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श्रीमती कुसुम सिन्हा की दो कविता


मतवाली शाम


पश्चिम के नभ से धरती पर
फैलाती सोने की चादर
कुछ शर्माती कुछ मुस्काती
फूलों को दुलराती कलियों को सहलाती
अपने घन काले कुन्तल
पेडों पर फैलाती
धीरे धीरे धरती पर पग धरती
आई मतवाली शाम
कोयल की कू कू के संग
कू कू करती स्वर दोहराती
झीगुर के झंकारों की
पायल छनकाती
मन के सपनों में रंग भरती
स्वप्न सजाती आई शाम
शीतल करती तप्त हवा को
बाहों में भरकर दुलराती
पेडों के संग झूम झूम कर
कुछ कुछ गाती कुछ कुछ हंसती
सासों में शीतलता भरती
आई रंगीली शाम
प्रियतम से मिलने को आतुर
जल्दी जल्दी कदम बढाती
इठलाती सी नयन झुकाए
तारोंवाली अजब चूनरी
ओढे आई शाम
होने लगे बन्द शतदल भी
भ्रमर हो गए बन्दी उसके
मुग्ध हो रहा था चन्दा भी
देख देख परछाई जल में
बढा हुआ चिडियों का स्वर था
निज निज कोटर में बैठे सब
नन्हें शिशु को कण चुगाती
हंसती आई शाम



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ये बसन्ती हवा



ये बसन्ती हवा आज पागल सी लगती है
फूलों की गन्ध लिये
दौडती सी भागती सी
पल भर ठहरती है
पेडों की फुनगी पर
मगर दूसरे ही पल
दूर भाग जाती है
ये बसन्ती हवा आज पागल सी लगती है
धान के खेतों को
छेड छेड जाती है
इतराती आती है
बलखाती जाती है
कोयल की कू कू संग स्वर को मिलाती है
अभी यहां अभी वहां
पता नहीं पल में कहां
कितनी है चंचल यह
कितनी मतवाली है
मन में ना जाने कैसी प्यास जगा जाती है
फुलों के कलियों
कानों जाने क्या
भंवरों का संदेशा
चुपके कह जाती है
सरसों के फूलों संग खिलखिलकर हंसती है
बरगद की छाया में
थके हुए पंथी पास
पलभर ही रुक के
सारी थकन चुरा जाती है
ये बसन्ती हवा आज पागल सी लगती है



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कुसुम सिन्हा का परिचय:


आपको साहित्य में अभिरूचि पिता से विरासत में मिली। पटना युनिवर्सिटी से हिन्दी में एम.ए. किया और बी.एड. भी। आप गत २५ वर्षों से विभिन्न विद्यालयों में हिन्दी पढाती रहीं हैं । १९९७ में अमरीका चली गई । अमरीका में भारतीय बच्चों को हिन्दी पढ़ाने के लिए 'बाल बिहार' नामक एक स्कूल से जुड़ गई। तभी से कहानी, कविताएं लिखने का काम पूरे मनोयोग से करने लगी। अमरीका से प्रकाशित कई पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती है। विश्वा साहित्य कुन्ज, सरस्वती सुमन, क्षितिज, आदि आपके काव्य संग्रह 'भाव नदी से कुछ बूंदे' प्रकाशित हो चुकी है। दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।

Address:
Kusum Sinha
1770 Riverglen Drive
Suwanee, GA 30024

E-mail: kusumsinha2000@yahoo.com



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