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कुछ पाया मैंने और खो भी दिया - पवन निशान्त

कुछ पाया मैंने और खो भी दिया
जिया भोगा चखा-एक एहसास पाला
उसे नाम दिया-प्रेम
ऐसे ही कि जहां से आया हूं लौटना है
उठा हूं डूबना है, सिमेटा है उसे-बिखेरना है
उसे नाम दिया परमात्मा
तब तुमसे अवांछित शिकायतें कैसी
नियम-रीति मुंह फाड़े चिल्ला रहे हैं-
पाये को लौटाना है प्रतिपल प्रतिरूप प्रतिबिम्ब
पर जीवन का वास्ता है-लौटाना है।
चांद बुलाता है तारे बुलाते हैं सीमाएं बुलाती हैं
चोटिया बुलाती हैं गहराइयां भी बुला ही लेती हैं आदमी को
और तुमने बुलाया उसी अंदाज में मुझे
सबसे निकट अपने। फिर भुला दिया सोचना
मुझे या कि मेरे लिए तुम बुलाने लगे-दूर को
चांद को तारों को कंचनजंगा को प्रशांत को
तुम कहती हो-कोई निमंत्रण देता है।
जबकि सुंदरता दूर की वस्तु है
मैं जो स्वयं में हूं-तुम, तुम्हारे स्मरण में नहीं आता
तो जो है तुम्हारे भीतर पुकार वहां की
चली गयी है निविड अंधेरे में, इच्छाओं के अतल में
जबकि तुम्हारा तल मेरे भीतर है
और क्या मिट सकता हूं मैं जो कि अनंत है
शाश्वत है प्रेम-परमात्मा
सागर मिटा है लहर के बिना जबकि लहर उठी है
खेली है-वक्ष पर उसके
और फिर रूठ भी गयी
जबकि आंधियां तूफान उठे हैं हवाओं में और बिखर भी गए

ग्रह नक्षत्रों की जो सत्ता मैंने जीत ली थी
आज तुम्हारी वजह से लौटाने जा रहा हूं.....

पवन निशान्त

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