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जड़ें

सुशील कुमार

जन्म : १३ सितम्बर, १९६४, पटना सिटी में, किंतु पिछले तेईस वर्षों से दुमका (झारखण्ड) में निवास। शिक्षा : बी०ए०, बी०एड० (पटना विश्वविद्यालय) सम्प्रति : घर के हालात ठीक नहीं होने के कारण पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की - १९९६ में लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में संप्रति +२ जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर प्रकाशन : हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने में गहरी रुचि. कविताएँ कई प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित
E-Mail:sk.dumka@gmail.com


जड़ें
बढ़ती ही जाती हैं
अंधेरे में
अतल गहराईयों में
अपने आस-पास सदैव
मिट्टियों को थामे हुए।
जड़ें
बेख़बर हैं
बसंत से पतझड़ तक
पृथ्वी की उपरी सतह के हर मौसम से।
जड़ें तो
तल्लीन होकर
सोखती रही हैं
धरती का सत्वजल
और फैलाती रही हैं
निरंतर उसे
शाखाओं-प्रशाखाओं से,
लताओं-गुल्मों-फुनगियों-कल्लों तक।
जड़ें
टकरा रही हैं
पृथ्वी के गर्भ में
चट्टानों से
गर्म तैलीय लावा से
उफनते धुँओं से भी
आघात से जिसके नित
टूटते-फूट रहे हैं
जड़ों के असंख्य रोएँदार कोमल रोम।

जड़ें चाहे जितनी बेचैन रही हों
दुख:कातर और निस्सहाय भी,
पर भेदती रहती हैं सतत
धरती का सीना,
सहती जाती हैं
धरती की सीलन-तपिश,
फिर भी आकुल रहती है
हरदम
भीतर धँसने को।
पेड़ों को क्या मालुम कि
इस कठिन यात्रा में
जड़ें
मर रही हैं,
सड़ रही हैं
फ़िर भी
हर क्षण लड़ रही हैं
हर विघ्न-रोड़ों से
पेड़ों के जीवन के वास्ते।
जड़ों की चिंता
वाज़िब है,उस पर
गर्व होता होगा पेड़ों को !
हॉलाकि मालुम है सबको कि
जंगल बचे हैं जड़ों से ही
पूरी दुनिया में।
जड़ों ने
वन्य-संसार में
श्रम की संस्कृति रच रखी है
और खड़े किये हैं
अपने कंधों पर
जंगलों का गौरवमय इतिहास,
फिर भी मजलूम है
हमारे समाज में
जड़ें
जैसे दुनियाभर के इतिहास में
मेहनतकश घट्ठाये हमारे हाथ
मजलूम हैं
जिसने सिरजा है बड़े जतन से
विश्व में पूरी मानवता।
यह सोचना कितना
हैरत-अंगेज है कि
तख़त-ए-ताऊसों से इमारतों तक
जड़ों के कहीं नाम नहीं!
जहाँ भी जड़ें साबूत बची हैं
(ठूँठ बादिय़ों में भी,)
जीवन के फ़िर से
लौट आने की
वहाँ संभावना अभी अशेष है
किंतु जड़ों के नसीब में
बदा है सिर्फ़
रात की
सियाही हर क्षण
नहीं प्रकाश का एक कण।
पेड़ों को देखकर लगता है कि
जब हम भी
अपनी जड़ों से
कटने लगते हैं,
पेड़ों की तरह ही
सुखने लगते हैं
तड़पने लगते हैं,
जिजीविषा
बेचैन हो उठती हैं
हममें भी।
जड़ें मरकर भी
हमारी मिट्टी को पकड़े रहती हैं
और हमारी नीवों को
स्खलन से बचाती हैं,
हमारे पुरखों के किये-धरे की तरह।
किसको पता नहीं कि
जिनकी जड़ों में
रोगाणु लग जाते हैं
उनके साबूत बचने के आसार
कम ही रहते,
उन वृक्षों को घुन लग जाते है।

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2 comments:

अशोक सिंह said...

"जड़े" सुशील कुमार की बेहतरीन कविता है। बार-बार पढ़ने को जी चाहता है।-अशोक सिंह,दुमका।

Anita kumar said...

बेहतरीन रचना,