• कविगण अपनी रचना के साथ अपना डाक पता और संक्षिप्त परिचय भी जरूर से भेजने की कृपा करें।
  • आप हमें डाक से भी अपनी रचना भेज सकतें हैं। हमारा डाक पता निम्न है।

  • Kavi Manch C/o. Shambhu Choudhary, FD-453/2, SaltLake City, Kolkata-700106

    Email: ehindisahitya@gmail.com


दो गीत -डॉ. मोहन ‘आनन्द’

एक
इस कुहासे को हटाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

छा गई बदली अंधेरे की यहाँ।
ढूंढते न मिल रहा है पथ कहाँ?
आँख पर पट्टी बंधी सी लग रही।
बात सुनकर भी लगे ज्यों अनकही।
आँख से पर्दा उठाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

खुद करें गलती मगर क्यों दोष दूजों पर मढ़ें।
बांधकर फंदा स्वयं फिर शूलियों पर जो चढ़ें।
वक्त की करवट कहें या आदमी की भूल।
हो रहा मजबूर है क्यों चाटने को धूल।
आदमी को आदमी का कद दिखाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

चूक जायेगा समय तब, क्या समझ में आयेगा।
सूखने के बाद क्या पानी दिया हरयाएगा।
लुट चुके को भागने से क्या मिलेगा बताओ?
होश मे आओ स्वयं मत आग खुद घर में लगाओ।
हो चुके बेहोश उनको होश लाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

तुम बनो सूरज मिटा डालो अंधेरा।
बीत जाए रात काली हो सवेरा।
प्रलय की पहली किरण झंकार करदो।
बुझ चुके हारे दिलों में प्यार भरदो।
शाख उजड़ी पर नई कोंपल उगाना चाहता हूँ।
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।


दो
बची न कोई चाह जला दो होंठ न खोलूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


पीड़ाओं ने भीम बनाया अपमानों ने दुर्योधन।
जितने कष्ट मिले उतने ही थे अपनों के सम्बोधन।
काटा और जलाया तन छिद्रोंमय कर डाला।
मधुर बना संगीत पिलाई होंठों की हाला।

बची न कोई चाह जला दो होंठ न खोलूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


तपती लू में एक बूँद को, दौड़-दौड़ हारा।
जितना दर्द मिला अपनों से, हँसकर स्वीकारा।
वो देते उपकार मानकर, मैं लेता एहसान।
जिस बखरी में जिया आज तक वह दिखती शमशान।

सेज नहीं स्वीकार, चिता पर हँसकर सो लूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


मैं न कभी भीड़ में याचक बनकर खड़ा हुआ।
कभी समेटा नहीं स्वप्न न लाया पड़ा हुआ।
मुट्ठी में लेकर सूरज को बार-बार भींचा।
सारा जीवन सिर्फ चक्षुओं के जल से सींचा।


चाह नहीं अमृत की श्रमकण से मुँह धो लूँगा।
बहुत चुका हूँ बोल आज मैं कुछ न बोलूँगा।


सुन्दरम बंगला, 50 महाबली नगर,
कोलार रोड भोपाल (म.प्र.)

जिनगानी रा च्यार दिन -रामनिरंजन शर्मा ‘ठिमाऊ’

जद जाम्या तो मावड़ी हिवड़ै हरख मनायो।
घणैं चाव सूं बठा गोद में, म्हानै दूधो प्यायो।।
सुध बुध कोई थी नहीं, था कोरा अणजाण।
न कोई नै जाणता, नै थी जाण पिछाण।।
जद भी भूख सतावती, रोता मार चिंघाड़।
मायड़ चूंची देवती, चोली रोज उघाड़।।
आँगलड़ी पकड़ाकर, पायेपा चलवायो।
हळवा हळवा म्हारी जामण झालो देर बलायो।।
जद होग्या मोट्यारिया, दड़ाछंट ही भाग्या।
घणी लगाई हड़बड़ी, सूत्या गिंडक जाग्या।।
रूखां चढ़ता, भागता, करता भोत किलोल।
रोज छबाक्यां कूदता, करता रापट रोल।।
आभै नै छू लेण री, मनड़ै में भी आस।
मिनख मांछरा लागता, म्हें करता उपहास।।
नस-नस में थी ताजगी, थो म्हांनै घणो गुमान।
पोरी-पोरी नाचती, जद म्हे था छिक्क जुवान।।
दूध दही में चूरके, बाजरियै रा रोट।
कूद कूद के खांवता, बणता जबर घिलोट।।
थूक मूंठियां भागता जाता कोसां पार।
ठीडै जूती झड़कावता, कदी न आती हार।।
लोग कैवता गाबरू अर देता काम उढाय।
दूध मोकलो होवतो, रैती भैस्यां गाय।।
हचकड़ियाँ पाणी काडता, भरता घड़ला मांट।
वो किलकी रो तावड़ो, बळती म्हारी टाट।।
जाड़ो कदी न लागतो, कदी न ठिरतो डील।
फटकारै ही पूगता, कदी न करता ढील।।
ऊठक-बैठक काडता और पेलता डंड।
भर स्यालै री टेम में बकर्याँ चरती ठंड।।
भाभ्याँ सागै टिचकली अर करतां घणां चबोड़।
वै भी हंसती-मुळकती करती भोत मरोड़।।
च्यार दिनां री च्यांनणी गई जुवानी बीत।
म्हे तो अब अघखड़ हुया, या दुनियां री रीत।।
माथै पर सिलवट पड़ी, हुया किरडकाबरा बाल।
म्हानै दरपण देखता, खुद पर आवै झाल।।
चोबारै रो सोवणो, होग्यो म्हारो बंद।
बैठ तिबारी सोचर्यो, चाल हुई है मंद।।
अब टाबरिया कैवण लाग्या, म्हानै चाचो ताऊ।
टेम बड़ी बलवान है, रैवै नहीं टिकाऊ।।
बा फुड़ती कोसां गई, गया तावळा साल।
हुयो अड़गड़ै साठ कै, पिचक्या दोन्यूँ गाल।।
अब तो म्है दादो बण्यो, हाडां दियो जवाब।
फेरू कदी न आयसी, सोनै जेड़ी आब।।
संगी-साथी सै गया, गया डील रा स्वाद।
खाल सिमट गुदड़ो बणी, बणी जुवानी याद।।
सूकी निरबल देह रो, हुयो खाट सूं प्यार।
अब तो म्हारो भायलो बण्यो बुढापो यार।।
बाल युवा अर डोकरो, बण्या रूप है तीन।
पैला दो मस्ती करैं, तीजो बणज्या दीन।।
लाठी लेके चालतां, डगमग हालै नाड़।
जिनगानी जर जर हुई, ज्यूं खेत पुराणी बाड़।।

मुझे जीने दो-चीख -सौ.पूनम संजय सारडा

माँ मुझे भी जीना था,
छवि तेरी बनके रहना था
कोख में जब तेरे मैया, मैने पहली ली करवट
एहसास ने मेरे, होठों पे तेरे दी थी हल्की सी मुस्कुराहट
मालूम नहीं था जिंदगी का, पल वो बहुत ही छोटा था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
सच कहूँ माँ कोख पे तेरी जब हुआ
पहला वो वार
मुँह से निकल भी न पाया
एक हल्का सा भी चित्कार
कतरा कतरा बह रहा था
खून वो मैया तेरा ही था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
देती मुझे जनम तू मैया
बनती में लाठी तेरे बुढापे की
एक ही क्या, बनती में शोभा
मैया दोनों की घर की
मेंहदी रचाकर हाथों में मैया
ससुराल में जाना था
मुझको भी तो माता बनकर, ममता का
अनुभव लेना था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
‘‘वंश का दीपक ना सही,
बन सकती थी मैं दीये की ज्योति’’
ना बहाती/गँवाती मेरी याद में मैया
अपनी आँखो के तू मोती
करके बगावत जमाने से मैया, भविष्य मेरा चुनना था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
कोई नहीं है अब तो शिकायत
करू शिकायत तो किससे?
स्त्री जीवन का श्राप था पाया
मैंने अपनी तकदीर से
हे भगवान, गर यही था जीवन,
तो ये जीवन कभी न देना था।।
माँ मुझे भी जीना था-2
चीख मेरी बच्ची की सुनाकर, गर बचाऊँ किसी मासूम की जान
यह बच्ची ही लौटाएगी जो, खोया था मैंने आत्मसम्मान
अभी तक गूँज रही कानों में उस बच्ची की वो तान।।
माँ मुझे भी जीना था-2


242, महावीर नगर, वखार भाग
गुजराती हाईस्कुल के आगे, सांगली
मो.-9325584010

दस कवितायें -रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’

(1)
कच्चा सन्यास
स्त्रियों को बुरा-भला
चित्त में काम

(2)
विकास-मूल
प्रयोग धर्मी व्यक्ति
दल न नेता

(3)
नशेड़ी पति
सुधार का प्रयास
पत्नी भी आधी

(4)
तनाव मुक्ति
समस्याओं का हल
मदिरा नहीं

(5)
कुछ भी करो
छल कपट हिंसा
चुनाव जीता

(6)
विश्व सुन्दरी
फिल्मों में प्रदर्शन
अर्थ ही साध्य

(7)
वृद्ध को हुये
प्रौढ़ता नहीं आयी
बच्चें के बच्चे

(8)
स्त्रियों को दोष
गुणों की चर्चा नहीं
कैसा वैराग्य?

(9)
अपना राज
अपनी सरकार
तब भी दास

(10)
मृदु स्वभाव
उस्वरा धार नहीं
सृष्टि की शोभा


डी/4, उदय हाउसिंग सोसाइटी
वैजलपुर, अहमदाबाद-380005

दो बांगला कवितावाँ -सुभाष मुखोपाध्याय

1.मरुभोम
म्हैं तो नी भूल्यो
पण कियां भुलाय दी थे
वा शोक री रात
मरुभोम री पवन
उड़ावै ही धूळ आकाश री आंख्यां में
आपरी घांठी नै
ऊंचो उठावतो
टिन-टिन.....टिन-टिन
करतो ऊंटाँ रो टोळो
बावड़ रैयो हो सहर नै छोड़’र
गांव रै कानी
म्हां नै ठानी
रस्तै रै दूजी कानी
कुण सो खड़यो हो बिरछ


2.अर एक दिन
दोनू पग
फंसग्या रास्तै रै कादै में
बांस रै कांपतै पुळ नै
सोरो-दोरो पार कर’र
चल्यो गयो है अबार ई अबार
एक दिन और
चैंका देवै
बीच-बीच में माथा ऊपर
दिन री आवाज
सैनणा री डाल्यां ऊपर झूले है
बड़ी-बड़ी बूंदां
इण बार
हुवैली धान री अणूती खेती
कैवती कैवती
पोखर सूं
हाथ में दीयो लियां
आवै है घर री बीनणी सगळी थळी पर
नचाती अंधेरा नै

उल्थो: श्रीगोपाल जैन

हेल्यां शेखावाटी री -केसरीकान्त शर्मा ‘केसरी’

आज आ हेल्यां में
विखो पड़गो,
माइत मरगा,
सूनैं ढूंढां में
ढांढा रमै,
या अतिक्रमणियां भाईड़ा ।
चूनो चाटगी गायां
गुभारियां में गधा रमै
गरदै रा ढिगला
माटी रा अकूरड़ा
अठै-बठै अऊग्योड़ा
बड़-पीपळ रा गाछ
मकंड़्यां रा जाळा
कबूतरां री गुटरगूं
चमचेड़ां-भीभर्यां रो संगीत !
भूत-भूतण्यां रो बासो,
ओ कांई रासो ?
आंरा भाग कुंण खोलै ?
दिसावरां में रमियोड़ा नैं तो
फुरसत ई कोनी बिचापड़ा नै
बाप-दादा रा ठांव कठै-सी है,
या-ई कोनी जाणै ।
कांई आणी-जाणी है भाईजी
पांती में आज
अेक गुभारियो ही कोनी आवै
अर जिकां रै ज्यादा झमेलो नहीं है,
बै पुरखां रा हेली-नोरा-खेत-कुआ.....
बेचबां नै आवै.....
म्हांनै तो बोलतां-ई सरम आवै ।

आदमी को आदमी, खा रहा आदमी - शम्भु चौधरी

Shambhu Choudhary
आदमी को आदमी, खा रहा आदमी।
उम्र पाकर भी मर रहा आदमी,
आँख का अंधा रहा हो,
पांव का लंगड़ा भले हो,
मस्तिष्क में भले ही
शून्य ने ले रखी जगह हो,
पर हर तरफ ही हर तरफ-
सिर्फ छा रहा है आदमी
छीन कर सुख-चैन सबका-
सो रहा खुद ही आदमी
घर-घर में बूढ़े माँ-बाप-
खोज रहे हैं आदमी
गाँव का मरता किसान -
खोज रहे हैं आदमी
संसद में तड़पता लोकतंत्र-
खोज रहे हैं आदमी
माँ की कोख में भी अब -
खोज रहे हैं आदमी
हर तरफ बस एक ही बात
आदमी को आदमी
खा रहा है आदमी।


- शम्भु चौधरी
10.2.2009

गरीब मजदूर की आत्मकथा -के.पी.चौहान

 K.P.Chauhan
मैं गरीब मरुँ सर्दी में
बरसातों में और गर्मी में
तूफानों में भूचालों में
सीलन भरी हुई चालों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
रिक्शों में हथ्ठेलों में
गाड़ियों में हल बैलों में
खंडहरों में खंडा लों में
गन्दी नाली व नालों में
पर तुम्हे सुलाऊं महलों में ,
भामता रहता हूँ मेलों में
खुशियाँ देता हूँ जेलों में
मैं फिरूँ बांटता भोजन
बसों में और रेलों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
मांजू बर्तन स्टालों में
रखवाली करूँ टकसालों में
उठाता लीद घुड़ सालों में
पर मान ना पाया कालों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
चलता रहता पग छालों में
बदती दाढी बिखरे बालों में
फटे कपड़े और दुशालों में
भूखे पेट के ख्यालों में
पर तुम्हें सुलाऊं महलों में ,
मैं गरीब भारत का निराला
मत पहिनाओ पुष्पों की माला
पर ना पिलाओ अपमान का प्याला
पुचकारो और काम कराओ
जाकर सो जाओ महलों में

फूंक दो जला दो
उन लाखों झोपडियों को
जिनमे आज भी
दो वक्त का खाना नहीं बनता
जिनमे रखा
कच्ची मिटटी का चूल्हा
स्वयम को दो वक्त जलाने हेतु
आंसुओं से है रोता ,
उलटा पडा तवा
अपना अपमान देखकर
बार -बार आत्महत्या जैसा
घिनोना कार्यं करने हेतु
प्रेरित है होता ,
जहाँ साग की हांडी
बरसों से पड़ी उलटी
सिल बत्तों को कोस रही है
और सिल को सौतन मान
मन ही मन सौतन डाह से
रोग ग्रसित हो रही है ,
चमचे की हालत
एक कोने में
निश्चल पड़े
बरसों से पोलियो के
मरीज जैसी हो गयी है ,
और वहीँ चौके में बैठी
झोपडी की मालकिन
अभाव ग्रस्त होकर
अपनी फूटी किस्मत को
कोस रही है
इतना सब होते हुए भी
हमारी सरकार
२१वि सदी में पहुचने पर
खुशी से पागल हो रही है
 


K.P. Chauhan
Contact 09312511916, 01127011314
View my complete profile

कमज़ोरी - मन्सूर अली हशमी

Mansoor Ali Hashmi

उनका आंतक फ़ैलाने का दावा सच्चा था,
शायद मैरे घर का दरवाज़ा ही कच्चा था।


पूत ने पांव पसारे तो वह दानव बन बैठा,
वही पड़ोसी जिसको समझा अपना बच्चा था।


नाग लपैटे आये थे वो अपने जिस्मो पर,
हाथो में हमने देखा फूलो का गुच्छा था।


तौड़ दो सर उसका, इसके पहले कि वह डस ले,
इसके पहले भी हमने खाया ही गच्चा था।


जात-धर्म का रोग यहाँ फ़ैला हैज़ा बनकर,
मानवता का वास था जबतक कितना अच्छा था।

मन्सूर अली हशमी

एक दिन का ख्वाब - श्यामसखा'श्याम

आज है इकत्तीस
कल
पहली होगी
मुन्ने
ने, गुड़ियां से यह बात
सौ बार कह ली होगी
आज है
इकत्तीस
कल, पहली होगी
ददा
पगार लाएंगे
हम
दूध भात खाएंगे
बच्चे
मगन हैं
पत्नी की आंखों में
भी
शुभ लग्न है
खत्म होगा
वक्त इन्तजार का
मुंह देखेगी
फिर एक बार पगार का
माना
पगार में नहीं
ऐसा नया कुछ होगा
पर
एक बार फिर नोट गिनने का सुख होगा
वह
बैठेगी
देहली पर पंाव पासर
उतार देगी
पिछले मास
का उधार-भार
खोली का
किराया लेने मुनीम आएगा
कल तो
नालायक बनिया भी
उसे देखकर मुस्कराएगा
घर में
मचेगी बच्चों की चीख पुकार
कल तो
लगेगा दाल में बघार
वे भी
कल बोतल लाएंगे
पहले वह
बोतल से डरती थी
जब भी
पति पीते थे वह लड़ती थी
पर
धीरे धीरे वह जान गई
पति की आंखों
और बोतलों में छुपे दर्द को पहचान गई
बरसों पहले
जब वह
दुल्हन बन कर आई थी
तो
पति फैक्टरी से
घर लौटकर
कैसा-कैसा भींचते थे
समीपता के
वे पल
अब केवल
पहली को
बोतल खाली होने
के बाद आते हैं
पर
पति की भी मजबूरी है
पूरा महीना
काटने के लिए
एक दिन का ख्वाब देखना जरूरी है

मैखाना बुला कर कहती है -Azad Sikander

मैखाना बुला कर कहती है,
पैमाना में शराब के संग,
पिजा गम,
पल-दो –पल ही सही,
देती है भगा गम,

पैमाना-पैमाना कहती हैं,
छलकती शराब लगा ले होठो से,
देगी कर मदहोश,
होठो से हलक तक जाते-जाते,

पीले सराब संग,
गम के आशु मिलकर,
देगी भुला,
थोडी देर के लिए गम,

सराब न मिले तो,
पैमाने में पानी संग गम,
मिला कर पी ले,
झूमते हुए भुला देगी गम,

और कुछ न मिले तो,
पैमाने में,
गम से गम को मिल के,
पी लो तो ,
भाग देती हैं गम।


"Azad Sikander"
azadsikander@gmail.com
http://www.azadsikander.blogspot.com

कृष्ण कुमार यादव की चार कविताएँ

k.k.yadav जीवनवृत्त:

कृष्ण कुमार यादव: जन्म: 10 अगस्त 1977, तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0), शिक्षा: एम0 ए0 (राजनीति शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय विधा: कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, व्यंग्य एवं बाल कविताएं। प्रकाशन: देश की प्राय अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। एक दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन। विभिन्न वेब पत्रिकाओं- सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, काव्यांजलि, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, स्वर्गविभा, कथाव्यथा, युगमानस, वांग्मय पत्रिका, कलायन, ई-हिन्दी साहित्य इत्यादि पर रचनाओं का नियमित प्रकाशन। प्रसारण: आकाशवाणी लखनऊ से कविताओं का प्रसारण। कृतियाँ : अभिलाषा (काव्य संग्रह-2005), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह-2006), इण्डिया पोस्ट- 150 ग्लोरियस इयर्स (अंगेरजी-2006), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह-2007), क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गाथा (2007)। बाल कविताओं व कहानियों का संकलन प्रकाशन हेतु प्रेस में।
इनकी चार कविताएँ


1. गौरैया
चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।

वही गौरैया,
जो हर आँगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।

क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं-सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमाग में उमड़ने लगे।

बाहर देखा
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।

बच्चे प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं।

आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी?

2.जज्बात
वह फिर से ढालने लगा है
अपने जज्बातों को पन्नों पर
पर जज्बात पन्ने पर आने को
तैयार ही नहीं
पिछली बार उसने भेजा था
अपने जज्बातों को
एक पत्रिका के नाम
पर जवाब में मिला
सम्पादक का खेद सहित पत्र
न जाने ऐसा कब तक चलता रहा
और अब तो
शायद जज्बातोें को भी
शर्म आने लगी है
पन्नों पर उतरने में
स्पाॅनसरशिप के इस दौर में
उन्हें भी तलाश है एक स्पाॅन्सर की
जो उन्हें प्रमोट कर सके
और तब सम्पादक समझने में
कोई ऐतराज नहीं हो।

3. मैं उड़ना चाहता हूँ
मैं उड़ना चाहता हूँ
सीमाओं के बंधन से स्वतंत्र
उन्मुक्त आकाश में।

उस जटायु की तरह
जिसने सीता की रक्षा के लिए
रावण से लोहा लिया।

उस यान की तरह
जो युद्धभूमि में दुश्मनों के
छक्के छुड़ा देता है।

उस कबूतर की तरह
जो शान्ति का प्रतीक है।

उस मेघदूत की तरह
जिससे कालिदास के विरही यक्ष ने
अपनी यक्षिणी को पैगाम पहुँचाया।

उस बादल की तरह
जिसे देखते ही
किसन की बाछें खिल जाती हैं
और धरती अन्न-रस से भरपूर हो जाती है।

4. मोक्ष
सागर के किनारे वह सीप
अनजानी सी पड़ी है
ठीक वैसे ही
जैसे शापित अहिल्या
पत्थर बनकर पड़ी थी
एक नन्हीं सी बूँद
पड़ती है उस सीप पर
और वह जगमगा उठती है
मोती बनकर
ठीक वैसे ही, जैसे शापित अहिल्या
प्रभु राम के पाँव पड़ते ही
सजीव हो जगमगा उठी थी
यही मोक्ष है उसका
पर वाह रे मानव
वह हर सीप में मोती खोजता है
हर पत्थर को प्रभु मान पूजता है
पर वह नहीं जानता
मोक्ष पाना इतना आसान नहीं
नहीं मिलता मोक्ष बाहर ढूँढने से
मोक्ष तो अन्तरात्मा में है
बस जरूरत है उसे एक बूँद की
ताकि वह जगमगा उठे।

कृष्ण कुमार यादव
भारतीय डाक सेवा,
वरिष्ठ डाक अधीक्षक,
कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
kkyadav.y@rediffmail.com