेरना अत्यंत कठिन काम है ।
रावण आज भी हमारे हृदय में बसता है ।
राम को दिल में रखने की जगह नहीं है ।
रावण के दस सिर हैं
और दस सिरों में से अनेक प्रकार के
विषय-विकार जन्म लेते हैं ।
आज के आधुनिक युग में,
विभीषण भी बहुत हैं
और रावण भी बहुत हैं
देश और धर्म की सेवा करनेवाले
विरले ही नज़र आते हैं ।
रावण वो विशाल वृक्ष है,
जिसकी जड़ों पर हर इंसान
अपने स्वार्थ का पानी डाल कर,
उसको पुष्टि देता है, ताक़त देता है ।
आज हम सब लोग रावण के हाथ
मज़बूत कर रहे हैं ।
कौन कहता है के रावण मर गया है,
उसका कद छोटा हो गया है ।
आप अपने इर्द-गिर्द देखेंगे तो
राम के भेस में रावण नज़र आयेंगे,
हम सभी रावण की ही भक्ति
रोज़ करते हैं ।
उसकी हर बुराई की नकल करते हैं,
उस पर अमल करते हैं ।
हमारे देश भारत में
प्रतिदिन सीता की इज्ज़त नीलाम होती है
और लोग सिर्फ़ तमाशा देखते हैं ।
आप कह सकते हैं, युग बदला है
लेकिन हमारा स्वभाव, हमारी बुरी आदतें
नहीं बदली ।
हमारे विषय-विकारों का दायरा,
रावण के कद से कई लाख गुणा बड़ा है ।
रावण हमारी प्रेरणा का साधन बन गया है ।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वचन
किताबों तक ही सीमित रह गये हैं
और हम सिर्फ़ रामराज की कल्पना ही
कर सकते हैं ।
आप ही बताईये रावण के भक्त
राम की भक्ति कैसे कर सकते हैं?
मन में राम को बसा लो या रावण को,
क्योंकि मन तो हमारे पास एक ही है ।
गुरूग्रंथ साहिब की गुरूबाणी में लिखा है
"एक लख पूत सवा लख नाती
तिस रावण के घर दीया न बाती"
तो साथीयो कहने का अर्थ यह है
बुराई पर अच्छाई कि विजय अवश्य होगी ।
ये बात आप स्वर्ण अक्षरों में लिख लो ।


सुरिन्दर रत्ती - मुंबई


परिचय:
नाम : सुरिंदर रत्ती
पता : ओमकार का-आप हाउसीन्ग सोसायटी, म-१-डी, रुम न. ३०४,
सायन, मुम्बई - ४०० ०२२.
उम्र : ४५ वर्ष
सर्विस : यूनिवर्सल म्युज़िक इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (मेनेजर प्रोडक्ट इन्फोर्मेशन ) मुम्बई
शिक्षा : बी.कॉम, मुम्बई यूनिवर्सिटी, और हिन्दुस्तनी शास्त्रीय संगीत की जानकारी ली
रुचि : गीत-संगीत लिखना और गाना, पुस्तकें पढना, काव्य गोष्टीयों में भाग लेना,
फोटोग्राफी, ट्राव्लींग इत्यादी
कुछ समय पहले मेरी दो आडियो केसेट आ चुकी हैं और एक पुस्तक पर काम चल रहा है.
उसमें कवितायें, शेरो-शायरी, गज़ल शामिल करुंगा.

ओबामा - सुरिन्दर रत्ती - मुंबई



ये नाम हो गया है जाना पहचाना,
अरे वही अपना राष्ट्रपति ओबामा
आ गयी है हाथ अमेरिका की कमान,
उपरवाले के बाद सब लेंगे तेरा ही नाम
अमेरिकावालों ने क्या घोल पिलाया,
सब नेताओं ने बधाई संदेश भिजवाया
पहले रटते बुश-बुश अब रटते ओबामा,
देखिये जनाब, कैसे करवट बदल रहा है ज़माना
छोटे बडे़ सब लोग तुझ पे फिदा हो चले,
शायद अपनी रूकी गाड़ी भी, अब चल निकले
अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर ले आओ,
ओबामा अल्लादीन की जादुई छड़ी घुमाओ
जातिवाद, गोरे-काले का भेद मिटना,
इंसानियत का सच्चा परचम लहराना
आसमां से फरिश्ते भी तुमको देंगे दुआए,
दिल से दिल मिलेंगे पुरी होंगी सब कामनाएं
"रत्ती" एकता का ही पैग़ाम देते जाना,
मंज़िल तुम्हारे क़दम चूमेगी ओबामा


सुरिन्दर रत्ती - मुंबई

परिचय:

नाम : सुरिंदर रत्ती
घर का पता : ओमकार का-आप हाउसीन्ग सोसायटी, म-१-डी, रुम न. ३०४,
सायन, मुम्बई - ४०० ०२२.
उम्र : ४५ वर्ष
सर्विस : यूनिवर्सल म्युज़िक इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (मेनेजर प्रोडक्ट इन्फोर्मेशन ) मुम्बई
शिक्षा : बी.कॉम, मुम्बई यूनिवर्सिटी, और हिन्दुस्तनी शास्त्रीय संगीत की जानकारी ली
रुचि : गीत-संगीत लिखना और गाना, पुस्तकें पढना, काव्य गोष्टीयों में भाग लेना,
फोटोग्राफी, ट्राव्लींग इत्यादी
कुछ समय पहले मेरी दो आडियो केसेट आ चुकी हैं और एक पुस्तक पर काम चल रहा है.
उसमें कवितायें, शेरो-शायरी, गज़ल शामिल करुंगा.

कुछ पाया मैंने और खो भी दिया - पवन निशान्त

कुछ पाया मैंने और खो भी दिया
जिया भोगा चखा-एक एहसास पाला
उसे नाम दिया-प्रेम
ऐसे ही कि जहां से आया हूं लौटना है
उठा हूं डूबना है, सिमेटा है उसे-बिखेरना है
उसे नाम दिया परमात्मा
तब तुमसे अवांछित शिकायतें कैसी
नियम-रीति मुंह फाड़े चिल्ला रहे हैं-
पाये को लौटाना है प्रतिपल प्रतिरूप प्रतिबिम्ब
पर जीवन का वास्ता है-लौटाना है।
चांद बुलाता है तारे बुलाते हैं सीमाएं बुलाती हैं
चोटिया बुलाती हैं गहराइयां भी बुला ही लेती हैं आदमी को
और तुमने बुलाया उसी अंदाज में मुझे
सबसे निकट अपने। फिर भुला दिया सोचना
मुझे या कि मेरे लिए तुम बुलाने लगे-दूर को
चांद को तारों को कंचनजंगा को प्रशांत को
तुम कहती हो-कोई निमंत्रण देता है।
जबकि सुंदरता दूर की वस्तु है
मैं जो स्वयं में हूं-तुम, तुम्हारे स्मरण में नहीं आता
तो जो है तुम्हारे भीतर पुकार वहां की
चली गयी है निविड अंधेरे में, इच्छाओं के अतल में
जबकि तुम्हारा तल मेरे भीतर है
और क्या मिट सकता हूं मैं जो कि अनंत है
शाश्वत है प्रेम-परमात्मा
सागर मिटा है लहर के बिना जबकि लहर उठी है
खेली है-वक्ष पर उसके
और फिर रूठ भी गयी
जबकि आंधियां तूफान उठे हैं हवाओं में और बिखर भी गए

ग्रह नक्षत्रों की जो सत्ता मैंने जीत ली थी
आज तुम्हारी वजह से लौटाने जा रहा हूं.....

पवन निशान्त

वो सुबह कभी तो आयेगी -महेश गुप्त ख़लिश

वो सुबह कभी तो आयेगी जब दुनिया का रंग बदलेगा
रातों की सियाही जायेगी सूरज का उजाला उंडलेगा

वो सुबह कभी तो आयेगी झूमेगी हवा आज़ादी से
जब हौंठ तराने गायेंगे फिर मिलेंगे दिल बेताबी से

वो सुबह कभी तो आयेगी मन में न किसी का डर होगा
जब ज़ुबां खौफ़ न खायेगी मन चाहा एक डगर होगा

वो सुबह कभी तो आयेगी मर्द औरत में न फ़रक होगा
बहुओं को जलाने का जिस दिन दुनिया में नहीं करतब होगा

वो सुबह कभी तो आयेगी जब ख़ून की होली न होगी
बच्चे न भूखे सोयेंगे सपनों से नींद भरी होगी

वो सुबह कभी तो आयेगी अमरीका जब पछतायेगा
मिट्टी के घरों पर अम्बर से बम गोले न बरसायेगा

वो सुबह कभी तो आयेगी होगा जब राज गरीबों का
शाहों के महल ढह जायेंगे मुफ़्ती का नहीं होगा फ़तवा

वो सुबह कभी तो आयेगी जब एक ख़ुदा सब का होगा
न यीशु, राम और अल्लाह से लड़ने का सबब पैदा होगा

वो सुबह कभी तो आयेगी सब मिल कर रहना सीखेंगे
सब एक खु़दा के बंदे हैं ये धर्म निभाना सीखेंगे.


महेश गुप्त ख़लिश
Prof. M C Gupta
MD (Medicine), MPH, LL.M.,
Advocate & Health and Medico-legal Consultant


१ अप्रेल २००३
[ईराक युद्ध के तेरहवें दिन लिखी गयी कविता. युद्ध २० मार्च को आरम्भ हुआ था]

दूर अँधेरा करे जो दिल - देवमणि पांडेय



मुश्किल सफ़र है फिर भी मंज़िल तुम्हें मिले
मझधार में हो नाव तो साहिल तुम्हें मिले
हमने ख़ुदा से रात दिन मांगी है यह दुआ
हर हाल में जो ख़ुश रहे वो दिल तुम्हें मिले

*****

बादल की तरह हमको छुपा ले जो धूप में
ऐसा तो एक दोस्त भी क़ाबिल नहीं मिला
भटकी रही हमेशा ये लहरों के दरमियां
इस ज़िंदगी को आज तक साहिल नहीं मिला

*****

याद के सहरा में अब जाऊं तो जाऊं किसलिए
थम गए आँखों के आँसू हिचकियां कम हो गईं
रेज़ा रेज़ा होके टूटा मेरे का दिल का आईना
दोस्ती में अब मेरी दिलचस्पियां कम हो गईं

*****

कौन है दोस्त यहां यार किसे कहते हैं
किसको ख़ामोशियां इज़हार किसे कहते हैं
फूल देकर किसी लड़की को रिझाने वालों
तुमको मालूम नहीं प्यार किसे कहते हैं

*****

साथ तेरा मिला तो मुहब्बत मेरी
दिल के काग़ज़ पे उतरी ग़ज़ल हो गई
तूने हँस के जो देखा मेरी ज़िंदगी
झील में मुस्कराता कँवल हो गई

*****

तेरी हर अदा है कमाल की
कि अज़ीब तेरा ये नाज़ है
जिसे सुनके गाती है ज़िंदगी
तू धड़कनों का वॊ साज़ है

*****

तेरे हुस्न में है बड़ी कशिश
तेरी आंख प्याला शराब का
है बदन की ख़ुशबू इस तरह
तू है फूल जैसे गुलाब का

*****

ग़मज़दा आँखों का पानी एक है
और ज़ख़्मों की निशानी एक है
हम दुखों की दास्तां किससे कहें
आपकी मेरी कहानी एक है

*****

हमको तुमको हर हालत में अपना फ़र्ज़ निभाना है
राह से भटके हर राही को मंज़िल तक पहुँचाना है
दिल से दिल तक सीधी सच्ची प्यार की कोई राह बने
दूर अँधेरा करे जो दिल का ऐसा दीप जलाना है

कुछ मुक्तक [कविता] - देवमणि पांडेय
http://www.sahityashilpi.com/

रोज मरने का इंतज़ार - शम्भु चौधरी

उसे पहले अपने खून से सींचा,
फिर उसे अपने दूध से पाला,
आँसुओं को आंचल से पोंछ
उसे आंचल में छुपाया,
जब वह खड़ा हुआ तो
एक नई नारी ने प्रवेश कर
पुरानी नारी को
वृद्धाश्रम की याद दिला दी।
कारण स्पष्ट था,
न तो उसे
फिर से जन्म लेना था,
न ही उसे- उस औरत के आंचल में
फिर से छुपना ही था,
न ही उसे- उसके किसी कष्ट का
होता था आभास,
बस करता था-
रोज मरने का इंतज़ार,
बस करता था-
रोज मरने का इंतज़ार।

-शम्भु चौधरी,
एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी, कोलकाता-700106

बकरे की जुबान - महेश कुमार वर्मा

देख देख इस मुर्ख मनुष्य को!!
करता है ये छठ पर्व
चाहता है हजारों कामना
छठ करने के लिए
कितनी सारी व्यवस्था करता है
भगवान से हजारों कामना चाहता है
खरना करता है

उपवास करता है
नदी जाता है
सूर्य को अर्ध्य देता है
ताकि उसकी मनोकामना पूर्ण हो
पर उसका नहाय-खाय
खरना, उपवास
व सूर्य को अर्ध्य देना
सब तब हो जाता है बेकार
जब छठ के तुरत बाद
वह भूल जाता है
अपने धर्म व कर्म को
और करता है
मुझपर बेवजह प्रहार
सिर्फ मैं ही नहीं
मुझ जैसे हजारों

बकरे मारे जाते है
छठ के पारण दिन
लेते हैं ये निर्दयी मनुष्य
बेवजह हमारी जान
नहीं है इन्हें अपने धर्म की पहचान!
नहीं है इन्हें अपने धर्म की पहचान!!

मुर्ख मनुष्य
करके हमारा बध
छठ के अपने पुण्य को
खुद मिटा देता है
और ले आता है
अपने खाते में
सिर्फ पाप ही पाप!

अरे मुर्ख व पापी मनुष्य!

हमें मारकर तुम
तरक्की कर सकते नहीं
शांत तुम रह सकते नहीं
चैन से सो सकते नहीं!
चैन से सो सकते नहीं!!


अरे निर्दयी व कातिल मनुष्य
मेरी गलती मुझे बताओ
मेरा अपराध मझे बताओ
तुमने हमें क्यों मारा?

मुझ बेगुनाहों को क्यों रुलाया?
मुझ बेगुनाहों को क्यों रुलाया??

कहता है तुमसे ये बकरा
अपना भविष्य तुमने ख़ुद है उकेरा
अवश्य मिलेगा तुम्हें हमें मारने का फल

अवश्य मिलेगा तुम्हें हमें मारने का फल
जाएगा तुम्हारा सारा व्रत निष्फल!
जाएगा तुम्हारा सारा व्रत निष्फल!!




रचयिता : महेश कुमार वर्मा

"एक दिन" - ओमप्रकाश अग्रवाला


पता नहीं किस धुन में था,
या रात पढ़ी किताब का असर था
सुबह जूतें नही बाँध कर
चप्पल पहने ही निकल गया था।


दफ्तर में,
रामदीन को आवाज़ नहीं दे कर
ख़ुद ही  उठ कर
पानी पी आया।


तालिया बजाने वाले इन हाथो से
"मजदूरों की समस्या" सेमिनार में बोलते
स्वामीनाथन के अमेरिकी
गिरेबान को  पकड़ बैठा।

 
शाम को
बार में जाते जाते
ठिठक  कर रुक गया,
बाहर बैठे  बच्चो को
अपना पर्स दे कर चला आया।  


आते वक्त
आखिरी आधा रास्ता
रिक्शे वाले को पिछली सीट पर बैठा
मैं रिश्ता खींचता रहा।
 (मैंने शराब नहीं पी थी)


शायद उस सुबह मैं
घर पर ही रह गया था
निकलते वक्त ख़ुद को
घर पर ही छोड़ गया था।

 
ओमप्रकाश अग्रवाला, गुवाहाटी (असम)
Email: opg_fca@sify.com

विस्फोट का धुंआ उठ रहा है -Binod Ringania



दफ्तर से देखा कि
विस्फोट का धुंआ उठ रहा है
और
वह मेरे भीतर जमा हो रहा है।

कितने विस्फोट हुए
खबरची पूछ रहे थे
गिनती पूरी नहीं हुई थी
मेरे अंदर विस्फोट जारी थे

इतनी बार
मरा मैं
मौके पर और अस्पताल में
कि और
मरने की
ताकत नहीं बची।


-Binod Ringania
Guwahati, Assam, India
http://diarywriter.blogspot.com/