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पापा - पूजा शर्मा, कोलकाता

पापा मैं तेरी  काँच की गुड़िया  
सम्भालो  मुझे नहीं  तो टूट  जाऊँगी 
क्यों  लड़ाते हो  लाड   इतना  
छोड़  कर  तुमको  एक  दिन  चली  जाऊँगी  

बना  के आँखो का  नूर  
पलकों  पर  सजाते  हो मुझे   
जब  आएगा  सैलाब  जज्बातो  का 
तो आँशु बन  के बाह  जाऊँगी 

जो  गिरती  हूँ   तो थाम  लेते  हो 
जो कहती  हूँ  वो मान  लेते हो        
यूँ रखोगे  जो हथेलियों  पर  तो 
हाथ  छुड़ा  के ये कैसे  जाऊँगी   

बत्ती  मेरे कमरे  की जलती  है... 
तो पापा मेरे सो नहीं पाते.... 
बाते  अपने  मन  की.... 
मुझसे  वो कह  नहीं पाते.... 
आँखे कहती है उनकी   
बचपन  को यही   छोड़ जाऊँगी ।              


आ जाती  है वो घडी  भी  
जब बेटी  को जाना  होता  है 
नए  रिश्तो से रिश्ता  निभाना  होता है     
टूटते  बिखरते  मैं संभल  जाउंगी   पापा , 
मैं आपका  मान स्वाभिमान  बन 
उस घर  जाऊँगी उस  घर जाऊँगी 
पूजा शर्मा, कोलकाता

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