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अबकी दिवाली मनाएब कैसे

उजड़ि गेल घर बाढ़ में
डूबि गेल पूँजी व्यापार में
ना बा कहूँ रहे के ठिकाना
ना बा कुछु खाय के ठिकाना
दिया से अपन घर के सजाएब कैसे
जुआड़ी सैंया के हम मनाएब कैसे
अबकी दिवाली हम मनाएब कैसे
अबकी दिवाली हम मनाएब कैसे
ना बा घर ना बा दुआर
ओ भगवान तोहार मूर्ति हम बिठाएब कैसे
तोहार आरती हम उतारब कैसे
हो अबकी दिवाली हम मनाएब कैसे
अबकी दिवाली हम मनाएब कैसे

रचयिता - महेश कुमार वर्मा

दीपान्विता -रामनिरंजन गोयनका

हे दीपान्विता
कर दो तुम गहन अमावस्या का तिमिर विच्छिन्न
कर दो हमारा अन्तर्मन आलोकित
हे दीपमालिके
तुम हो राष्ट्रमाता की दिव्य आरती
हमारी सभ्यता संस्कृति की निर्मल धारा
कामाख्या भुवनेश्वरी नारायणी पार्वती
दुर्गा काली लक्ष्मी सरस्वती विश्वभारती
तुम केवल दीपोत्सव नहीं
तुम हो एक मानसिक स्थिति
एक दिशा और अनुभूति की चमक
समर्पण का भाव और जीवन की परिभाषा
कोटि कोटि भारतवासियों के प्राणों की अभिलाषा
दीवार और द्वारों पर सज्जित दीपमाला
हमारे अन्तःकरण में प्रज्जवलित
ज्ञानदीप की एक विस्तारित श्रृंखला हो
दीपावली है वस्तुतः हमारे भावना दीप की
सत्य शाश्वत आन्तरिक अभिव्यक्ति
जो हमारी चक्षुसीमा के पार तक को
आलोकित और प्रकाशित करती है
और हमें सुपथ की ओर प्रेरित करती है।
दीपावली पर हम करते हैं
परंपरागत कागज और कलम की पूजा
किन्तु संपदा की स्याही और श्रम की कलम से
साधना की माटी पर हस्ताक्षर करना ही होगा
व्यश्टि से ऊपर उठकर समष्टि के लिये पूजा
दीपावली की ज्ञान ज्योति
मानव जीवन का श्रेष्ठतम पक्ष मुखरित करे।


क्या आप भी अपनी कविता दीपावली पर पोस्ट करना चाहते हैं? हाँ! तो देर किस बात की अभी तुरन्त हमें मेल कर दें।
हमारा मेल पता:

क्या लाये पापा इस बार

दीवाली तो आ गई पापा, क्या लाये इस बार

बच्चा बोला देखकर, सुबह सुबह अखबार

सुबह सुबह अखबार, कि पापा कपड़े नए दिलवा दो

मम्मी को एक साड़ी औ बहना को शूट सिलवा दो

और अपने लिए तो पापा, जो जी में आए लेना

पर घर का कोना कोना दीपों से रोशन करना

पापा ने सुन बात , कहा बेटे , क्या बतलाएं

डूब गई पूंजी शेयर में, कैसे दीप जलाएं

बेटा बोला, बुरा न मानो, तो एक बात बताएं

पैसे के लालच में पड़कर, क्यूँ पीछे पछ्ताएं

दादाजी भी तो कहते थे लालच बुरी बला है

शेयर नहीं सगा किसी का, इसने तुम्हे छला है

कोई बात नही पापाजी, यह लो शीतल पेय

बीती ताहि बिसरी देय, आगे कि सुधि लेय

चिराग-चमन चंडालिया

पानी में चंदा और चंदा पर आदमी .....

कई साल पहले अपनी हिन्दी की उत्तर प्रदेश बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में एक निबंध पढा था, पानी में चंदा - चंदा पर आदमी। आज जब हम ख़ुद चाँद पर पहुँच गए हैं तो सहसा वो निबंध याद आ गया.....खुशी हुई पर २ मिनट बाद ही अपने वो भाई याद आ गए जो उस रात भी भूखे सोये और शायद आज रात भी..... सारी खुशी काफूर हो गई जब देखा कि किस तरह राज ठाकरे के किराये के बदमाश मुंबई की सडकों पर आतंक फैला रहे थे और संसद में हमारे कर्णधार कि तरह बेशर्मी से बर्ताव कर रहे थे ..... क्या वाकई हम चाँद पर पहुँचने लायक हैं ? क्या वाकई भूखे लोगों के देश में चांद्रयान उपलब्धि है ?

पानी में चंदा और चंदा पर आदमी .....

भूख जब सर चकराती है
बेबसी आंखों में उतर आती है
बड़ी इमारतों के पीछे खड़े होते हैं जब
रोजी रोटी के सवाल
तब एक गोल चाक चौबंद इमारत में
कुछ बहुरूपिये मचाते बवाल
गिरते सेंसेक्स की
ख़बरों में दबे
आम आदमी की आह
देख कर मल्टीप्लेक्स के परदे पर
मुंह से निकालते वाह
सड़क पर भूखे बच्चों की
निगाह बचाकर
कुत्तों को रोटी पहुंचाती समाजसेवी
पेज थ्री की शान
आधुनिक देवी
रोटी के लिए कलपते
कई करोड़ लोगों का शोर
धुंधला पड़ता धुँआधार डी जे की धमक में
ज्यों बढो शहर के उस छोर
तरक्की वाकई ज़बरदस्त है
नाईट लाइफ मस्त है
विकास की उड़ान में
जा पहुंचे चाँद पर
पर करोड़ो आंखों में नमी
पानी में चन्दा और
चन्दा पर आदमी

मयंक ...............

मयंक सक्सेना

द्वारा: जी न्यूज़, FC-19,

फ़िल्म सिटी, सेक्टर 16 A,

नॉएडा, उत्तर प्रदेश - 201301

ई मेल : mailmayanksaxena@gmail.com

मैं हिन्दू हूँ - सचीन जैन



(These lines I wrote on 10th Oct. In this the Strong feeling which I am expressing are that being Hindu I have been shown the way of truth but still I am free to do what all I like.)



मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,
सर्वश्रेष्ठ हूँ मैं, हर पंथ (religion) को मैं सर्वश्रेष्ठ ही पाऊँ,

कभी मैं कृष्ण को अपना कहूं, कभी मैं राम का हो जाऊं,
कभी महावीर मुझे अपने लगे, कभी मैं बुद्ध की शरण में जाऊं,
देवी से मिन्नतें करू, साईं की भी कृपा मैं मांगू,
पैगम्बर पर भी मथ्था टेकू, इशु को भी गले लगा लूं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,

कभी मैं देखो मंदिर जाऊं, कभी ना मंदिर को अपनाऊं,
फिर भी मैं चर्च-पीर के आगे शीश अक्सर झुकाकर जाऊं,
गीता मुझसे तुम पढ़वाओ, चाहे रामायण का पाठ करालो,
कुरान-बाइबल को भी मैं गीता-रामायण जैसा ही तो पाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,


तुलसी स्वास्थ्यवर्धक है, इसलिए उसको पूज कर आऊं,
प्रक्रति पर हम निर्भर है, देव उनको मैं इसलिए बताऊँ,
अन्याय के खिलाफ लडो,रामायण-गीता में मैं ये सिखलाऊं,
गलत कुछ भी करने से पहले, मैं उस का डर दिल में पाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,

होली पर रंगों से खेलूँ और दीवाली दीप जलाऊं,
नवरात्रों में देवी को पूजूं, दशहरे पर रावन को फून्कूं,
फसले आने पर पर लोहणी और बसंत मनाऊं,
ईद-क्रिसमस भी मैं होली और दीवाली बनाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,


बुरा मुझे बुरा लगे, हिन्दू हो या कोई और हो,
भला मुझे भला लगे, हिन्दू हो या कोई और हो,
हिंदुत्व मुझे यही सिखाता, भले को अपनाकर बुरे से दूर जाऊं,
जीवन अपना इसलिए है की किसी के काम आऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,

गर्व है मुझको हिदुत्व पर जिसने मुझको ये समझाया,
बुरा ना कोई होता,दिल में सबके प्रेम है,
कुछ लोगो की चालें है ये, दिलो में जो ना मेल है,
इन चालों को मिटाता जाऊं, मैं बस प्यार बढाता जाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,

कोई कहे पचपन करोड़, कोई कहे एक सौ करोड़ देवता है,
चार वेद,अठारह पुराण,एक सौ आठ उपनिषद कुछ स्मृतियां भी हैं,
रामायण, महाभारत,गीता और न जाने कितने है,
वो एक रूप अनेक, अन्याय से लड़ और कर्म कर बस मैं तो ये ही बतलाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,

धरम के नाम पर मैंने भी बहुत सी रूढियां लिखी है,
सच है ये की कभी मैंने भी लोगो से खिलवाड़ किए,
धरम की ही सीख से मैं आत्मा की सुन पाऊं,
डरूं नहीं, झुकूं नहीं बस सही को ही अपनाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,

सभ्यता का बड़ा समुन्दर है मुझको ये है समझाने को,
वो है एक रूप अनेक, ना कोई बड़ा और ना कोई है छोटा,
कर्म-धर्म सब यहीं है फलने, किसी को भी चाहे अपनाऊँ,
उसको पूजूं या ना पूजूं, हर जान बस एक इंसान को ही पाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,

माँ-बाप मेरे हिन्दू है , मैं भी हिन्दू कहलाया,
सब धर्मो का आदर यहाँ, सब को सम्मान मैं दे पाऊं,
धर्म की सीख से ही भगवान् से पहले भी मैं इंसानियत को पूज पाऊं,
आज़ादी है मुझको यहाँ किसी को भी मैं अपनाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं मन की मैं करता ही जाऊं,

साम्प्रदायिकता के नाम पर हिन्दू का देखो जो विरोध जताते हैं,
धर्म का मतलब जीवन दर्शन, ये वो समझ न पाते हैं,
जिन लोगो को ज्ञात नहीं खुद के जीने का मतलब,
उनकी बातों को मैं लोगो क्यों अपने दिल से लगाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं मन की मैं करता ही जाऊं,

धर्म का अर्थ जीवन दर्शन है, ये कैसे मैं समझाऊं,
रास्ते इनेक मंजिल है एक, ये मैं कैसे दिखलाऊं,
सबकी अपनी कोशिश है उस तक पहुँच पाने की,
सबकी कोशिश को देखो मैं सही रास्ता दिखलाऊं,
मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं मन की मैं करता ही जाऊं...........



परिचय:
सचीन जैन:
DOB: 07-08-1982 , Started my own Software venture related to India's education industry and working to make that successful. Being so busy in life, give sometime to the poetry and hindi.
9873763210
Noida.



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गोधरा - कुलदीप गुप्ता


गोधर; हिरोशिमा की तरह
हठात् विश्व के नक्शे पर आ गया।
गुमनाम सा कस्बा
इंसानियत की कब्रगाह बन
सुर्खियों में छा गया।
यह बात ओर थी कि
उन सुर्खियों को सुर्ख रंग
इंसानों के लहू से ही मिला था।


अब प्रतिशोध में कुछ और शहरों के नाम
सुर्खियों में लाने थे;;
फिर से हुई इन्सानियत की हत्या
फिर कुछ और लहू बहा
तब कुछ और शहरों के नाम
सुर्खियों में थे।
मैंने लूटा दुकानों को,
इस बात से बेखबर,
कि अपनी पांच हज़ार साल की धरोहर
उसी दहलीज़ पर मैं खुद
लूटा कर आया हूँ।
हां वही सम्पदा जो मुझे
राम-बुद्ध और गांधी से
विरासत में मिली थी
छण भर में गवां आया हूँ।


हां ! अब अपना सब कुछ लूटा
भेड़िये में तबदील हो गया था
समर्थ को नहीं दोष गुनगुनाता
कुछ और शिकार तलाश रहा था
इंसानियत अब जर्द और रक्तविहीन हो
हाशिये पे पंहुच चुकी थी।


वसुधैव कुटुम्बकम का मंत्र
अब बासी हो चला,
राम का वर्गीकरण कर
उसका धनुष अपने हाथों में ले
हाँ ! अब हम ही
राम की रक्षा कर रहे थे


परिचय:

Kuldip Gupta
Aerocom Pvt Limited
S3/49 Mancheswar I.E.
Bhubaneswar 751010
09337102459
Blogs at : http://kuldipgupta.rediffiland.com//

ftsbhubaneswar@gmail.com


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दोनों खिड़की से झांक रहा है चांद

- पवन निशान्त -


सुहाग रात के तोहफे में आप अपनी पत्नी को क्या दे सकते हैं। कुछ भी। हर वो चीज जो पैसे से खरीदी जा सकती है, लेकिन मैंने एक ऐसा तोहफा अपनी पत्नी को दिया, जो पैसे से नहीं खरीदा जा सकता था। अभी रात के एक बजकर 47 मिनट हुए हैं। नेट पर काम करते-करते आंख दुखने लगीं तो मैं छत पर चला गया। धवल चांदनी रात शरद ऋतु की और मेरे कमरे की छत उतनी ही सद्द स्नग्धि, जितनी कि तब थी। मैं मुंडगेली से बाहर की तरफ झांका कि देखूं दिन भर फांय-फांय करने वाला और गला काटकर पैसा कमाने वाला आदमी क्या किसी नई विधि से नींद लेता है। सब निढाल पड़े थे और बेसुध थे। कल्लू जग रहा था, वह मुझे देखते ही बोला-आधी रात को जाग रहे हैं साहब। मैंने कहा-अबे तू क्यों जग रहा है। बोला-आज मेरी शादी की सालगिरह की रात है। मुझ पर ज्यादा देर तक छत पर रुका नहीं गया। कमरे में आया और डायरी खोली। जो तोहफा मैंने दिया था, आज उसे सार्वजनिक कर रहा हूं। मुझे लगता है कल्लू इस एहसास को रात भर जीएगा ।


मेरे सिर के ऊपर आसमान है
मेरे पैरों तले जमीन है
शेष जो भी है इधर-उधर सब
निरर्थक है..

मेरे हाथों में तुम्हारा चेहरा है
मेरे होठों पर तुम्हारे होंठ
मेरे सीने पर तुम्हारा वक्ष है
गर्म सांस कुछ गुनगुनाना चाह रही हैं
मैं उठा हूं तुम पर
एक पुरातात्विक कृति सा
तुम परियों सी अंगड़ाई में
बहुत कुछ कहने,सुनने,जानने,मचलने
मचलकर जानने और जानकर मचलने को हो रही हो व्याकुल

इसके अलावा शेष जो भी है आगे-पीछे
लोक-परलोक समझने का है, मेरे लिए
निरर्थक है..

मेरी आंखों में सपने हैं
सपनों का घर है
घर में एक थाली दो कटोरियां हैं
जलाने के नाम पर एक बोतल किरोसिन
और स्टोव है
खाने को हरे शाक शुद्ध गेंहू की चपातियां हैं
एक बिस्तर है
दो खिड़कियां हैं
चंदा दोनों खिड़कियों से झांक सकता है
तुम हो, मैं हूं
और अगर कोई आने वाला भी है तो
वह जाने कि उसे आना है भी कि नहीं
इसके अलावा शेष जो भी सोचने का है, मेरे लिए
निरर्थक है..

मैं हूं, तुम हो
तुम हो, मैं हूं
भूखे-प्यासे
सुख हैं दुख हैं हमी हैं
यज्ञ हैं याजक हैं
कृत्य हैं कृतिया हैं हमी हैं
हमी चेतन हैं या कहें तो
हमीं नश्वर हैं
हमीं नूतन हमीं पुरातन
दर्शन हैं परिभाषाएं हैं

कहने को हमारे पास इतने शब्द हैं
जितने आसमान में सितारे
पर हमारे सितारे गर्दिश में हैं
शब्द हमने दूर धकेल दिए हैं-
अनुभूतियों के पिंड में
पिंड में हवा है हवा में योग हैं
यही जीवन है यही भोग है

शेष जो भी है-
सुंदर असुंदर, मेरे लिए
इस समय निरर्थक है..


परिचय:

जन्म-11 अगस्त 1968, रिपोर्टर दैनिक जागरण, रुचि-कविता, व्यंग्य, ज्योतिष और पत्रकारिता
पता-69-38, महिला बाजार, सुभाष नगर, मथुरा, (उ.प्र.) पिन-281001.

E-mail:pawannishant@yahoo.com


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अन्तर्जाल - श्यामसखा 'श्याम'


वाकई हो तुम कमाल
जब चाहो जहां चाहो
भटको, गाओ, मौज मनाओ
जब चाहो-अपने
अपने खास-निजी
दुखड़े गैरो को सुनाओ
चुगली का डर नहीं है
क्योंकि अन्तर्जाल-अन्तर्जाल है।
मोहल्ला या घर नहीं है
यहां कही बात शून्य में विलीन हो जाती है
अन्तर्जाल की छाती
अन्तरिक्ष से बड़ी छाती है
कवियों की महफिल जमती है
सचमुच बहुत गाढी छनती है
न्याय है धर्म है
साहित्य का मर्म है
राजपथ हैं, पगडंडिया है, रास्ते हैं
लोग कहां-कहां से आकर
कहां-कहां की धूल फ़ांकते हैं|


डेटिंग है-शादी है
चर्च-काबा या परमधाम है
बच्चे जवान बूढे़ सब आते हैं
बोरियत से निजात पाते हैं
अन्तर्जाल काम्पैक्ट फ़्लैटों में
विशाल मैदान-याने सबकी अपनी स्पेस है
और अपने राज़ छिपाने की जगह विशेष है
एक अनोखी ग्रेस [ grace ] है
अबूझ सवाल है
बिन मिट्टी खाद-पानी,
के फूल खिल जाते हैं
रात-दिन दोपहर जब
चाहो दोस्त मिल जाते हैं
बिना-बोले घंटो बतियाते है.
न दरवाजा खटखटाना है
न बेल-बजाना है
न कहीं आना जाना है
बस चूहा[mouse] घुमाना है
सामने मिलता खड़ा जमाना है|


एक बार
मुझे भी एड्वेन्चर का शौक चर्राया
जाने क्या सोच कर
एक फ्रेंच बाला का चौला अपनाया
जो न केवल अलबेली थी
बल्कि दुनिया में बिलकुल अकेली थी
ढूंढ रही थी सहारा
एक राज-कुमार, उसकी किस्मत का सितारा
नेट पर जाल बिछाया
बहुत सजीले जवानो को था मेरा प्रोफ़ाइल भाया।


रोज चैट होती थी
फ़्रेंच बाला बनी मैं कभी हंसती थी
कभी रोती थी
जाने किस-किस के कंधे भिगोती थी
अंत मे एक जवान का रिज्यूम मुझे भाया
कुछ दिन चला यह खेल
फिर मैंने उसका फोटो मंगवाया
जब मेल से फोटो आया
तो मेरा सिर भन्नाया
वो तो निकला पड़ोसी डेरी वाला रामलुभाया
तब जाकर मेरी समझ में अंतर्जाल का भेद आया
कि
जो आप नहीं हैं
पर दबी है जो होने की इच्छा
वह कर पाते हैं
और खुद से खुद को छुपाते हैं
इस तरह अपने सपने पूरे कर जाते हैं


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डॉ० श्यामसखा'श्याम' मौदगल्य का संक्षिप्त परिचय

जन्म: अगस्त  २८, १९४८  [अप्रैल  १, १९४८  विद्यालयी रिकार्ड में]
जन्म स्थान - बेरी वालों का पेच रोहतक
जननी-जनक: श्रीमति जयन्ती देवी,  श्री रतिराम शास्त्री
शिक्षा - एम.बी; बी.एस ; एफ़.सी.जी.पी.
सम्प्रति - निजी नर्सिंग होम
लेखन:
भाषा- हिन्दी, पंजाबी, हरयाणवी व अंग्रेजी में
प्रकाशित पुस्तकें- ३ उपन्यास [नवीनतम-कहां से कहां तक-प्रकाशक-हिन्द पाकेट बुक्स]
२ उपन्यास ,कोई फ़ायदा नहीं हिन्दी,समझणिये की मर-हरयाण्वी में साहित्य अकादमी हरयाणा द्वारा पुरस्कृत;
३ कथा संग्रह-हिन्दी-अकथ ह.सा.अकादमी द्वारा-पुरस्कृत;
१ कथा संग्रह इक सी बेला-पं.सा अका.द्वारा पुरस्कृत;
५ कविता संग्रह प्रकाशित-एक ह,सा.अ.द्वारा अनुदानित
१ ग़ज़ल संग्रह-दुनिया भर के गम थे
१ दोहा-सतसई-औरत वे पांचमां[हरियाण्वी भाषा की पहली दोहा सतसई]
१ लोक-कथा संग्रह-घणी गई-थोड़ी रही-ह.सा.अका.[अनुदानित]
१ लघु कथा संग्रह-नावक के तीर-ह.सा.अका [अनुदानित]

चार कहानियां ह.सा अका. २ तीन-पंजाबी सा.अका द्वारा पुरस्कृत
एक उपन्यास-समझणिये की मर'-एम.ए फ़ाइनल पाठ्यक्रम[ कुरुक्षेत्र वि.विद्यालय मे ]
मेरे साहित्य पर एक शोध-पी.एच.डी हेतु,तीन एम.फिल हेतु सम्पन्न।
सम्पादन-संस्थापक संपादक: मसि-कागद[प्रयास ट्रस्ट की साहित्यिक पत्रिका]-दस वर्ष से
कन्सलटिंग एडीटर: एशिया ऑफ़ अमेरिकन बिबिलोग्राफ़ीक मैगज़ीन-२००५ से
सह-संपादक-प्रथम एडिशन-रोह-मेडिकल मैगज़ीन मेडिकल कालेज रोहतक-१९६७-६८
सम्मान -पुरुस्कार
१ चिकित्सा- रत्न पुरस्कार-इन्डियन मेडिकल एसोशिएशन का सर्वोच्च पुरुस्कार-२००७
२ पं लखमी चंद पुरस्कार [ लोक-साहित्य हेतु ]-२००७
३ छ्त्तीसगढ़ सृजन सम्मान [ मुख्यमंत्री डॉ० रमन सिंह द्वारा ]-२००७
४ अम्बिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण-२००७
५-कथा बिम्ब-कथापुरस्कार मुम्बई,
६ राधेश्याम चितलांगिया-कथा पुरस्कार- लखनऊ
६ संपादक शिरोमिणि पु.श्रीनाथद्वारा-राजस्थान
सहित-लगभग २५ अन्य सम्मान पुरस्कार
अध्यक्ष[प्रेजिडेन्ट]: इन्डियन मेडिकल एसोशियेशन हरियाणा प्रदेश; २ साल १९९४-९६
संरक्षक: इंडियन,मेडिकल.एसो.हरियाणा-आजीवन
सदस्य: रोटरी इन्टरनेशनल व पदाधिकारी
सदस्य कार्यकारणी: गौड़ब्राह्मण विद्याप्रचारणी सभा
सम्पर्क: मसि-कागद १२ विकास नगर रोह्तक १२४००१
Phone: ०९४१६३५९०१९ .
E-Mail:shyamskha@yahoo.com




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अन्तर्यात्रा - डॉ.दीप्ति गुप्ता


क्या तुमने कभी अन्तर्यात्रा की है ?
नहीं ................ ???
तो अब करना ! अपने अन्दर बसी
एक–एक जगह पर जाना; किसी भी जगह को अनदेखा,
अनछुआ मत रहने देना !
तुम्हें अपने अन्दर की, खूबसूरत जगहें,
खूबसूरत परतें, बड़ी प्यारी लगेगीं,
सुख – सन्तोष देगीं, तुम्हें गर्व से भरेगीं
पर गर्व से फूल कर ,वहीं अटक मत जाना,
अपने अन्दर बसी, बदसूरत जगहों की
ओर भी बढ़ना......., सम्भव है; तुम
उन पर रूकना न चाहो, उन्हें नजर अन्दाज कर
आगे खिसकना चाहो, पर उन्हें न देखना,
तुम्हारी कायरता होगी, तुम्हारे अन्दर की सुन्दरता
यदि तुम्हे गर्व देंगी, तो तुम्हारी कुरूपता तुम्हें शर्म देगी !
तुम्हारा दर्प चकनाचूर करेगी, पर..., निराश न होना
क्योंकि, अन्दर छुपी कुरूपता का,कमियों का,खामियों का......,
एक सकारात्मक पक्ष होता है, वे कमियाँ, खामियाँ
हमें दर्प और दम्भ से दूर रखती हैं;
हमारे पाँव जमीन पर टिकाए रखती है,
हमें इंसान बनाए रखती है !‘महाइंसान’ का मुलअम्मा चढ़ाकर,
चोटी पे ले जाकर नीचे नहीं गिरने देती !
जबकि अन्दर की खूबसूरत परतों का,
गुणों का, खूबियों का एक नकारात्मक पक्ष होता हैं
वे हमे अनियन्त्रण की सीमा तक कई बार दम्भी और
घमंडी बना देती हैं, अहंकार के नर्क में
धकेल देती हैं......आपे से बाहर कर देती हैं......!
सो, अपनी अन्तर्यात्रा अधूरी मत करना !
अन्दर की सभी परतों को, सभी जगहों को
खोजना;देखना और परखना
तभी तुम्हारी अन्तर्यात्रा पूरी होगी !
ऐसी अन्तर्यात्रा किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं होती !!!
वह अन्दर जमा अहंकार और ईर्ष्या,लोभ और मोह,
झूठ और बेईमानी का कचरा छाँट देती हैं !
हमारे दृष्टिकोण को स्वस्थ और विचारों को स्वच्छ
बना देती है; हमारी तीक्ष्णता को मृदुता दे,
हम में इंसान के जीवित रहने की
सम्भावनाएँ बढ़ा देती है....!
काशी और काबा से अच्छी और सच्ची है यह यात्रा....!
जो हमें अपनी गहराईयों में उतरने का मौका देती है !
घर बैठे अच्छे और बुरे काविवेक देती है !!!




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डॉ.दीप्ति गुप्ता का परिचय:




आगरा विश्वविद्यालय से शिक्षा- दीक्षा ग्रहण की। कालजयी साहित्यकार अमृतलाल नागर के उपन्यासों पर पी.एच-डी. की उपाधि प्राप्त की । तदनन्तर क्रमश : तीन विश्वविद्यालयों - रूहेलखंड विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली एवं पुणे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापनरत रहीं। तीन वर्ष के लिए भारत सरकार व्दारा "मानव संसाधन विकास मंत्रालय", नई दिल्ली में "शैक्षिक सलाहकार" पद पर नियुक्त रहीं। समय से पूर्व रीडर पद से स्वैच्छिक अवकाश लेकर से पूर्णतया रचनात्मक लेखन में संलग्न।
राजभाषा विभाग, हिन्दी संस्थान, शिक्षा निदेशालय, व शिक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली एवं Casp, MIT, Multiversity Software Company , Unicef ,Airlines आदि अनेक सरकारी एवं गैर-सरकारी विख्यात संस्थानों में एक प्रतिष्ठित अनुवादक के रूप में अपनी सेवाएँ दी।
हिंदी और अंग्रेज़ी में कहानियाँ व कविताएँ, सामाजिक सरोकारों के लेख व पत्र आदि प्रसिध्द साहित्यिक पत्रिकाओं - "साक्षात्कार" (भोपाल), "गगनांचल" (ICCR, Govt of India), "अनुवाद"," नया ग्यानोदय" (नई दिल्ली), हिंदुस्तान, पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, विश्वमानव, सन्मार्ग(कलकत्ता), Maharashtra Herald, Indian Express, Pune Times ( Times of India) और मॉरिशस के "जनवाणी" तथा "Sunday Vani में प्रकाशित। नैट पत्रिकाओं में कहानियाँ और कविताओं का प्रकाशन एवं प्रसारण । नैट पर English की भी 30 कविताओं का प्रसारण, जिनमें से अनेक कविताएँ गहन विचारों, भावों, सम्वेदनाओं व उत्कृष्ट भाषा के लिए "All Time Best " के रूप में सम्मानित एवं स्थापित।
हिंदी में 'अंतर्यात्रा' और अंग्रेज़ी में 'Ocean In The Eyes' कविता संग्रह प्रकाशित व पद्मविभूषण 'नीरज जी' व्दारा विमोचन।
कहानी संग्रह "शेष प्रसंग " की अविस्मरणीय उपलब्धि है - भूमिका में कथा सम्राट् "कमलेश्नर जी" द्वारा अभिव्यक्त बहुमूल्य विचार, जो आज हमारे बीच नहीं हैं। प्रख्यात साहित्यकार - अमरकान्त जी, मन्नू भंडारी, सूर्यबाला, ममता कालिया द्वारा "शेष प्रसंग " की कहानियों पर उत्कृष्ट प्रतिक्रिया दी है।
''हरिया काका'' कहानी को उसकी मूल्यपरकता के कारण पुणे विश्वविद्यालय के हिन्दी स्नातक (F.Y) पाठ्यक्रम में शामिल में होने का गौरव प्राप्त हुआ है तथा अन्य एक और कहानी व कविताओं को भी स्नातक (S.Y.) में शामिल किए जाने की योजना है। इन्टरनैट पर संचरण करती, सामाजिक एवं साम्प्रदायिक सदभावना से भरपूर ''निश्छल भाव'' कविता एवं माँ और बेटी के खूबसूरत संवाद को प्रस्तुत करती ''काला चाँद'' कविता को Cordova Publishers द्वारा New Model Indian School (NRI ) भारत एवं विदेश की सभी शाखाओं के लिए, पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
दिल्ली और पुणे रेडिओ पर अनेक चर्चाओं और साक्षात्कारों में भागीदारी।
लेखन के अतिरिक्त "चित्रकारी" में गहन रुचि । "ईश्वर" "प्रकृति" के रूप में चारों ओर विद्यमान "उसका ऐश्वर्य" और "मानवीय भाव" प्रमुख रूप से चित्रों की थीम बनकर उभरे तथा साहित्यिक रचनाओं की भाँति ही दूसरों के लिए सकारात्मक प्रेरणा का स्त्रोत रहे हैं।




सीमा गुप्ता की कुछ कविताएँ


1. "नहीं"


देखा तुम्हें , चाहा तुम्हें ,
सोचा तुम्हें , पूजा तुम्हें,
किस्मत मे मेरी इस खुदा ने ,
क्यों तुम्हें कहीं भी लिखा नहीं .
रखा है दिल के हर तार मे ,
तेरे सिवा कुछ भी नही ,
किस्से जाकर मैं फरियाद करूं,
हमदर्द कोई मुझे दिखता नही.
बनके अश्क मेरी आँखों मे,
तुम बस गए हो उमर भर के लिए ,
कैसे तुम्हें दर्द दिखलाऊं मैं ,
अंदाजे बयान मैंने सीखा नही.
नजरें टिकी हैं हर राह पर ,
तेरा निशान काश मिल जाए कोई,
कैसे मगर यहाँ से गुजरोगे तुम,
मैं तुमाहरी मंजील ही नही,
आती जाती कोई कोई अब साँस है ,
एक बार दिल भर के काश देखूं तुझे,
मगर तू मेरा मुक्कदर नही ,
क्यों दिले नादाँ ये राज समझा नही ..............



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2. "कभी आ कर रुला जाते"


दिल की उजड़ी हुई बस्ती,कभी आ कर बसा जाते
कुछ बेचैन मेरी हस्ती , कभी आ कर बहला जाते...
युगों का फासला झेला , ऐसे एक उम्मीद को लेकर ,
रात भर आँखें हैं जगती . कभी आ कर सुला जाते ....
दुनिया के सितम ऐसे , उस पर मंजिल नही कोई ,
ख़ुद की बेहाली पे तरसती , कभी आ कर सजा जाते ...
तेरी यादों की खामोशी , और ये बेजार मेरा दामन,
बेजुबानी है मुझको डसती , कभी आ कर बुला जाते...
वीराना, मीलों भर सुखा , मेरी पलकों मे बसता है ,
बनजर हो के राह तकती , कभी आ कर रुला जाते.........




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3. याद किया तुमने या नहीं


यूँ ही बेवजह किसी से,
करते हुए बातें,
यूँ ही पगडंडियों पर
सुबह-शाम आते जाते
कभी चलते चलते
रुकते, संभलते डगमगाते..
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ।


सुलझाते हुए अपनी
उलझी हुई लटों को
फैलाते हुए सुबह
बिस्तर की सिलवटों को
सुनकर के स्थिर करतीं
दरवाज़ी आहटों को
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..


बाहों का कर के
घेरा,चौखट से सर टिका के
और भूल करके दुनियाँ
साँसों को भी भुलाके
खोकर कहीं क्षितिज
में जलधार दो बुलाके
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..


सीढ़ी से तुम उतरते, या
चढ़ते हुए पलों में
देखूँगी छत से
उसको, खोकर के अटकलों में
कभी दूर तक उड़ाकर
नज़रों को जंगलों में
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..


बारिश में भीगते तो,
कभी धूप गुनगुनाते
कभी आँसुओं का सागर
कभी हँसते-खिलखिलाते
कभी खुद से शर्म करते
कभी आइने से बातें
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..


तुमसे दूर मैंने, ऐसे
हैं पल गुज़ारे,
धारा बिना हों जैसे
नदिया के बस किनारे..
बिन पत्तियों की शाखा
बिन चाँद के सितारे..
बेबसी के इन पलों
में...
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..
मुझे याद किया तुमने
या नहीं ज़रा बताओ..




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4. मुलाक़ात


चलो कागज़ के पन्ने पर ही आज,
छोटी सी हसीं मुलाक़ात कर लें
कुछ पूरे, कुछ अधूरे लफ़्जों में फ़िर,
आमने सामने बैठ कर बात कर लें

कुछ अपनी कहें, कुछ तुमसे सुने,
दिल की बातें बे-आवाज़ सही,
एक साथ कर लें
आमने सामने बैठ कर बात कर लें

युग एक बीता जो हम साथ थे,
ना जाने कब से मिलने को बेताब थे,
इस मिलन की घड़ी को आबाद कर लें,
आमने सामने बैठ कर बात कर लें

वो बेकल पहर आ गया है,
मुझे सामने तू नज़र आ गया है,
एक ज़रा देर क़ाबू में जज़्बात कर लें
आमने सामने बैठ कर बात कर लें

एक दूजे में खो जाएँ आओ चलो,
फिर ना बिछड़ें कभी ऐसे मिल जाएँ चलो,
अब तो पूरी अपनी मुलाक़ात कर लें,
आमने सामने बैठ कर बात कर लें




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5. तुम्हें पा रहा हूँ


तुम्हें खो रहा हूँ तुम्हें पा रहा हूँ,
लगातार ख़ुद को मैं समझा रहा हूँ

ना जाने अचानक कहाँ मिल गयीं तुम,
मैं दिन रात तुमको ही दोहरा रहा हूँ

शमा बन के तुम सामने जल रही हो,
मैं परवाना हूँ और जला जा रहा हूँ

तुम्हारी जुदाई का ग़म पी रहा हूँ,
युगों से मैं यूँ ही चला जा रहा हूँ

अभी तो भटकती ही राहों में उलझा,
नहीं जानता मैं कहाँ जा रहा हूँ

नज़र में मेरे बस तुम्हारा है चेहरा,
नज़र से नज़र में समा जा रहा हूँ

बेकली बढ़ गयी है सुकून खो गया है,
तुझे याद कर मैं तड़पा जा रहा हूँ

कहाँ हो छुपी अब तो आ जाओ तुम,
मैं आवाज़ देता चला जा रहा हूँ




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6. तन्हाई


काँटों की चुभन सी क्यों है तन्हाई,
सीने की दुखन सी क्यों है तन्हाई,
ये नज़रें जहाँ तक मुझको ले जायें,
हर तरफ़ बसी क्यों है सूनी सी तन्हाई,
इस दिल की अगन पहले क्या कम थी,
मेरे साथ सुलगने लगती क्यों है तन्हाई
आँसू जो छुपाने लगता हूँ सबसे,
बेबाक हो रो देती क्यों है तन्हाई
तुझे दिल से भुलाना चाहता हूँ,
यादों के भँवर मे उलझा देती क्यों है तन्हाई
एक पल चैन से सोना चाहता हूँ,
मेरी आँखों में जगने लगती क्यों है तन्हाई
तन्हाई से दूर नहीं अब रह सकता,
मेरी साँसों में, इन आहों में,
मेरी रातों में, हर बातों में,
मेरी आँखों में, इन ख़्वाबों में,
कुछ अपनों में, कुछ सपनो में,
मुझे अपनी सी लगती क्यों है तन्हाई ?





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सीमा गुप्ता का परिचय:




जन्म : अम्बाला (हरियाणा) शिक्षा : एम.कॉम. लेखन और प्रकाशन : अपकी पहली कविता “लहरों की भाषा" चौथी कक्षा में लिखी थी जिसे की बहुत सराहा गया। यहीं से आपको लिखने के लिए प्रोत्साहन मिला। इनकी कई कविताएँ और ग़ज़लें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी अधिकतर कविताओं में पीड़ा, विरह, बिछुड़ना और आँसू होते हैं; क्यों – शायद इनके अन्तर्मन से उभरती इन कविताओं में कुछ खास कहने को है जो हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है। आपकी कई कविताएँ अंतरजाल पर “हिन्दी युग्म" में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। आपने उद्योग जगत पर ख्याति प्राप्त दो पुस्तकें भी लिखीं हैं, ये दोनों पुस्तकें राष्ट्रीय स्तर पर उद्योग जगत में काफी चर्चित रही। प्रथम पुस्तक का नाम है - "GUIDE LINES INTERNAL AUDITING FOR QUALITY SYSTEM" (प्रकाशित:2000 में) और दूसरी पुस्तक "GUIDE LINES FOR QUALITY SYSTEM AND MANAGEMENT REPRESENTATIVE" (प्रकाशित: 2001 में) है। संप्रती : जनरल मैनेजर (नवशिखा पॉली पैक), गुड़गाँव

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श्रीमती कुसुम सिन्हा की दो कविता


मतवाली शाम


पश्चिम के नभ से धरती पर
फैलाती सोने की चादर
कुछ शर्माती कुछ मुस्काती
फूलों को दुलराती कलियों को सहलाती
अपने घन काले कुन्तल
पेडों पर फैलाती
धीरे धीरे धरती पर पग धरती
आई मतवाली शाम
कोयल की कू कू के संग
कू कू करती स्वर दोहराती
झीगुर के झंकारों की
पायल छनकाती
मन के सपनों में रंग भरती
स्वप्न सजाती आई शाम
शीतल करती तप्त हवा को
बाहों में भरकर दुलराती
पेडों के संग झूम झूम कर
कुछ कुछ गाती कुछ कुछ हंसती
सासों में शीतलता भरती
आई रंगीली शाम
प्रियतम से मिलने को आतुर
जल्दी जल्दी कदम बढाती
इठलाती सी नयन झुकाए
तारोंवाली अजब चूनरी
ओढे आई शाम
होने लगे बन्द शतदल भी
भ्रमर हो गए बन्दी उसके
मुग्ध हो रहा था चन्दा भी
देख देख परछाई जल में
बढा हुआ चिडियों का स्वर था
निज निज कोटर में बैठे सब
नन्हें शिशु को कण चुगाती
हंसती आई शाम



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ये बसन्ती हवा



ये बसन्ती हवा आज पागल सी लगती है
फूलों की गन्ध लिये
दौडती सी भागती सी
पल भर ठहरती है
पेडों की फुनगी पर
मगर दूसरे ही पल
दूर भाग जाती है
ये बसन्ती हवा आज पागल सी लगती है
धान के खेतों को
छेड छेड जाती है
इतराती आती है
बलखाती जाती है
कोयल की कू कू संग स्वर को मिलाती है
अभी यहां अभी वहां
पता नहीं पल में कहां
कितनी है चंचल यह
कितनी मतवाली है
मन में ना जाने कैसी प्यास जगा जाती है
फुलों के कलियों
कानों जाने क्या
भंवरों का संदेशा
चुपके कह जाती है
सरसों के फूलों संग खिलखिलकर हंसती है
बरगद की छाया में
थके हुए पंथी पास
पलभर ही रुक के
सारी थकन चुरा जाती है
ये बसन्ती हवा आज पागल सी लगती है



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कुसुम सिन्हा का परिचय:


आपको साहित्य में अभिरूचि पिता से विरासत में मिली। पटना युनिवर्सिटी से हिन्दी में एम.ए. किया और बी.एड. भी। आप गत २५ वर्षों से विभिन्न विद्यालयों में हिन्दी पढाती रहीं हैं । १९९७ में अमरीका चली गई । अमरीका में भारतीय बच्चों को हिन्दी पढ़ाने के लिए 'बाल बिहार' नामक एक स्कूल से जुड़ गई। तभी से कहानी, कविताएं लिखने का काम पूरे मनोयोग से करने लगी। अमरीका से प्रकाशित कई पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती है। विश्वा साहित्य कुन्ज, सरस्वती सुमन, क्षितिज, आदि आपके काव्य संग्रह 'भाव नदी से कुछ बूंदे' प्रकाशित हो चुकी है। दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।

Address:
Kusum Sinha
1770 Riverglen Drive
Suwanee, GA 30024

E-mail: kusumsinha2000@yahoo.com



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ग़ज़ल - आचार्य भगवत दूबे


क्यों पतली दाल न पूछो



मंहगाई का हाल न पूछो
क्यों है पतली दाल न पूछो

रुला रहे हैं बिजली-पानी
सड़क बनी घुड़साल, न पुछो

योजनाएँ तो हैं अरबों की
पर है कछुआ चाल न पूछो

जबसे बेटा बना दरोगा
खींच रहा है माल न पूछो

मंत्री से उनकी यारी है
खिचवा देगा खाल न पूछो

डाकू-थानेदार आजकल
मिला रहे सुर-ताल न पूछो

भ्रष्टाचार चरम सीमा पर
पुजा हुई कंगाल न पूछो



कवि का पता:
आचार्य भगवत दूबे
पता: पिसनहारी-मढ़िया के पास, जबलपुर(म.प्र.)
साभार: पनघट


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रिश्ता - महेश कुमार वर्मा

रचयिता :
महेश कुमार वर्मा
पटना (बिहार)
Website : http://popularindia.blogspot.com/
E-mail ID : vermamahesh7@gmail.com
Contact No. : +919955239846



1. ये रिश्ता चीज होती है क्या
-------------------------------

पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या
अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या
था कभी भाई-भाई का रिश्ता
कभी न बिछुड़ने वाला रिश्ता
जो हमेशा साथ-साथ खेलता
हमेशा साथ-साथ पढ़ता
हमेशा साथ-साथ खाता
हमेशा साथ-साथ रहता
पर आज जब वे बड़े व समझदार हुए
तो दोनों एक-दूसरे के दुश्मन हुए
हथियार लेकर दोनों आमने-सामने हुए
भाई-भाई का रिश्ता दुश्मनी में बदल गया
पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या
अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या
किया था शादी पति-पत्नी के रिश्ता के साथ
जीवन भर साथ निभाने को
पर रह गयी दहेज़ में कमी
तो न दिया उसे साथ रहने को
और जिन्दा ही पत्नी को जला डाला
क्योंकि था वह दहेज़ के पीछे मतवाला
था वह दहेज़ के पीछे मतवाला
जीवन भर साथ निभाने का रिश्ता
दुश्मनी में बदल गया
पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या
अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या
था पिता-पुत्र का रिश्ता
पिता ने उसे अपने बुढ़ापे का सहारा समझा
पर उसने तो दुश्मन से भी भयंकर निकला
निकाल दिया पिता को घर से
भूखे-प्यासे छोड़ दिया
नहीं मरा पिता तो उसने
जहर देकर मार दिया
बुढ़ापे का सहारा आज उसी का कातिल बना
था इन्सान पर आज वह हैवान बना
पता नहीं चलता ये रिश्ता चीज होती है क्या
अरे कोई तो बताए ये रिश्ता चीज होती क्या
ये रिश्ता चीज होती है क्या
2. बहुत ही नाजुक होती है ये रिश्ते
-------------------------------------

बहुत ही नाजुक होती है ये रिश्ते
निभा सको तो साथ देगी जीवन भर ये रिश्ते
नहीं तो सिर्फ कहलाने को रह जाएँगे ये रिश्ते
बनते हैं पल भर में, बिगड़ते हैं पल भर में ये रिश्ते
बहुत ही नाजुक होती है ये रिश्ते
बहुत ही नाजुक होती है ये रिश्ते
*
***
*****
*******
*****
***
*

क्रांति - प्रणव सक्सेना 'अमित्रघात'


उठो,उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका जिन्होंने उसे
कार मैं खिंचते दूर -देर तक देखा है
जो मुंह दबा हँसतें हैं और
असंख्य किरचों से
बिधि -दहपट -आधी उधडी
देह देखने की तीव्र इच्छा से जुटते हैं ,
जो उसकी करुण टेर
सुनकर भी अनसुना कर
दुरते - दुर्राते निकल गए
और जो
सरिश्ता पांतों में बंकाई से उसे देख कर
उत्तप्त उच्छवसन से दरेरते हाथ हैं
जो फेला समझ
प्रतिरूप उसकी उसके गुजरते ही
हेलकर दरीचों के कांच
ढांपती है तुंरत कनात से
और खटखटाते हैं जो कपट
निस्तब्ध अर्धरात्रि को
नगरवधू मान कर
जो रोक सकते थे मगर रोका नहीं जिन्होंने
परिसरण करती ही रही कदराई
रक्त बन जिन शिराओं में
जो खड़े ही रहे तावत
मृत आत्मा की बजबजाती लाश
काँधे लिए
हैबतनाक चुप्पी ओड़कर
उठो उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका .....
की तभी तिमिर भेदती आती है आवाज ठक की
बह उठा मृत रक्त मेरे ही कपाल से
और में स्तब्ध डबकोंहा सा जो बीङिया बन एकंग खड़ा था
आहत हो गिर धरा पर सुनता हूँ तुमुल संघोष
आगत क्रान्ति के पदचाप का
उस पत्थर को चूम
दम तोड़ता हूँ
अपने इस अंत पर मुग्ध हुआ जाता हूँ



http://amitraghat.blogspot.com/
E-Mail:pranyani@gmail.com
प्रणव सक्सेना 'अमित्रघात'
HIG -5 DUPLEX ARVIND VIHAR COLONY BAGHMUGALIYA
BHOPAL M.P. 462043
MO.9425681458
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डा.महेंद्र भटनागर की पाँच कविताएँ


1. आदमी

गोद पाकर, कौन जो सोया नहीं ?
होश किसने प्यार में खोया नहीं ?
आदमी, पर है वही जो दर्द को
प्राण में रख, एक पल रोया नहीं !


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2. कौन हो तुम


कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत
सजग, आधी अँधेरी रात में ?
उड़ रहे हैं घन तिमिर के
सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक,
मूक इस वातावरण को
देखते नभ के सितारे एकटक,
कौन हो तुम, जागतीं जो इन
सितारों के घने संघात में ?
जल रहा यह दीप किसका,
ज्योति अभिनव ले कुटी के द्वार पर,
पंथ पर आलोक अपना
दूर तक बिखरा रहा विस्तार भर,
कौन है यह दीप ? जलता जो
अकेला, तीव्र गतिमय वात में ?
कर रहा है आज कोई
बार-बार प्रहार मन की बीन पर,
स्नेह काले लोचनों से
युग-कपोलों पर रहा रह-रह बिखर,
कौन-सी ऐसी व्यथा है,
रात में जगते हुए जलजात में ?


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3. तुम

सचमुच, तुम कितनी भोली हो !
संकेत तुम्हारे नहीं समझ में आते,
मधु-भाव हृदय के ज्ञात नहीं हो पाते,
तुम तो अपने में ही डूबी
नभ-परियों की हमजोली हो !
तुम एक घड़ी भी ठहर नहीं पाती हो,
फिर भी जाने क्यों मन में बस जाती हो,
वायु बसंती बन, मंथर-गति
से जंगल-जंगल डोली हो !


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4. दर्शन

मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
यह दर्शन सपनों में भी कर
देता सोये उर को चंचल,
लखकर शीशे-सी नव आभा
आँखें पड़ती हैं फिसल-फिसल,
नयनों का घूँघट गिर जाता, मन भर आता है !
यह दर्शन केवल क्षण भर का
बिखरा देता भोली शबनम,
बन जाता है त्योहार सजल
पीड़ामय सिसकी का मातम,
इसका वेग प्रखर आँधी से होड़ लगाता है !
यह दर्शन उज्वल स्मृति में ही
देता अंतर के तार हिला,
नीरस जीवन के उपवन में
देता है अनगिन फूल खिला,
इसका कंपन मीठा-मीठा गीत सुनाता है !
यह दर्शन प्रतिदिन-प्रतिक्षण का
लगता न कभी उर को भारी,
दिन में सोने, निशि में चाँदी
की सजती रहती फुलवारी,
यह नयनों का जीवन सार्थक पूर्ण बनाता है ।
यह दर्शन मूक लकीरों का
बरसा देता सावन के घन,
गहरे काले तम के पट पर
खिँच जाती बिजली की तड़पन,
इसका आना उर-घाटी में ज्योति जगाता है !


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5. मत बनो कठोर

इन बड़री-बड़री अँखियों से
मत देखो प्रिय ! यों मेरी ओर !
इतने आकर्षण की छाया
जल-से अंतर पर मत डालो,
मैं पैरों पड़ता हूँ, अपनी
रूप-प्रभा को दूर हटालो,
अथवा युग नयनों में भर लो
फेंक रेशमी किरनों की डोर !
और न मेरे मन की धरती
पर सुख-स्नेह-सुधा बरसाओ,
यह ठीक नहीं, वश में करके
प्राणों को ऐसे तरसाओ,
छू लेने भर दो, कुसुमों से
अंकित जगमग आँचल का छोर !
इस सुषमा की बरखा में तो
पथ भूल रहा है भीगा मन,
तुम उत्तरदायी, यदि सीमा
तोड़े यह उमड़ा नद-यौवन,
आ जाओ ना कुछ और निकट
यों इतनी तो मत बनो कठोर !



डा.महेंद्र भटनागर का परिचय:

डा.महेंद्र भटनागर
एम.ए., पी-एच. डी. (हिंदी)।
जन्म-तिथि: 26 जून, 1926; जन्म-स्थान: झाँसी (उ.प्र. भारत)।
व्यवसाय / सम्प्रति: अध्यापन, मध्य-प्रदेश महाविद्यालयीन
शिक्षा / शोध-निर्देशक: हिन्दी भाषा एवं साहित्य।
कृतियाँ कविता: तारों के गीत (1949), टूटती शृंखलाएँ (1949), बदलता युग (1953), अभियान
(1954), अंतराल (1954), विहान (1956), नयी चेतना (1956), मधुरिमा (1959), जिजीविषा (1962), संतरण (1963), चयनिका (1966), बूँद नेह की : दीप हृदय का (1967) / हर सुबह सुहानी हो! (1984) / महेंद्र भटनागर के गीत (2001) / गीति-संगीति (2006), कविश्री : महेंद्रभटनागर (1970), संवर्त (1972), संकल्प (1977), जूझते हुए (1984), जीने के लिए (1990), आहत युग (1997), अनुभूत क्षण (2001), उमंग तथा अन्य कविताएँ (2001), डा. महेंद्र भटनागर की कविता (2002), मृत्यु-बोध : जीवन-बोध
(2002 ), राग-संवेदन (2005), कविताएँ : एक बेहतर दुनिया के लिए (2006), डा. महेंद्र भटनागर की कविता-यात्रा (2006), एक मुट्ठी रोशनी (2006), ज़िन्दगीनामा; आलोचना : आधुनिक साहित्य और कला (1956), दिव्या : एक अध्ययन (1956) / दिव्या : विचार और कला (1971), विजय-पर्व : एक अध्ययन (1957), समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद (1957), नाटककार हरिकृष्ण 'प्रेमी' और 'संवत्-प्रवर्तन' (1961), पुण्य-पर्व आलोक (1962), हिन्दी कथा-साहित्य : विविध आयाम (1988), नाटय-सिध्दान्त और
हिन्दी नाटक (1992); एकांकी : अजेय आलोक (1962); रेखाचित्र / लघुकथाएँ: लड़खड़ाते क़दम
(1952), विकृतियाँ (1958), विकृत रेखाएँ: धुँधले चित्र (1966); बाल व किशोर-साहित्य: हँस-हँस गाने
गाएँ हम! (1957), बच्चों के रूपक (1958) / स्वार्थी दैत्य एवं अन्य रूपक (1995), देश-देश की बातें (1967) / देश-देश की कहानी (1982), जय-यात्रा (1971), दादी की कहानियाँ (1974) विशिष्ट : डा. महेंद्र भटनागर-समग्र (कविता-खंड 1,2,3 / आलोचना-खंड 4,5 / विविध-खंड 6 : (2002) अनुवाद: कविताएँ अनेक विदेशी भाषाओं एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित।
संपादनः
सन्ध्या' (मासिक / उज्जैन / 1948-49), 'प्रतिकल्पा' (त्रौमासिक / उज्जैन / 1958 ),
कविश्री : 'अंचल' (1969), स्वातंत्रयोत्तार हिन्दी साहित्य (1969), गोदान-विमर्श (1983)
अध्ययनः
कवि महेंद्र भटनागर : सृजन और मूल्यांकन / सं. डा. दुर्गाप्रसाद झाला (1972),
कवि महेंद्र भटनागर का रचना-संसार / सं. डा. विनयमोहन शर्मा (1980),
डा. महेंद्र भटनागर की काव्य-साधना / ममता मिश्रा (1982),
प्रगतिवादी कवि महेंद्र भटनागर : अनुभूति और अभिव्यक्ति / डा. माधुरी शुक्ला (1985),
महेंद्र भटनागर और उनकी सर्जनशीलता / डा. विनीता मानेकर (1990),
सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि डा. महेंद्र भटनागर / सं. डा. हरिचरण शर्मा (1997),
डा. महेंद्र भटनागर के काव्य का वैचारिक एवं संवेदनात्मक धरातल / डा. रजत षड़ंगी (2003),
महेंद्र भटनागर की काव्य-संवेदना : अन्त:अनुशासनीय आकलन / डा. वीरेंद्र सिंह (2004),
डा. महेंद्र भटनागर का कवि-व्यक्तित्व / सं. डा. रवि रंजन (2005),
डा.महेंद्रभटनागर का रचना-कर्म / डा. किरणशंकर प्रसाद (2006),
डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-सृष्टि / सं. डा. रामसजन पाण्डेय;
पुरस्कार-सम्मान : मध्य-भारत एवं मध्य-प्रदेश की कला व साहित्य-परिषदों द्वारा सन् 1952, 1958, 1960, 1985 में पुरस्कृत; मध्य-भारत हिन्दी साहित्य सभा, ग्वालियर द्वारा 'हिन्दी-दिवस 1979' पर सम्मान, 2 अक्टूबर 2004 को, 'गांधी-जयन्ती' के अवसर पर, 'ग्वालियर साहित्य अकादमी'-द्वारा 'डा. शिवमंगलसिंह'सुमन'- अलंकरण / सम्मान,मध्य-प्रदेश लेखक संघ, भोपाल द्वारा 'डा. संतोषकुमार तिवारी - समीक्षक-सम्मान' (2006) एवं अन्य अनेक सम्मान।
संपर्क : 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (मध्य-प्रदेश)
फ़ोन : 0751-4092908


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