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‘‘स्वप्न’’ - देवेन्द्र कुमार मिश्रा

सपना तब होता है सपना
जब खुलती है नींद
चलते स्वप्न बिल्कुल
सच्चाई होते हैं
जीवन की तरह।
दुःख है तो है
सुख है तो है
सपना चल रहा है
जो घट रहा है
वो सही है।
अब ये तो नींद खुलने
पर निर्भर है
कि सब अपना लगे।
नींद आ गई है
सपने सत्य हैं
स्वप्न में ही जीवन है मरण है
नींद जो लम्बी है
लगता है
कभी खुलती भी है
तो आँख बन्द कर लेता हूँ
इस आस से कि शायद
कोई अच्छा सुख मिल जाये।
नींद की आदत पड़ गई है
न टूटे तो बेहतर
और खुल गई जिस दिन आँख
उस दिन सब स्वप्न
चाहे जीवन ही क्यों न हो।


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