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भोपाल तीन काल -शम्भु चौधरी


ऐ कब्रगाह- भोपाल!

चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को |
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो
उस नापाक इरादों को
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 28 दिसम्बर1987]

वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी

वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी।
कुछ जमीन पर सोये सांसे गिन रही थी।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहाँ बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आये तो,
एक गैसयंत्र ओर यहाँ बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जायेगें।

[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 02 दिसम्बर1987]


भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...

भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं म मानव।


[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र: 5 नवम्बर 1988]
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106

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साहित्य शिल्पी: प्रेरणा उत्सव


Rajiv Ranjan Prasadसाहित्य शिल्पी ने अंतरजाल पर अपनी सशक्त दस्तक दी है। यह भी सत्य है कि कंप्यूटर के की-बोर्ड की पहुँच भले ही विश्वव्यापी हो, या कि देश के पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण में हो गयी हो किंतु बहुत से अनदेखे कोने हैं, जहाँ इस माध्यम का आलोक नहीं पहुँचता। यह आवश्यकता महसूस की गयी कि साहित्य शिल्पी को सभागारों, सडकों और गलियों तक भी पहुचना होगा। प्रेरणा उत्सव इस दिशा में पहला किंतु सशक्त कदम था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करने लिये साहित्य शिल्पी ने 25/01/2009 को गाजियाबाद स्थित भारती विद्या सदन स्कूल में लोक शक्ति अभियान के साथ मिल कर प्रेरणा दिवस मनाया। सुभाष चंद्र बोस एसे व्यक्तित्व थे जिनका नाम ही प्रेरणा से भर देता है। साहित्य शिल्पी के लिये भी हिन्दी और साहित्य के लिये जारी अपने आन्दोलन को एसी ही प्रेरणा की आवश्यकता है। कार्यक्रम का शुभारंभ अपने नियत समय पर, प्रात: लगभग साढ़े दस बजे प्रसिद्ध विचारक तथा साहित्यकार बी.एल.गौड के आगमन के साथ ही हुआ। मंच पर प्रसिद्ध शायर मासूम गाजियाबादी तथा सुभाष के चिंतन पर कार्य करने वाले सत्यप्रकाश आर्य भी उपस्थित थे। मंच पर साहित्य शिल्पी का प्रतिनिधित्व चंडीगढ से आये शिल्पी श्रीकांत मिश्र ‘कांत’ ने किया।
नेताजी सुभाष की तस्वीर पर पुष्पांजलि के साथ कार्यक्रम का आरंभ किया गया। तत्पश्चात लोक शक्ति अभियान के मुकेश शर्मा ने आमंत्रित अतिथियों का अभिवादन किया एवं लोक शक्ति अभियान से आमंत्रितों को परिचित कराया। नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए तथा विचारगोष्ठी का संचालन करते हुए योगेश समदर्शी ने युवा शक्ति का आह्वान किया कि वे अपनी दिशा सकारात्मक रख देश को नयी सुबह दे सकते हैं। काव्य गोष्ठी का संचालन श्री राजीव रंजन प्रसाद ने किया।


Masum Gajiyavadi
गाजियाबाद के शायर मासूम गाजियाबादी ने अपनी ओजस्वी गज़ल से काव्य गोष्ठी का आगाज़ किया। अमर शहीदों को याद करते हुए उन्होंने कहा :-
भारत की नारी तेरे सत को प्रणाम करूँ
दुखों की नदी में भी तू नाव-खेवा हो गई
माँग का सिंदूर जब सीमा पे शहीद हुआ
तब जा के कहा लो मैं आज बेवा हो गई


पाकिस्तान और सीमापार आतंकवाद पर निशाना साधते हुए मासूम गाजियाबादी आगे कहते हैं:
मियाँ इतनी भी लम्बी दुश्मनी अच्छी नहीं होती
कि कुछ दिन बाद काँटा भी करकना छोड़ देता है
Subhash Niraw
सुभाष नीरव ने अपनी कविता सुना कर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया। उन्होने कहा -
राहो ने कब कहा हमें मत रोंदों
उन्होंने तो चूमे हमारे कदम और खुसामदीद कहा
ये हमीं थे ना शुकरे कि पैरों तले रोंदते रहे
और पहुंच कर अपनी मंजिल तक
उन्हें भूलते भी रहे....


मास फॉर अवेयरनेस मूवमेंट चलाने वाले नीरज गुप्ता ने सुभाष के व्यक्तित्व पर बोलते हुए राष्ट्रीय चेतना के लिये छोटे छोटे प्रयासों की वकालत की। उन्होने अपने कार्टूनो को उस देश भक्ति का हिस्सा बताया जो लोकतंत्र को बचाने व उसे दिशा देने में आवश्यक है।
उनके वक्तव्य के बाद कार्यक्रम को कुछ देर का विराम दिया गया और उपस्थित अतिथि कार्टून प्रदर्शिनी के अवलोकन में लग गये। कार्यक्रम का पुन: आरंभ किया गया और श्रीकांत मिश्र कांत सुभाष की आज आवश्यकता पर अपना वक्तव्य दिया।
Yogesh Samdarshiयोगेश समदर्शी ने इसके पश्चात बहुत तरन्नुम में अपनी दो कवियायें सुनायीं। एक ओजस्वी कविता में वे सवाल करते हैं:-
तूफानों से जिस किश्ती को लाकर सौंपा हाथ तुम्हारे
आदर्शों की, बलिदानों की बड़ी बेल थी साथ तुम्हारे
नया नया संसार बसा था, नई-नई सब अभिलाषाएं थीं
मातृभूमि और देश-प्रेम की सब के मुख पर भाषाएं थीं
फिर ये विघटन की क्रियाएं मेरे देश में क्यों घुस आईं
आपके रहते कहो महोदय, ये विकृतियाँ कहाँ से आईं


Avinash Vachspatiअविनाश वाचस्पति ने कार्यक्रम में विविधता लाते हुए व्यंग्य पाठ किया। उन्होंने व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए कहा कि “फुटपाथों पर पैदल चलने वालों की जगह विक्रेता कब्जार जमाए बैठे हैं और पैदलों को ही अपना सामान बेच रहे हैं। तो इतनी बेहतरीन मनोरम झांकियों के बीच जरूरत भी नहीं है कि परेड में 18 झांकियां भी निकाली जातीं, इन्हेंज बंद करना ही बेहतर है। राजधानी में झांकियों की कमी नहीं है। सूचना के अधिकार के तहत मात्र दस रुपये खर्च करके आप लिखित में संपूर्ण देश में झांकने की सुविधा का भरपूर लुत्फं उठा तो रहे हैं। देश को आमदनी भी हो रही है, जनता झांक भी रही है। सब कुछ आंक भी रही है। देश में झांकने के लिए छेद मौजूद हैं इसलिए झांकियों की जरूरत नहीं है।
कार्यक्रम में स्थानीय प्रतिभागिता भी रही। गाजियाबाद से उपस्थित कवयित्री सरोज त्यागी ने वर्तमान राजनीति पर कटाक्ष करते हुए कहा :-
बहन मिली, भैया मिले, मिला सकल परिवार
लाया मौसम वोट का, रिश्तों की बौछार
चुन-चुन संसद में गये, हम पर करने राज
सत्तर प्रतिशत माफ़िया, तीस कबूतरबाज
अल्लाह के संग कौन है, कौन राम के साथ
बहती गंगा में धुले, इनके उनके हाथ


काव्यपाठ में सुनीता चोटिया ‘शानू’, शोभा महेन्द्रू, राजीव तनेजा,अजय यादव, राजीव रंजन प्रसाद, मोहिन्दर कुमार, पवन कुमार ‘चंदन’ एवं बागी चाचा ने भी अपनी कवितायें सुनायी।
Sunita Chotiaसुनीता शानू ने अपनी कविता में कहा:-
मक्की के आटे में गूंथा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे रग
धरती के बेटों के आन बान भूप सी
धरती बना आई है नवरंगी रूप सी


Pawan Kumar Chandanपवन चंदन ने शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए प्रस्तुत किया-
चाहता हूं तुझको तेरे नाम से पुकार लूं
जी करता है कि तेरी आरती उतार लूं


Shobha Mahendroशोभा महेंद्रू ने नेताजी सुभाष पर लिखी पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं:-
२३ जनवरी का दिन एक अविष्मर्णीय दिन बन जाता है
और एक गौरवशाली व्यक्तित्त्व को हम लोगों के सामने ले आता है
एक मरण मांगता युवा आकाश से झाकता है
और पश्चिम की धुन पर नाचते युवको को राह दिखाता है


Rajiv Tanejaराजीव तनेजा ने कहा -
क्या लिखूं कैसे लिखूं लिखना मुझे आता नहीं ...
टीवी की झ्क झक मोबाईल की एसएमएस मुझे भाता नही ....


Bagi Chachaबागी चाचा ने सुनाया -
आज भी जनता शहीद हो रही है और वह डाक्टर के हाथो से शहीद हो रही थी
दीनू की किस्मत फूटनी थी सो फूट गई..


कार्यक्रम के मध्य में मोहिन्दर कुमार ने अपनी चर्चित कविता "गगन चूमने की मंशा में..." सुनायी साथ ही, साहित्य शिल्पी और उसकी गतिविधियों तथा उपलब्धियों से उपस्थित जनमानस का परिचय करवाया।
विचार गोष्ठी में सत्यप्रकाश आर्य ने सुभाष चंद्र बोस और उनके व्यक्तित्व पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने सुभाष के जीवित होने जैसी भ्रांतियों पर भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम में स्थानीय विधायक सुनील शर्मा की भी उपस्थिति थी। सुनील जी ने समाज के अलग अलग वर्ग को भी देश सेवा के लिये आगे आने की अपील की। कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष बी.एल. गौड ने अपने विचार प्रस्तुत लिये। उन्होंने कार्य करने की महत्ता पर बल दिया और विरोधाभासों से बचने की सलाह दी।
उन्होने बदलते हुए समाज में सकारात्मक बदलावों की वकालत करते हुए रूढीवादिता को गलत बताया। अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ भी प्रस्तुत की:


ऐ पावन मातृभूमि मेरी
मैं ज़िंदा माटी में तेरी
मैं जन्म-जन्म का विद्रोही
बागी, विप्लवी सुभाष बोस
अतिवादी सपनों में भटका
आज़ाद हिंद का विजय-घोष
मैं काल-निशाओं में भटका
भटका आँधी-तूफानों में
सागर-तल सभी छान डाले
भटका घाटी मैदानों में
मेरी आज़ाद हिंद सेना
भारत तेरी गौरव-गाथा
इसकी बलिदान-कथाओं से
भारत तेरा ऊँचा माथा


कार्यक्रम में साहित्यकारों विद्वानों और स्थानीय जन की बडी उपस्थ्ति थी।
साहित्य शिल्पी ने कार्यक्रम के अंत में यह संकल्प दोहराया कि साहित्य तथा हिन्दी को अभियान की तरह प्रसारित करने के लिये इस प्रकार के आयोजन जीयमित होते रहेंगे।
कार्यक्रम का समापन "जय हिन्द" के जयघोष के साथ हुआ।

सर्दियों का ना होना

सुबह उठा तो देखा धूप निकल आई है,
घड़ी देखी तो आठ ही बजा था....रात ३ बजे
सोया था सो थोडी सी देर से उठा पर आठ बजे धूप ?
यकीं नहीं हुआ कि जनवरी अभी ख़त्म नहीं हुआ....
पर सर्दी ख़त्म होने चली है।
यकीं करने को जी नहीं चाहता कि इतनी जल्दी ये रूमानी मौसम जा रहा है
पर परेशान करता स्वेटर कह रहा है कि
यकीं कर लो क्यूंकि मैं पसीने से भीग रहा हूँ।
दरअसल शुरुआत तो हुई सर्दी के
जल्दी दिवंगत हो जाने के ख़याल से
पर याद आ गए वो दिन......


सर्दी की दोपहरों में

छतों पर धूप सेंकती रजाईयां

गुम हैं सर्दी की शाम बिना अलाव बिन चाय गुमसुम है
छतों पर, चौखटों
पर बिनती स्वेटर, उडाती अफवाहें
वो औरतें कहाँ गई
सांझ के धुंधल के में
पार्क में बच्चों की तसवीरें धुंधला गई
सुबह उठने के बाद सड़कों पर कोहरा नहीं
इंसानों का सैलाब हैमन नहीं लगता
इस शहर में
मौसम ख़राब है
स्कूल जाते बच्चे
स्कार्फ, लंबे मोजे और दस्ताने
गए हैं भूल
नए घरों के
आधुनिक लाडले
कैब से जाते हैं स्कूल
अंगीठी अब खो गई है
या बदल गई है
एयर कंडीशनर में
सर्दी का मौसम
रह गया है केवल टीवी की ख़बर में याद आती है
बहुत अपने शहर की उस मौसम सर्द की सजा है
हमारे लिए ये सब कुदरत बेदर्द की

मयंक सक्सेना द्वारा: जी न्यूज़, FC-19, फ़िल्म सिटी,
सेक्टर 16 A, नॉएडा, उत्तर प्रदेश - 201301

ई मेल : mailmayanksaxena@gmail.com


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समझौते की बात न हो तो अच्छा है


राष्ट्रीय महानगर कोलकाता महानगर सांध्य दैनिक की तरफ से गत २३ जनवरी को कोलकाता के माहेश्वरी भवन सभागार में "अपनी धरती अपना वतन" कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसकी शुरूआत श्री प्रकाश चण्डालिया के पुत्र चिं. चमन चण्डालिया ने माँ सरस्वती वन्दना से की।
कोलकाता. सांध्य दैनिक राष्ट्रीय महानगर की और से आयोजित कवि सम्मलेन एवं अपनी धरती-अपना वतन कार्यक्रम कई मायनों में यादगार बन गया। कोलकाता में हाल के वर्षों में यह ऐसा पहला सार्वजनिक कवि सम्मलेन था जिसमे भाग लेने वाले सभी कवि इसी महानगर के थे। महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने अपने संबोधन में कहा भी, कि यहाँ जब भी कोई सांस्कृतिक आयोजन होता है तो लोग कलाकार का नाम जानने को उत्सुक रहते हैं, लेकिन जब कभी भी कोलकाता में कोई कवि सम्मलेन होता है तो उसका शहर जानने को उत्सुक रहते हैं। इस सोच कि पृष्ठभूमि में शायद यह बात छिपी है कि कोलकाता में शायद अच्छे कवि हैं ही नही। पर राष्ट्रीय महानगर ने इस सोच से मुकाबिल होते हुए इस कवि सम्मलेन में केवल कोलकाता में प्रवास करने वाले कवियों को ही चुना, उन्होंने कहा कि खुशी इस बात कि है कि कोलकाता के कवियों को सुनने पाँच सौ से भी अधिक लोग उपस्थित हुए। वरिष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', श्री नन्दलाल 'रोशन', श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग', श्रीमती गुलाब बैद और उदीयमान कवि सुनील निगानिया ने अपनी प्रतिनिधि रचनाएँ सुना कर भरपूर तालियाँ बटोरीं, साथ ही, डाक्टर मुश्ताक अंजुम, श्री गजेन्द्र नाहटा, श्री आलोक चौधरी को भी मंच से रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया गया। सभी कवियों ने अपनी उम्दा रचनाएँ सुनायीं। देशभक्ति, आतंकवाद और राजनेताओं की करतूतों पर लिखी इन कवियों कि रचनाएँ सुनकर श्रोता भाव विभोर हो गए और बार बार करतल ध्वनि करते रहे। कवि सम्मलेन लगभग दो घंटे चला। कवि सुमनजी और रोशनजी ने जबरदस्त वाहवाही लूटी। मुश्ताक अंजुम कि ग़ज़ल भी काफ़ी सराही गई। गजेन्द्र नाहटा ने कम शब्दों में जानदार रचनाएँ सुनाई। गुलाब बैद कि रचना भी काफ़ी सशक्त रही। कार्यक्रम के दूसरे दौर में देश विख्यात कव्वाल जनाब सलीम नेहली ने भगवन राम कि वंदना के साथ साथ ये अपना वतन..अपना वतन.. अपना वतन है, हिंदुस्तान हमारा है जैसी उमड़ा देशभक्ति रचनाएँ सुनकर श्रोताओं को बांधे रखा। संध्या साढ़े चार बजे शुरू हुआ कार्यक्रम रात दस बजे तक चलता रहा और सुधि श्रोता भाव में डूबे रहे। कार्यक्रम का सञ्चालन राष्ट्रीय महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया ने किया, जबकि कवि सम्मलेन का सञ्चालन सुशिल ओझा ने किया। प्रारम्भ में सुश्री पूजा जोशी ने गणेश वंदना की और नन्हे बालक चमन चंडालिया ने माँ सरस्वती का श्लोक सुनाया। कार्यक्रम में अतिथि के रूप में वृद्धाश्रम अपना आशियाना का निर्माण कराने वाले वयोवृद्ध श्री चिरंजीलाल अग्रवाल, वनवासियों के कल्याण के बहुयामी प्रकल्प चलाने वाले श्री सजन कुमार बंसल, गौशालाएं चलाने वाले श्री बनवारीलाल सोती और प्रधान वक्ता सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन के पैरोकार श्री कमल गाँधी के साथ साथ कोलकाता की पूर्व उप मेयर श्रीमती मीना पुरोहित, पार्षद सुनीता झंवर उपस्थित थीं। कार्यक्रम के प्राण पुरूष राष्ट्रीय महानगर के अनन्य हितैषी श्री विमल बेंगानी थे। उन्होंने अपने स्वागत संबोधन में कहा कि यह आयोजन देशप्रेम कि भावना का जन-जन में संचार सेवा के उदेश्य से किया गया है। कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रीय महानगर के पाठकों की और से राष्ट्रीय महानगर के संस्थापक श्री लक्ष्मीपत सिंह चंडालिया और श्रीमती भीकी देवी चंडालिया का भावभीना सम्मान किया गया। शहरवासियों के लिए इस कार्यक्रम को यादगार बनाने में सर्वश्री विद्यासागर मंत्री, विजय ओझा, राकेश चंडालिया, गोपाल चक्रबर्ती, विजय सिंह दुगर, गौतम दुगर, पंकज दुधोरिया, हरीश शर्मा, राजीव शर्मा, प्रदीप सिंघी, सरीखे हितैषियों का सक्रिय सहयोग रहा। बदाबजर के महेश्वरी भवन में आयोजित इस विशिष्ट समारोह में सभी क्षेत्र के लोग उपस्थित थे। इस अवसर पर राष्ट्रीय महानगर की सहयोगी संस्था अपना मंच कि काव्य गोष्ठियों के चयनित श्रेष्ठ कवि श्री योगेन्द्र शुक्ल सुमन, श्री नन्दलाल रोशन और सुश्री नेहा शर्मा का भावभीना सम्मान किया गया। सभी विशिष्ट जनों को माँ सरस्वती की नयनाभिराम प्रतिमा देकर सम्मानित किया गया। समारोह में उपस्थित विशिष्ट जनों में सर्वश्री जुगल किशोर जैथलिया, नेमीचंद दुगर, जतनलाल रामपुरिया, शार्दुल सिंह जैन, बनवारीलाल गनेरीवाल, रमेश सरावगी, सुभाष मुरारका, सरदार निर्मल सिंह, बंगला नाट्य जगत के श्री अ.पी. बंदोपाध्याय,राजस्थान ब्रह्मण संघ के अध्यक्ष राजेंद्र खंडेलवाल, हावडा शिक्षा सदन की प्रिंसिपल दुर्गा व्यास, भारतीय विद्या भवन की वरिष्ठ शिक्षिका डाक्टर रेखा वैश्य सेवासंसार के संपादक संजय हरलालका, आलोक नेवटिया, अरुण सोनी, अरुण मल्लावत, रामदेव काकडा, सुरेश बेंगानी, कन्हैयालाल बोथरा, नवरतन मॉल बैद, रावतपुरा सरकार भक्त मंडल के प्रतिनिधि सदस्य, रावतमल पिथिसरिया, शम्भू चौधरी, प्रमोद शाह, गोपाल कलवानी, प्रदीप धनुक, प्रदीप सिंघी, महेंद्र दुधोरिया, प्रकाश सुराना, नीता दुगड़, वीणा दुगड़, हीरालाल सुराना, पारस बेंगानी, बाबला बेंगानी, अर्चना रंग, डाक्टर उषा असोपा, सत्यनारायण असोपा, गोपी किसान केडिया, सुधा केडिया, शर्मीला शर्मा, बंसीधर शर्मा, जयकुमार रुशवा, रमेश शर्मा, सुनील सिंह, महेश शर्मा, गोर्धन निगानिया, आत्माराम तोडी, घनश्याम गोयल, बुलाकीदास मिमानी, अनिल खरवार, डी पांडे, राजेश सिन्हा उपस्थित थे ।


"अपनी धरती अपना वतन"
मंच पर आसीन कवि थे सर्वश्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन', नन्दलाल 'रोशन', जे. चतुर्वेदी 'चिराग, श्रीमती गुलाब बैद, और सुनील निंगानिया। देशप्रेम की भावना से परिपूर्ण श्री नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में कोलकाता स्थित स्थानीय माहेश्वरी भवन सभागार में किया था। कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रधान वक्ता बतौर श्री कमल गाँधी ने देश के वीर सेनानियों को नमन करते हुए मुम्बई घटना में हुए शहीदों को अपनी भावपुर्ण श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि इन शहिदों के नाम को जितनी श्रद्धा के साथ लिया जाय उतना ही कम है, देश के वर्तमान नेताओं के नाम को लिये बिना आपने कहा कि जिस मंच पर सुभाष-गांधी को याद किया जाना है, वीर शहिदों को याद किया जाना है ऐसे मंच पर खड़े होकर उनका नाम लेकर इस मंच की मर्यादा को कम नहीं करना चाहता। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच श्री कमल गाँधी ने कहा कि हम अभी इतने भी कायर नहीं हुए कि अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते देशहित को तिलांजलि दे देगें, हमारे लिये देशहित सर्वप्रथम है। इस समारोह की अध्यक्षता शहर के जाने-माने समाज सेवी श्री चिरंजीलाल अग्रवाल ने किया। कार्यक्रम का उद्घाटन श्री एस.के पारिक ने किया। बतौर प्रदान अतिथि थे श्री सजन कुमार बंसल और बनवारी लाल सोती। कार्यक्रम के स्वागताध्यक्ष श्री बिमल बैंगानी ने सभी का स्वागत किया और धन्यवाद दिया महानगर के जाने -माने पत्रकार और 'राष्ट्रीय माहानगर' के संपादक श्री प्रकाश चण्डालिया ने कवि मंच " अपनी धरती-अपना वतन" कार्यक्रम के संचालन की शुरूआत श्री सुशील ओझा ने श्री छविनाथ मिश्र की कविता से की:


मेरे दोस्त मेरे हमदम तुम्हारी कसम
कविता जब किसी के पक्ष कें या
किसी के खिलाफ़ जब पूरी होकर खड़ी होती है;
तो वह ईश्वर से भी बड़ी होती है।
-छविनाथ मिश्र


अपनी धरती अपना वतन कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए श्रीमती गुलाब बैद ने माँ सरस्वती पर अपनी पहली रचना प्रस्तुत की।
माँ सरस्वती.. माँ शारदे, हम सबको तेरा प्यार मिले...2
चरणों में अविनय नमन करें,
तेरा बाम्बार दुलार मिले। हे वीणा वादणी, हंस वाहिणी.. तू ममता की मूरत है।
श्री सुनील निंगानिया ने आतंकवाद पर अपनी कविता के पाठ कर बहुत सारी तालियां बटोरी..
शहर-शहर.... गाँव-गाँव मौसम मातम कुर्सी का
आम अवाम लाचार हो गई, देख रही छलनी होते ..
भारत माँ की जननी को .. शहर-शहर....
दिल्ली का दरबार खेल रहा है, खेल ये कैसा कुर्सी का...
यह कैसी आजादी होती, हम आजादी पर रोते हैं
सरहद से ज्यादा खतरा घर की चारदिवारी का... शहर-शहर....
आगे इन्होंने कहा..
उग्रवाद का समाधान नहीं .. राजनीति की दुकानों पे
हासिल करना होगा इसे हमें, अपने ही बलिदानों से..शहर-शहर....
श्री जे. चतुर्वेदी 'चिराग'
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
जीवन नाम नहीं जीने का, जिस सम अधिकार नहीं हो,
जीवन की परिभाषा तो, अधिकार छीनकर जीना होता...
धरा पुनः वलिदान मांगती......हिन्द देश के वासी जागो...
श्रीमती गुलाब बैद ने अपनी ओजस्वी गीत से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।
1.कभी मार सकी मौत तुम्हें, हे अमर वीर बलिदानी...
भारत माँ के सच्चे सपुत हो, सच्चे हिन्दुस्तानी...
जब-जब भारतमाता को, दुश्मन ने आँख उठाकर
सीमा पर ललकारा
तब-तब भारत माँ ने तुम्हें पुकारा....
2.सैनिक जीवन है सर्वोत्तम, सर्वोत्तम सैन्य कहानी
कब मार सकी है मौत तुम्हें
हे अमर वीर बलिदानी...
3. चन्दन है भारत की माटी
महक रहा इसका कण-कण
जिसकी गौरव गाथा गाते
हरषे धरती और गगन.....
श्री नन्दलाल 'रोशन' ने ग़ज़ल और कविताओं के सामंजस्य को इस बखूबी बनाया कि सभी दर्शकगण बार-बार तालियां बजाते चले गये..
-कौन मेरे इस वतन में बीज नफ़रत के बो रहा....
-उनकी जुवां पर पत्थर पिघलने की बात है,
यह तो महज दिल को बहलाने की बात है।
-जो भी आया सामने.. सारे के सारे खा गये
हक़ हमार खा गये.. हक़ तुम्हारा खा गये..
और खाते-खाते पशुओं का चारा भी वो खा गये।
-पल में तौला.. पल में मासा, राजनीति का खेल रे बाबा..
धक-धक करती चलती दिल्ली अपनी.. रेल रे बाबा..
बहुत पुराना खेल रे बाबा...
सां-संपेरे का खेल हो गया.... पकड़ लिया तो बात बन गई,
चुक गया तो मारा गया रे बाबा.....
ताल ठोक संसद जाते, जनता के प्रतिनिधी कहलाते।
सारा ऎश करे य बहीया...
जनता बेचे तेल रे भईया...
पहले मिल बाँटकर खाते.. फिर आपस में लड़ जाते;
स्वाँगों की भी जात !.. फेल हो गई रे बाबा...
डॉ.मुस्ताक अंजूम ने अपनी ग़ज़लों से सभी को मोह लिया।
हजारों ग़म हैं, फिर भी ग़म नहीं है
और हमारा हौसला कुछ कम नहीं है।
और उसकी बात पर कायम है सबलोग
जो खुद अपनी बात पर कायम नहीं है।।
श्री गजेन्द्र नाहटा और श्री आलोक चौधरी जी ने भी अपनी कविताओं का पाठ इस मंच से किया।
गजेन्द्र जी नाहाटा-
दर्द को खुराक समझ के पीता हूँ
और टूटते हृदय को आशाओं के टांके से सीता हूँ।
आलोक चौधरी
जब सुभाष ने शोणित माँगा था.. सबसे करी दुहाई थी,
जाग उठा था देश चेतना.. पाषाणों में, जान आई थी।
कवि मंच "अपनी धरती-अपना वतन" के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री योगेन्द्र शुक्ल 'सुमन' ने अपनी कविताओं का पाठ शुरू करने से पूर्व कहा कि सभागार में शहर के सो से भी अधिक कवियों की इस उपस्थिति ने यह बता दिया कि कि इस महानगर में भी कवि रहते हैं श्री प्रकाश चण्डालिया का आभार व्यकत करते हुए अपनी दो पंक्तियां कही..
जो दिलों को जोड़ता है, उन ख्यालों को सलाम
अव्वल तुफानों में उन मशालों को सलाम
जो खुद जलकर उजाला बांटता हो उन मशालों को सलाम।
आपने कहा कि वे अपने लोगों से गुजारिश करूँगा कि वे अपने शहर के चिरागों को सामने लायें। आपने "मातृभूमि की बलिवेदी को प्रणाम" कविता का पाठ भी किया.. आपने वर्तमान राजनीति के रंग को अपनी इस कविता के माध्यम से चित्रण किया..
जिन शलाखों के पीछे वह बरसों रहे ... वे अब शलाखों के पहरेदार हैं।
कल तलक जो लुटेरे थे, आज उनकी सरकार है।।
होना हो तो एक बार हो, ये बार-बार होना कैसा है।
और धार चले तो एक बार चले.. धार-धार चलना कैसा है।।
आपने आगे कहा...
तासकंद की रात न हो तो अच्छा है,
शिमला जैसा प्रातः न हो तो अच्छा है,
करगील जैसा घात न हो तो अच्छा है
समझौते की बात न हो तो अच्छा है।

मुझे अब रौशनी दिखने लगी -अमित चित्रांशी

परिचय:


श्री अमित चित्रांशी

श्री अमित चित्रांशी जिन्हें रंजन गोरखपुरी के नाम से भी जाना जाता है। आप पेशे से सिविल इंजिनियर हैं। 17 जन्वरी 1983 को जन्मे इस शायर को इनके ख्यालों की रवानगी, जोशीले और संवेदनशील लेखन से इस भीड़ में बिल्कुल अलग पहचाना जा सकता है। कद-ए-'फ़िराक' से रौशन है शहर-ए-गोरखपुर, खुदा करीम है 'रंजन' से भी गुमां होगा... अगर ये कहें कि जगजीत सिंह साहब और चित्रा जी की गज़ल गायकी ने ज़हन के शायर को जन्म दिया तो को‌ई अतिशयोक्ती नही होगी! लिखना जैसे आदत सी बन ग‌ई है! एक दफ़े इन्होनें लिखा था:

बेज़ौक और बेखयाल जी रहे थे हम, मासूमियत की दीद ने शायर बना दिया...

लखन‌ऊ में अदब के जानकारों से उर्दू अदब, उस्लूब और अरूज़ की बेहद मुफ़ीद जानकारियां हासिल की और ये सफ़र आज मुसलसल गज़लें और नज़्मों तक पहुंच गया है! सफ़र बादस्तूर जारी है और बीते सफ़र की यादों का गुलदस्ता है 'दयार-ए-रंजन'...


Amit Ranjan Chitranshi
5/160 Vinay Khand Gomti Nagar
Lucknow-226010

http://ranjangorakhpuri.blogspot.com/

1. मुझे अब रौशनी दिखने लगी...

मुझे अब रौशनी दिखने लगी है,
धुएं के बीच आखिर लौ जली है

यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है

सम्भल जाओ ज़रा अब हुक्मरानों,
यहां आवाम की ताकत बडी है

हिला पाओगे क्या जज़्बे को इसके,
ये मेरी जान मेरी मुम्बई है

घिरा फिर मुल्क जंगी बादलों से,
कि "रंजन" घर में कुछ राशन नही है

2. कुछ शेर माँ के नाम...


१)
मेरे अंजाम के रस्ते भी मुझको राह देते हैं,
मेरा आगाज़ होता है मेरी मां की दुआ लेकर

२)
मै मां के इस हुनर पे आज भी हैरान होता हूं,
मेरे आंसू टपकते हैं उसी की आंख से होक़र

३)
मैं जब भी ज़िन्दगी की दौड में कुछ टूट जाता हूं,
ये आंखें भीग जाती हैं, मुझे मां याद आती है

४)
मुझे न इश्क न उल्फ़त की चाह है या रब,
मैं खुश वहीं हूं जहां मां सा प्यार मिलता है

५)
कोई तन्हा सा कतरा मुश्किलों से रोक रखा था,
फ़कत मां के तसव्वुर ने मगर बरसात कर डाली

६ )
मेरी शैतानियो के बाद मां अक्सर ही गुस्से में,
मुझे तो मारती थप्पड मगर रोती रही दिनभर

पर एक बार कलम ने ये भी लिखा दिया

7)
शहर के तौर हैं मुमकिन है खलल पड़ती हो,
वो माँ को गाँव में लाचार छोड़ आया है...

3. पौधे से जुदा होकर...



वो यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,
सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर

मेरी तकलीफ़ का एहसास उसको है तभी शायद,
उडा जाता है अश्कों को फ़िज़ाओं में सबा होकर

फ़कत पल भर ही देखा और नज़रें फेर लीं गोया,
बची हों कुछ अदाएं बेवफ़ाई में वफ़ा होकर

यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,
कि पी रखी है काले बादलों ने गमज़दा होकर

बताया था मुझे ये राज़ कल शब एक वाइज़ ने,
'अगर मैखाने में जाओ तो आना पारसा होकर'

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर

चुभन होती है अब दोनो तरफ़ कांटों के तारों से,
कि मुद्दत हो गई है सरहदों को यूं खफ़ा होकर

बचा लेना मुझे उन पत्थरों की चोट से "रंजन".
मैं जीना चाहता हूं सिर्फ़ तेरा आईना होकर

सन्त शर्मा की तीन कविताएँ

परिचय:

सन्त शर्मा आप मूल रूप से बिहार के नालंदा प्रान्त का निवासी हैं|आपकी शिक्षा-दीक्षा कोलकाता (वेस्ट बंगाल) में संपन्न हुई और अभी कोलकाता स्थित एक निजी कंपनी में Cost Account के तौर पर कार्यरत हैं | आप मातृभाषा हिंदी में कवितायें लिखना मेरे निजी सुकून का हिस्सा मानते हैं। अपने वैचारिक मित्रों से बाटना इनको सुखद अनुभूति देता है। इनकी तीन कविताएँ -


1. स्वाभिमान
हीन भाव से ग्रसित जीव, उत्थान नहीं कर पाता है
हर लक्ष्य असंभव दिखता है, जब स्वाभिमान मर जाता है

स्वाभिमान है तेज पुंज, यदि कठिनाई है अन्धकार
यह औषधि है हर रोगों की, गहरा जितना भी हो विकार

यह शक्ति है जो है पकड़ती, छुटते धीरज के तार
यह दृष्टि है जो है दिखाती, नित नए मंजिल के द्वार

यह आन है, यह शान है, यह ज्ञान है, भगवान है
कुछ कर गुजरने की ज्योत है, हर चोटी का सोपान है

हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है

यह है तो इस ब्रह्माण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है

2.विश्वास न खोने देना
हो थकान भरी जीवन की डगर, तुम आश न सोने देना
बरसेंगे ख़ुशी के मेघ, ये तुम विश्वास न खोने देना

जितना पतझड़ है सत्य, वसंत भी उतनी ही सच्चाई है,
दो दिवस के मध्य में ही हरदम, एक रात घनी आयी है
कब दिल की अगन, रोके है पवन, तुम चाह ना बुझने देना,
है ताकत तो झुकता है गगन, तुम बाह ना झुकने देना

सतयुग हो या हो कलयुग, है सत्य दिखा परेशां,
सहमा, टुटा राहों में, थी सफर ना उसकी आसां
पर जीता है वो हरदम, तुम हार ना होने देना,
मंजिल है तुम्हारी निश्चित, बस राह ना खोने देना

मन हार न माने जब तक, है आश विजय की तब तक,
जब प्रेम प्रबल हो जाता, तब रोके कौन विधाता
सौ आश जो टूटे दिल के, फिर स्वप्न संजोने देना,
हां ख्वाब है होते पूरे, ये विश्वास न खोने देना

3.समय बलवान होता है ..

तनिक सामर्थ्य पा, अक्सर बली अभिमान होता है,
मनुज, ठोकर लगे ना, दर्द से अनजान होता है
समय-निधि रेत पर, कितने घरौंधे रोज बन मिटते,
न जीता जा सका बन्धु, समय बलवान होता है

युगों पहले धरा पर वक़्त एक, दसशीश था आया,
गगन भी था प्रकंपित, अजेय जो सामर्थ्य था पाया
दशा विपरीत जब आई, न क्षण भर भी वो टिक पाया,
बुरे कर्मो का तो भरना, बुरा परिणाम होता है,
न जीता जा सका ........

वक़्त ने ली नयी करवट, अहम् का बीज फिर फूटा,
सुत प्रेमवद्ध एक भूप ने, निज भ्रात हित लूटा
शत-पुत्र, सारे मर मिटे, नहीं विष बेल फल पाया,
अतिक्रमण अधिकार का हो जब, यही अंजाम होता है,
न जीता जा सका ............

काल पश्चिम का फिर आया, व्योम सा जग पे जो छाया,
न क्षण-भर को मिली राहत, दिवाकर भी था घबराया
अहम् के श्रृंग से टूटा यू, धरा पर निज सिमट आया,
यहाँ तो हर उदय का, निश्चित कभी अवसान होता है,
न जीता जा सका ............

कितना है दम चराग़ में: श्रद्धा जैन

परिचय:


श्रीमती श्रद्धा जैन

शिक्षा - विज्ञान में MSc और कंप्यूटर Advance accounting में डिप्लोमा। विदिशा में पली बढ़ी मगर पिछले नौ सालों से सिंगापुर निवासी हूँ। फिलहाल आप एक अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं। 'विदिशा' भारत के मध्यप्रदेश में भोपाल शहर के पास एक बहुत छोटा सा शहर है। आपने केमिस्ट्री में अपनी शिक्षा पूरी की और वक़्त की हवा ने आपको सिंगापुर पहुँचा दिया यहाँ आकर देश की सभ्यता की खूबियों को जाना, जाना रिश्ते क्या हैं, अपनो का साथ कैसा होता है, और अपने देश की मिट्टी में कितना सकुन है कुछ एहसास कलम से काग़ज़ पर उतर आए और श्रद्धा आप सबके बीच आ गयी !
http://bheegigazal.blogspot.com



कितना है दम चराग़ में, तब ही पता चले
फानूस* की न आस हो , उस पर हवा चले

लेता हैं इम्तिहान अगर, सब्र दे मुझे
कब तक किसी के साथ, कोई रहनुमा चले

नफ़रत की आँधियाँ कभी, बदले की आग है
अब कौन लेके झंडा –ए- अमनो-वफ़ा चले

चलना अगर गुनाह है, अपने उसूल पर
सारी उमर सज़ाओं का ही सिल सिला चले

खंजर लिये खड़ें हों अगर मीत हाथ में
"श्रद्धा" बताओ तुम वहाँ फ़िर क्या दुआ चले
*फानूस = काँच का कवर


2.

वक़्त करता कुछ दगा या चाल तुम चलते कभी
था जुदा होना ही हमको हाथ को मलते कभी

आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी

थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी

कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी

आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी

तनहा

कवि: मयंक सक्सेना
जन्म: लखनऊ में १९८४ में, पत्रकारिता से जीवन यापन, वर्तमान में ज़ी न्यूज़ में कार्यरत। प्रसारण पत्रकारिता से परास्नातक एवं कई पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर कई लेख कवितायेँ प्रकाशित।

बिन तेरे हर बात तनहा
मैं भी तन्हा, रात तन्हा

ज़िंदगी के खेल में अब
कैसी शह और मात तन्हा

बाग़ कैसा बाग़बां बिन
गुल भी तन्हा, पात तन्हा

वक़्त वो भूला नहीं है
मैं था तेरे साथ तन्हा

क्या कहें हम हो गए हैं
छोड़ तेरा हाथ तन्हा

ज़िंदगी की मुश्किलों में
तुम थे एक सौगात तन्हा

बिन तेरे हम खोजते हैं
अपनी तो औकात तन्हा

यूं तो दुनिया में मिलेंगे
तुमको कई हज़रात तन्हा

पर किसी में दिख जो जाए
हम सी इक भी बात तन्हा

रास्ता कट जाए जल्दी
खत्म हों हालात तन्हा

यूं तो अब तक हो चले हैं
अपने सब जज़्बात तन्हा

सोचता हूं फिर भी एक दिन
तुमसे हो मुलाक़ात तन्हा


मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@gmail.com
Zee News Limited,
FC-19, Sector 16 A, Noida, Uttar Pradesh.

नए साल की शुभकामनाएँ - देवमणि पांडेय


आंखों में अपनी हैं आशा की किरणें
चाहत के सुर धड़कनों में सजाएं
इक दिन मिलेगी वो सपनों की दुनिया
जादू उमंगों का दिल में जगाएं...


बादल में बिजली है, सूरज में आभा
हिम्मत हवाओं में सागर में लहरें
मुश्किल नहीं कुछ अगर ज़िद है मन में
चलतें रहें बस कहीं भी ना ठहरें


नज़रों में झिलमिल सितारे सजाकर
नई रोशनी से गगन जगमगाएं...


हम कौन हैं ! क्या है हसरत हमारी
लाज़िम है खु़द को भी पहचान लें हम
अगर हौसला है रगों में हमारी
तो मंज़िल पे पहु्चेंगे, ये जान लें हम


कड़ी धूप हो, पर न पीछे हटेंगें
ये एहसास हम रास्तों को दिलाएं...


कलियों की मुस्कान, फूलों की रंगत
निगाहों में हों खू़बसूरत नज़ारे
चलो अपनी बाहों में आकाश भर लें
करें बंद मुट्ठी में ये चांद-तारे


चेहरे पे सबके हो खुशियों की रौनक
जहां में मोहब्बत की खु़शबू लुटाएं...


नए साल की हैं ये शुभकामनाएँ


देवमणि पांडेय
ए – 2, हैदराबाद इस्टेट, नेपियन सी रोड, मुम्बई – 400036
M : 98210-82126 / R : 022 - 2363-2727
Email : devmanipandey@gmail.com

आखिरी ख़त - रचना श्रीवास्तव


कवियित्री का नाम: रचना श्रीवास्तव
जन्म: लखनऊ (यू पी), लिखने की प्रेरणा बाबा स्वर्गीय रामचरित्र पाण्डेय जी और माता श्रीमती विद्या वती पाण्डेय और पिता रमाकांत पाण्डेय।
रूचि: लेखन, अभिनय ,संगीत सुनना, कवि गोष्ठियों में भाग लेना, डैलस में, भारत में, मंच संचालन, अभिनय में अनेक पुरस्कार और स्वणॅ पदक भी आपको मिले हैं। वाद विवाद प्रतियोगिता में पुरस्कार, लोक संगीत और न्रृत्य में पुरस्कार, रेडियो फन एशिया, रेडियो सलाम नमस्ते (डैलस ), रेडियो मनोरंजन (फ्लोरिडा ), रेडियो संगीत (हियूस्टन), में कविता पाठ। कृत्या, साहित्य कुञ्ज, अभिव्यक्ति, सृजन गाथा, लेखिनी, रचनाकर, हिंद युग्म, हिन्दी नेस्ट, गवाक्ष, हिन्दी पुष्प, स्वर्ग विभा, हिन्दी मिडिया आदि में लेख, कहानियाँ, कवितायें, बच्चों की कहानियाँ और कविताये प्रकाशित।


1. आखिरी ख़त


मेरी बच्ची
जानती हूँ अब न जी पाऊँगी
तेरे साथ और न रह पाऊँगी
माफ़ करना ,मेरी बच्ची मुझे
के जन्म तो दिया तुझे ,
पर पाल न पाऊँगी
इस कठोर जहाँ मे तुझे
मै अकेला ही छोड़ जाऊँगी
रात दिन देखा था सपना तेरा
सोचा था साथ रहेगा सदा तेरा मेरा
पर .....
आज आई जो गोद मे मेरे
तो जी भर के तुझको खिला भी न पाऊँगी
सोचा था ,
जब तू पहला कदम उठाएगी
थाम उंगुली तेरी तुझ को चलना सिखाउँगी
कहेगी जब पहली बार माँ मुझे
दौड़ के तुझको गले आपने लगाऊँगी
तेरी तोतली बोली का इंतजार था कितना
पर अब जब तू बोलेगी ,
मै तुझ को सुन न पाऊँगी
दिल मे था के ,
हर रात तुझ को लोरी सुनाऊंगी
सपनो की प्यारी सी दुनिया मे
तुझे अपने साथ लेके जाऊँगी
करोगी जब जिदद कभी मुझसे
बड़े प्यार से तुझको बह्लाउँगी
तेरी मासूम हसी मे
गम आपने भूल जाऊँगी
फैला के नन्ही बाहें जब तू गले लग जायेगी
सारी दुनिया की खुशियाँ
मेरे क़दमों तले आजायेंगी
सजाये थे
तुझ को लेके कितने सपने मेने
अब उन्हें कभी भी पूरा न कर पाऊँगी
बस अभी थोड़े ही दिनों मे
इस जहाँ से मै चली जाऊँगी
काश!!!!!!!!!!!!!!!
काश कोई
सारी दौलत के बदले
मुझे जीने की थोडी मौहलत दे दे
तो कर के बड़ा तुझ को
हँसते हँसते इस दुनिया से चली जाऊँगी
पर ये हो न सकेगा जानती हूँ मै
फ़िर भी इन झूठे खयालो से
दिल को आपने बहलाती हूँ मै
बंद होती आंखों मै है बस मासूम चेहरा तेरा
सोचती हूँ के कौन पालेगा तुझे
कौन रखेगा ख्याल तेरा
मेरी बच्ची
तुझे अब बिन माँ ही बड़े होना है
ख़ुद ही आपना सहारा बनना है
मेरी अरुशी
मेरी प्यारी
जब आए मेरी याद तुझे
तस्वीर मेरी हाथों मै उठा लेना
गले उसको लगा लेना
मेरे आंचल मे ख़ुद लो लपेट लेना
बंद कर आँख मुझको तुम महसूस करना
मै हूँगी पास तेरे
इस बात पे भरोसा करना
दे न सकी माँ का प्यार तुझको
ममता की छाँव भी न दे सकी
इस खाता के लिए मुझको मेरी बच्ची
हो सके तो मुझको माफ़ करना
सांसे दूट रहीं है
बचने की आस भी छूट रही है
तू धुंधली सी दिख रही है
पर कितनी प्यारी लग्रही है
लगता है अब और न जी पाऊँगी
तेरी दुनिया मै अब न रह पाऊँगी
मेरी बच्ची
प्यार
- तेरी माँ


कहानी तो रोज
काकी सुनाती थी
माँ रात मे
न जाने कहाँ जाती थी
सुबह
कोई भूखा नही रहता था
आज भी
रात होने से डरती हूँ
काश !
इस डर के अंधेरों की सुबह हो


उसकी माँ ने
बसता और टिफिन पकडाया
मेरी माँ ने
झाडू कटका
उसे स्कूल बस मे चढाया
माँ ने मुझे
मालकिन का घर दिखलाया
जानती है वो
न गई तो पैसे कटेंगे
और हम भूखे रहेंगे
काश !
मै उजाले की
कोई किरण पकड पाती
तो मै भी
स्कूल बस मे चढ़ पाती


गिरा पुल
हजारों लोग मरे
रिश्वत ले नेता
पत्रकारों को बता रहा था
आतंक वादियों की
साजिश का अंदेशा जाता रहा था
दीवार पे लिखे
तम सो मा ज्योतिर्गमय के शब्द
इधर उधर हो रहे थे
फ़िर देखा तो लिखा था
ज्योति सो मा तमोग्म्य


बेटी होने की खुशी
अब सिर्फ़
वैश्याये मनाएँगी
समाज के ठेकेदारों के घर
बेटियाँ कोख मे
दफ़न कर दिजायेंगी
काश !
गर्भ का अन्धकार छोड़
वो दुनिया का उजाला देख पाती


2. एक बेरोजगार नौजवान


मैं आज का नौजवान
बेरोजगारी से
हूँ परेशान
व्यंग बाँण से बिधा
कटाक्ष से धायल
मैं उम्मीद मे इसकी
नजाने कितने जन्म
लेता रहा मरता रहा
लगा करलूं कुछ वयापार
संग आपने दूँ
औरों को भी रोजगार
विचार आया
खोल लूँ
एक दुकान
जहाँ पे ग्राहक
सच मे
समझा जाएगा भगवान
समान होगा शुध
देने होंगे वाजिव दाम
ईमानदारी से होगा
जहाँ सब काम
इन्ही सपनों के साथ
ले बैंक से क़र्ज़
बनाईं हम ने आपनी दुकान
लोग आए
खूब बिका आपना समान
लगा के
जल्दी ही चुका दूँगा क़र्ज़
पूरा कर पाउँगा
सारा फ़र्ज़
दूसरे दिन देखा
लगी थी दुकान पे भीड़ भरी
असली था समान
इसीलिए आई है जनता सारी
पंहुचा वहां
तो रह गया हैरान
लौटा रहे थे
लोग आपना समान
देशी घी खा के तेरा
बीमार है पूरा घर मेरा
तेल मे है
अलग सी गंध
मसलों मे है
कुछ ज्यादा सुगंध
सारे समान का बुरा है हाल
ख़राब है तुम्हारा पूरा माल
अरे भाई साहब !
तभी तो है इतना कम दाम
मैं कहता रहा
असली है एकदम असली है हर समान
ज्यादा मुनाफा चाहता नही
इसीलिए रखा कम दाम
पटक समान
चला गया हर इन्सान
मैं बैठा रहा
हो के परेशान
नकली असली मे
कुछ इस कदर घुल चुका था
मिलावटी समान का स्वाद
जिव्हा पे कुछ इसकदर चढ़ चुका था
के हर कोई
असली को नकली
समझ रहा था
बगल के दुकानदार ने कहा
करो थोडी मिलावट
और बढ़ा दो दाम
चल निकलेगी तुम्हारी दुकान
माँ की बीमारी ,पिता का चेहरा
याद आया सब कुछ
फ़िर भी बेच न पाया
मैं आपना इमान
रोजगार कार्यालय की
लम्बी कतार मे
फ़िर खड़ा हो गया
मैं एक भारतीये नौजवान


3.ज़िंदगी


क्या चीज है ?कैसी है ?
और
किस हाल मे है ज़िंदगी
फूलों मे बसी या
बिखरी है खुशबुओं मे
या काँटों की बिच फसी है ज़िंदगी


सांसों के तार से बुनी है
या धडकनों मे बसी है
या लाशों के बिच पलती है ज़िंदगी


सुख की सहिली है
या खुशियों से खिलती है
या गम की चादर से ढकी है ज़िंदगी


तुम को मिली है क्या ?
किसीने देखि है क्या ?
या फ़िर मुझसे ही छुपी है ज़िंदगी


चाँद की किरण है
या शीतल पवन है
या झुलसते तन सी है ज़िंदगी


लोगों के बिच मिलती है
या लोगों मे मिलती है
या फ़िर विरानो मे भटकती है ज़िंदगी


अपनों की आस है
या प्यार की प्यास है
या टूटते रिश्तों का अहसास है ज़िंदगी


महलों के गुम्बदों मे
या घर के आंगन मे
या झोपडी के दिए मे जलती है ज़िंदगी


4.दुआ


सूखे से तरसी आंखों ने
मांगी दुआ वर्षा की
पानी बरसा और बरसता ही चलागया
सब खुछ बहा गया
कुछ यूँ कबूल होती है
दुआ गरीबों की


5. बटवारा


घर ,धन ,वृद्ध आश्रम के खर्चे
यहाँ तक के कुत्ते भी बटें
पर पिता के त्याग ,प्यार
माँ के आँसू ,दूध ,और पीडा
का कुछ मोल न लगा
क्यों की पुरानी,घिसी चीजों का
कुछ मोल नही होता


6. शोर


चहुँ और है शोर बहुत
भीतर बहार हर ओर
तभी सुनाई नही देती
हिमखंड के पिघलने की आवाज़
गाँव के सूखे कुंए की पुकार
धरती में नीचे जाते
जल स्तर की चीख


7. समीकरण


माँ पिता पालते हैं
चार बच्चे खुशीसे
पर चार बच्चों पे
माँ पिता भारी है
ये कलयुग का समीकरण है


8. विस्फोट


दर्द चीखा
लहू बहा
शहर काँपा
दुनिया के नक्शे पे
भारत थरथराया
राम हुआ शर्मिंदा
रहीम ने सर झुकाया


लाशों की भीड़ में खड़ी
माँ भारती रो रही
चिता जलाऊँ किस के लिए
बनाऊँ कब्र किसकी
मानव मानवता
धर्म धार्मिकता
देश देशभक्ति
है कौन यहाँ
हुई हो न मौत जिसकी

तुम्हें क्या बनना है? - ममता कुमारी


बन सकूं तो बनूं - पानी
किसी ने पूछा -
तुम्हें क्या बनना है?
समझ नहीं आया
बताऊँ क्या उसे?
सोची -
पूछ देखूं अपने मन से
थोड़ी प्रतीक्षा, मिला उत्तर - 'पानी' ।
शायद -
मिटे इससे इंसान की बैचेनी,
शांत हो सके
धधकती मन की ज्वाला।
किसी वीरान रेगीस्तान में गिरे तो
फूटे फिर नयी कोंपल।
ले सकूं हर आकार,
दिखा सकूं सच्चा प्रतिबिंब
सच और झूठ का।
और
अंत में बन सकूं
ममता के आंसू
जो बरस जाये
बन कर वर्षा ।


- ममता कुमारी, कोलकाता।