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क्रांति - प्रणव सक्सेना 'अमित्रघात'


उठो,उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका जिन्होंने उसे
कार मैं खिंचते दूर -देर तक देखा है
जो मुंह दबा हँसतें हैं और
असंख्य किरचों से
बिधि -दहपट -आधी उधडी
देह देखने की तीव्र इच्छा से जुटते हैं ,
जो उसकी करुण टेर
सुनकर भी अनसुना कर
दुरते - दुर्राते निकल गए
और जो
सरिश्ता पांतों में बंकाई से उसे देख कर
उत्तप्त उच्छवसन से दरेरते हाथ हैं
जो फेला समझ
प्रतिरूप उसकी उसके गुजरते ही
हेलकर दरीचों के कांच
ढांपती है तुंरत कनात से
और खटखटाते हैं जो कपट
निस्तब्ध अर्धरात्रि को
नगरवधू मान कर
जो रोक सकते थे मगर रोका नहीं जिन्होंने
परिसरण करती ही रही कदराई
रक्त बन जिन शिराओं में
जो खड़े ही रहे तावत
मृत आत्मा की बजबजाती लाश
काँधे लिए
हैबतनाक चुप्पी ओड़कर
उठो उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका .....
की तभी तिमिर भेदती आती है आवाज ठक की
बह उठा मृत रक्त मेरे ही कपाल से
और में स्तब्ध डबकोंहा सा जो बीङिया बन एकंग खड़ा था
आहत हो गिर धरा पर सुनता हूँ तुमुल संघोष
आगत क्रान्ति के पदचाप का
उस पत्थर को चूम
दम तोड़ता हूँ
अपने इस अंत पर मुग्ध हुआ जाता हूँ



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प्रणव सक्सेना 'अमित्रघात'
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